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विश्वास और आस्था की विविधता ख़त्म करने का राजनीतिक मॉडल

राज करने के आधुनिक बहुसंख्यकवाद सिद्धांत में अचानक किसी समुदाय को अल्पसंख्यक बता कर उसे भयभीत कर दिया जाता है। और यह भय उसे लोकतांत्रिक राजनीति में उसकी वाजिब जगह नहीं लेने देता।
विश्वास और आस्था की विविधता ख़त्म करने का राजनीतिक मॉडल
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: सोशल मीडिया

प्राचीन और लोक आस्था के स्थानों पर मैं खूब घूमता हूं। हालाँकि मेरी कोई निजी धार्मिक आस्था नहीं है और ईश्वर को मैं प्रकृति से अधिक नहीं मानता। प्रकृति के रहस्य जैसे-जैसे खुलते जाते हैं ईश्वर रूपी अंधकार भी उसी तेज़ी से दूर होता जाता है। लेकिन लोक आस्था के मंदिरों, मड़ैयों और मज़ारों में जाकर मैं उन्हें समझने की कोशिश ज़रूर करता हूँ। आप उनमें जा कर ही लोक की आस्थाओं और चातुर्वर्ण के अहंकार से ओतप्रोत वैदिकीय हिंदुओं के बहुलतावाद को समझ पाएँगे।

भारतीय समाज की विविधता ही उसका उदार चेहरा है, किंतु ब्राह्मणवाद या श्रेष्ठतावाद इस समाज को इतना संकीर्ण कर देता है कि भारत में बहुसंख्यक हिंदू कही जाने वाली जाति कभी सांप्रदायिक नज़र आती है तो कभी जातिवादी। उसका यही चेहरा सम्पूर्ण भारतीय हिंदू जाति का विद्रूप और विकृत चेहरा बन गया है।

इसके ऐतिहासिक स्वरूप में न जाएँ सिर्फ़ व्यावहारिक पक्ष को लें। पहला प्रश्न यह उठता है कि आख़िर क्या बात है कि जिस भू-भाग में क़रीब 800 वर्ष मुसलमानों ने और 200 वर्ष अंग्रेजों ने राज किया उस भू-भाग में आज भी न तो 100 प्रतिशत जनता ने इस्लाम धर्म अपनाया न अंग्रेजों का ईसाई धर्म। इसके अलावा दूसरा सवाल है कि ग़ैर मुस्लिम और ग़ैर ईसाई समाज में आज तक जाति और वर्ण व्यवस्था ख़त्म क्यों नहीं हुई? उलटे आरोप यह भी है कि स्वयं मुस्लिमों और ईसाइयों ने भी हिंदुओं की जातिव्यवस्था को अपना लिया। इसीलिए मंडल आयोग में शेख़, सैयद, पठान, मुग़ल और मिर्ज़ा के अलावा शेष मुस्लिम जाति को पिछड़ा बताया गया है।

इसी तरह ईसाइयों में ब्राह्मण ईसाई, ब्राह्मण ईसाई जाति में ही शादी-विवाह करना पसंद करते हैं। इसका एक जवाब तो यह है कि भारत में जिस किसी ग़ैर मुस्लिम, ग़ैर ईसाई और ग़ैर पारसी को हिंदू कहा जाता है, उनमें से वैदिकीय सनातनी हिंदुओं को छोड़ कर बाक़ी के लगभग सभी समुदाय न तो अवतारवाद को मानते हैं, न जाति, न 33 करोड़ देवता। बहुत से तो आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। बहुत से हिंदू कहे जाने वाले लोग अपने शवों को जलाते नहीं, बल्कि दफ़नाते हैं। जबकि वे मुस्लिम या ईसाई प्रभाव में नहीं हैं। ज़ाहिर है सारे ग़ैर मुस्लिम, ग़ैर ईसाइयों और ग़ैर पारसी लोगों को हिंदू बताना भारतीय समाज में बहुलतावाद को थोपना था ताकि अंग्रेज यहाँ निष्कंटक राज कर सकें।

भारत में पहली जनगणना 1872 में लॉर्ड मेयो ने करवाई थी। और यह वह दौर था जब 1857 के ग़दर से घबराये अंग्रेज भारत में हिंदू और मुस्लिम के बीच बड़ी दूरी पैदा करना चाहते थे। इसके लिए ज़रूरी था कि हिंदुओं के अंदर बहुसंख्यक होने का गर्व पैदा किया जाए और इसी कुटिल नीति के चलते उन्होंने हिंदुओं को 80 प्रतिशत बता दिया।

यह एक ऐसा खेल था, जिससे हिंदू और मुसलमान दो धुरी बन गए। मात्र डेढ़ दशक पहले जिन हिंदू-मुस्लिम के बीच दाँत काटी दोस्ती थी उनके बीच गहरी खाई पैदा कर दी गई। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि 19वीं सदी आते-आते भले ही मुग़लों की तुलना में मराठे, सिख और जाट कितने ही शक्तिशाली क्यों न हो गए हों लेकिन कोई भी दिल्ली के बादशाह की बेक़द्री नहीं करता था और न ही उनके विरुद्ध किसी भी यूरोपीय कंपनी की सहायता करता था। 1764 में बक्सर की लड़ाई के वक्त तक मराठे बादशाह शाहआलम के विरुद्ध अंग्रेजों के साथ नहीं गए। बल्कि जब इस लड़ाई में बादशाह की फ़ौजें हारीं तब भी इस लूट से मराठे, सिख व जाट दूर रहे। इन सब बातों से एक बात तो साफ़ पता चलती है कि हिंदू यह बात अच्छी तरह समझता था कि मुग़ल बादशाह ही देश की एकता का आधार है।

