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बिलक़ीस बानो के दोषियों की रिहाई का विरोध, कोर्ट में गुहार से लेकर धरना-प्रदर्शन और हस्ताक्षर अभियान

गुजरात सरकार के इस सज़ा माफ़ी फैसले का विरोध देश के कई राज्यों और शहरों में देखने को मिल रहा है। अदालत से अपील के अलावा विरोध स्वरूप कई जगह गुजरात सरकार के पुतले फूकें जा रहे हैं, रिहाई के खिलाफ लोग धरना दे रहे तो, कहीं आम लोगों ने सोशल मीडिया से लेकर सड़क पर अभियान चला रखा है।
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बिलक़ीस बानो गैंगरेप के दोषियों को माफी देकर जेल से छोड़े जाने का फैसला बड़ी कानूनी और सामाजिक बहस का मुद्दा बन गया है। आम लोगों से लेकर कानून के जानकारों तक, ज्यादातर लोगों ने गुजरात सरकार के इस फैसले पर नाराज़गी जाहिर की है। महिला संगठन, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नागरिक समाज के लोगों समेत छह हजार से अधिक नागरिकों ने देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि वो बिलक़ीस बानो मामले में बलात्कार और हत्या के लिए दोषी करार दिये गए 11 व्यक्तियों की सजा माफ करने के निर्णय को फौरन रद्द करने का निर्देश दे।

इस अपील के लिए एक संयुक्त बयान जारी किया गया है, इसमें कहा गया है कि सामूहिक बलात्कार और हत्या के दोषी 11 लोगों की सजा माफ करने से उन प्रत्येक बलात्कार पीड़िता पर हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पड़ेगा जिन्हें न्याय व्यवस्था पर भरोसा करने, न्याय की मांग करने और विश्वास करने को कहा गया है। बयान में मांग की गई है कि सजा माफी का निर्णय तत्काल वापस लिया जाए। जिससे न्याय व्यवस्था में महिलाओं का विश्वास बहाल हो सके।

बयान में आगे कहा गया है, "हत्या और बलात्कार के इन दोषियों को सजा पूरी करने से पहले रिहा करने से महिलाओं के प्रति अत्याचार करने वाले सभी पुरूषों के मन में (दंडित किये जाने का) भय कम हो जाएगा। इसलिए हम मांग करते हैं कि इन सभी दोषियों को सुनाई गई उम्रकैद की सजा पूरी करने के लिए तुरंत जेल भेजा जाए।"

बयान जारी करने वालों में अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन की सचिव कविता कृष्णन, अखिल भारतीय जनवादी महिला संगठन की उपाध्यक्ष सुभाषिनी अली, मैमूना मोल्ला, अनहद की शबनम हाशमी, सैयदा हमीद, जफरुल इस्लाम खान, रूप रेखा, देवकी जैन, उमा चक्रवर्ती, हसीना खान, रचना मुद्राबाईना और अन्य शामिल हैं।

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देश के कई राज्यों और शहरों में विरोध

बता दें कि गुजरात सरकार के इस सजा माफी फैसले का विरोध देश के कई राज्यों और शहरों में देखने को मिल रहा है। अदालत से अपील के अलावा विरोध स्वरूप कई जगह गुजरात सरकार के पुतले फूकें जा रहे हैं, रिहाई के खिलाफ लोग धरना दे रहे तो, कहीं आम लोगों ने इसे सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक चल रहे हस्ताक्षर अभियान से भी जोड़ा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में रविवार, 21 मई की शाम बिलक़ीस बानो के अपराधियों की रिहाई का कड़ा विरोध देखने को मिला। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के लंका गेट पर सैकड़ों की संख्या में छात्रों, पूर्व छात्रों और आम लोगों ने बिलक़ीस बानो के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान चलाया और रविदास चौराहे तक एकजुटता दिखाते हुए मार्च भी निकाला गया। ये आयोजन जॉइंट ऐक्शन कमेटी बीएचयू और दखल संगठन के नेतृत्व में किया गया, जिसमें छात्र संगठन के अलावा सामाजिक और महिलावादी कार्यकर्ताओं ने भी सहयोग दिया।

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इससे पहले रविवार को ही हरियाणा के पानीपत में अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की महिला और पुुरुष सदस्यों ने संविधान चौक पर एकत्र होकर गुजरात सरकार का पुतला फूंका। यहां उपस्थित महिलाओं ने गुजरात सरकार के माफी के आधार की निंदा करते हुए दोषियों की रिहाई को कानून का मजाक उड़ाने जैसा बताया।

शुक्रवार, 19 अगस्त को भी मध्य प्रदेश के गुना में ऑल इंडिया महिला सांस्कृतिक संगठन ने बिलकिस के दोषियों की रिहा के खिलाफ अखिल भारतीय विरोध दिवस मनाया और गुजरात सरकार के गैर लोकतांत्रिक और महिला विरोधी रवैया के खिलाफ धरना प्रदर्शन किया। संगठन ने इस फैसले की कड़ी निंदा करते हुए इसे सरकार द्वारा न्याय व्यवस्था का मजाक बताया।

कुछ ऐसे ही प्रदर्शन और धरने पूर्वर्ती राज्य मेघालय से लेकर झारखंड के बोकारो तक में देखने को मिले। एक ओर सभी समाजिक संगठन और कार्यकर्ता रिहाई के इस फैसले पर कड़ी आपत्ति जता रहे हैं, तो वहीं कानून के जानकार और खुद बिलक़ीस मामले में फैसला सुनाने वाले जज भी इसकी वजह समझ नहीं पा रहे। बिलकिस बानो को न्याय देने वाले जस्टिस यूडी साल्वी (रिटायर्ड) और जस्टिस मृदुला भाटकर के बयान भी सामने आए हैं। जस्टिस साल्वी ने ही गैंगरेप के इस मामले के 11 दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। वहीं जस्टिस मृदुला भाटकर ने इस फैसले को बरकरार रखा था।

'जिस पर बीतती है, वही बेहतर जानता है।'

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस साल्वी ने कहा है कि इस मामले में पीड़िता बिलक़ीस ने काफी हिम्मत दिखाई थी। जस्टिस साल्वी के अनुसार 'जिस पर बीतती है, वही बेहतर जानता है।' वहीं जस्टिस मृदुला भाटकर का कहना है कि इस मामले में न्यायिक व्यवस्था के तीनों ही स्तर पर कानून का पालन किया गया। उन्होंने कहा कि सेशन कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने लोगों को न्याय देने का काम किया है।

बीबीसी की एक रिपोर्ट में कई वरिष्ठ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने इस फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए इसे रेप सर्वाइवर के लिए एक नया ख़तरा बताया है, वहीं कई इसे रेप के क़ानून का रेप होने जैसा मान रहे हैं। किसी न्यायधिश ने इसे मानवीय मामला कहा है, तो कोई इसे न्याय का मज़ाक़ बनाने जैसा कह रहा है। कुल मिलाकर देखें तो, ये फैसला किसी के गले से नीचे नहीं उतर रहा। कई लोगो इसे प्राकृतिक न्याय की अवधारणा के लिए तगड़ा झटका बता रहे हैं। क्योंकि इस मामले में पीड़िता को घटना के बाद इंसाफ पाने की जद्दोजहद में भी प्रताड़ना के लंबे दौर से गुजरना पड़ा था। बाकायदा साक्ष्य मिटाने के भी प्रयास किए गए थे जिनमें पुलिसकर्मियों और डॉक्टरों को दोषी पाया गया था। केस को गुजरात से मुंबई शिफ्ट किया गया था ताकि पीड़िता निडर होकर गवाही दे सके। ऐसे में ये सवाल उठना लाज़मी है कि क्या इस मामले में 2014 की नीति के बजाय 1992 की नीति के आधार पर फ़ैसला लेना सही था?