इस बात को समझने के लिए भारतीय समाज की बनावट को समझना होगा। और इसे समझने के लिए उसके आर्थिक स्वरूप को ही नहीं वरन उसके सांस्कृतिक और धार्मिक स्वरूप को भी समझना होगा।

वैदिकीय समाज की वर्ण व्यवस्था और कर्म-कांड को तो उपनिषद काल में ही ख़ारिज किया जाने लगा था जब आत्मा को समान बताया जाने लगा और छठी सदी ईसा पूर्व गौतम बुद्ध ने आत्मा और परमात्मा को नकार दिया गया।

परमात्मा को महावीर स्वामी ने भी नकारा तथा लोकायतों ने तो ज़बरदस्त क्रांति कर दी। उन्होंने पुनर्जन्म को मनगढ़ंत बता दिया। बुद्ध ने स्मृतियों का पुनर्जन्म होना कहा। अर्थात् ईसा के 600 वर्ष पूर्व ही भारत में आज की हिंदू मान्यताओं का खंडन कर दिया गया था। लेकिन धर्म सदैव एक वर्ग को लाभ पहुँचाता है और वह है दूसरों के श्रम के ऊपर ऐश करना। अर्थात् राजा, पुरोहित और सामंत  की शक्तियों और उसकी प्रभुता को स्थापित करता है एक कर्मकांडी धर्म। इसलिए जितना जनता समानता की तरफ़ आकर्षित होती उतना ही धार्मिक आचार्य उसकी और अधिक घेरेबंदी करते हैं। धर्म एक समाज के विस्तार के लिए जितना आवश्यक है उतना ही शासकों की कल्पित सत्ता के लिए भी।

गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी और लोकायतों के समानता के सिद्धांत के समानांतर दक्षिण में अलवार और नयनार आंदोलन चले। इसमें ईश्वर तो था लेकिन उसके प्रति दास्य भाव कम एक तरह का समर्पण था और ऐसा जिसमें वह मित्र है। इस भक्ति में समानता का सिद्धांत था। ब्राह्मण की श्रेष्ठता नहीं थी। तब इसी दक्षिण भारत से आए शंकराचार्य। उन्होंने कुछ बातें बौद्धों के शून्यवाद से लीं और कुछ वेदों के एकेश्वरवाद से तथा आत्मा, परमात्मा को एक बताया। लेकिन यह उनका सिद्धांत ही था, सच तो यह है कि लौकिक जगत में उन्होंने वर्ण-व्यवस्था और अवतारवाद को स्वीकारा।

उत्तर भारत में आकर उन्होंने बद्रीनाथ की प्रतिष्ठा की और जगन्नाथ पुरी, द्वारिका तथा रामेश्वरम धाम बनाए। इनमें अलवार (वैष्णव) और शैव (रामेश्वरम) को प्रतिष्ठा थी तो ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का संकेत भी। इसके बाद इसी क्रम में निम्बार्काचार्य ने 12वीं शताब्दी में विशिष्टाद्वैत का सिद्धांत लाकर ब्राह्मण श्रेष्ठता को स्थापित किया।

शंकराचार्य ने बौद्धों का उच्छेद तो किया लेकिन उस दर्शन और जनता के बीच उसकी लोकप्रियता को ख़त्म नहीं कर सके। इसीलिए तुर्कों के आने के बाद जब इस्लाम संपर्क में आया, जिसमें अवतार नहीं थे, मोक्ष नहीं था और 33 करोड़ देवता नहीं थे। इसमें एक ईश्वर था इसलिए इस्लाम न क़ुबूल करने के बाद भी भारतीय समाज की आस्थाओं में कई बदलाव आए। इन्हीं में थे नाथ संप्रदाय, योगी, कनफटा, कालमुख और निर्गुण संत जिनके प्रभाव से बाद में सिख धर्म अस्तित्त्व में आया। इनमें से कोई भी जाति नहीं मानता था न ब्राह्मण की श्रेष्ठता को स्वीकार करता था न देवी-देवताओं के बंधन में था। पर 1872 की जनगणना में इन सब को हिंदू मान लिया गया तथा मुस्लिमों के बीच के शिया, सुन्नी व अहमदियों को एक कर मुसलमान समझा गया। यही हाल ईसाइयों का हुआ, जबकि सब को पता है कि रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच कितनी बड़ी खाई है।

यही है राज करने का आधुनिक बहुसंख्यकवाद सिद्धांत। इसमें अचानक किसी समुदाय को अल्पसंख्यक बता कर भयभीत कर दिया जाता है। और यह भय उसे लोकतांत्रिक राजनीति में उसकी वाजिब जगह नहीं लेने देता। अगर आप पुराने स्थानों की इन मढ़ियों और मज़ारों में जाएँ तो पता चलेगा कि कैसे आस्था को इन मढ़ियों से निकाल कर मंदिरों और आश्रमों को सौंप दिया गया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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