बलात्कार और हत्या के दोषियों के लिए सज़ा-माफ़ी नहीं

ज्ञात हो कि इस फ़ैसले पर पहुँचने के लिए समिति ने गुजरात सरकार की 1992 की उस सज़ा-माफ़ी नीति को आधार बनाया है जिसमें किसी भी श्रेणी के दोषियों को रिहा करने पर कोई रोक नहीं थी। वहीं गुजरात सरकार ने ही साल 2014 में सज़ा-माफ़ी की एक नई नीति बनाई जिसमें कई श्रेणी के दोषियों की रिहाई पर रोक लगाने के प्रावधान हैं। इस नीति में कहा गया है कि बलात्कार और हत्या के लिए दोषी पाए गए लोगों को सज़ा-माफ़ी नहीं दी जायेगी। इस नीति में ये भी कहा गया कि अगर किसी दोषी के मामले की जांच सीबीआई ने की है तो केंद्र सरकार की सहमति के बिना राज्य सरकार सज़ा-माफ़ी नहीं कर सकती। अगर सज़ा-माफ़ी के लिए इस समिति के प्रावधानों को आधार बनाया गया होता तो ये साफ़ है कि इस मामले के दोषियों को सज़ा-माफ़ी नहीं मिल सकती थी।

यही नहीं, केंद्रीय गृह मंत्रालय की ताजा गाइडलाइन भी साफ कहती है कि आजीवन कारावास पाए कैदियों और बलात्कारियों को माफी नहीं दी जानी चाहिए। इसके बावजूद गुजरात सरकार ने इन अपराधियों को छोड़ने का फैसला किया, जो इसे प्रधानमंत्री के महिला सम्मान के आह्वान से उलट महिलाओं की सुरक्षा से खिलवाड़ की ओर इशारा करते हैं। बिलक़िस ने खुद इसे न्याय का दुखद अंत बताया है।

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गौरतलब है कि निर्भया मामले के बाद क़ानून को और सख़्त बनाया गया ताकि बलात्कार को रोका जा सके और अपराधियों में डर पैदा हो लेकिन गुजरात सरकार का ये फैसला और फिर अपराधियों की रिहाई का जश्न निश्चित ही महिलाओं के खिलाफ अपराध को बढ़ावा देने जैसा प्रतीत होता है। ऐसे में जब देश में लगभग हर 15 मिनट में एक बलात्कार हो रहा है, मामलों को न्यायिक प्रक्रिया से निपटाए जाने की रफ्तार बहुत धीमी है। तो न्यायालयों में महिलाओं की लड़ाई वैसे ही बहुत मुश्किल हो जाती है, फिर इस मामले में तो अपराध की जघन्यता सोच के भी परे है।

बिलक़ीस बानो का दर्द

मालूम हो कि उस वक़्त बिलक़ीस महज़ 20 साल की थीं, जब 2002 के गुजरात दंगों के दौरान अहमदाबाद के पास रणधी कपूर गाँव में एक भीड़ ने उनके परिवार पर हमला किया था। इस दौरान पाँच महीने की गर्भवती बिलक़ीस बानो के साथ गैंगरेप किया गया। उनकी तीन साल की बेटी सालेहा की भी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इस दंगे में बिलक़ीस बानो की माँ, छोटी बहन और अन्य रिश्तेदार समेत 14 लोग मारे गए थे।

मामले में 21 जनवरी, 2008 को मुंबई की स्पेशल कोर्ट ने 11 लोगों को हत्या और गैंगरेप का दोषी मानते हुए उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी। इस मामले में पुलिस और डॉक्टर सहित सात लोगों को छोड़ दिया गया था। सीबीआई ने बॉम्बे हाई कोर्ट में दोषियों के लिए और कड़ी सज़ा की मांग की थी। इसके बाद बॉम्बे हाई कोर्ट ने मई, 2017 में बरी हुए सात लोगों को अपना दायित्व न निभाने और सबूतों से छेड़छाड़ को लेकर दोषी ठहराया था। उस समय राज्य में बीजेपी की सरकार थी। अब दोषियों की रिहाई के समय में भी एक बार फिर गुजरात में बीजेपी की सरकार है, जिसे लेकर सवाल उठना लाज़मी है।

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