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पेगासस पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला गांधी, राम मोहन राय के नज़रिये की अभिव्यक्ति है

कई जाने-माने भारतीयों के फ़ोन की निगरानी मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने महात्मा गांधी की उस बात का मज़बूती से समर्थन किया है कि अदालतों को सरकार के अधीन नहीं होना चाहिए, बल्कि इंसाफ़ देना चाहिए।
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पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल करते हुए अनाधिकृत निगरानी के आरोपों की एक स्वतंत्र जांच का निर्देश देते हुए सुप्रीम कोर्ट (SC) का हालिया फ़ैसला सरकार के बरक्स अदालतों की भूमिका के सिलसिले में महात्मा गांधी के नज़रिये और प्रेस की आज़ादी पर राजा राम मोहन राय के अनमोल शब्दों की नुमाइंदगी करता है।

हालांकि, यह स्वीकार करते हुए कि "राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों में न्यायिक समीक्षा का दायरा सीमित है", शीर्ष अदालत ने कहा कि "इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार को हर बार राष्ट्रीय सुरक्षा का ख़तरा पैदा होने के डर दिखाकर कुछ भी कर गुज़रने की आज़ादी मिल जाती है। राष्ट्रीय सुरक्षा डराने वाला वह हौआ नहीं हो सकती, जो अदालत का ज़िक़्र भर दूर हो जाये।” 

6 अक्टूबर 1920 को अंग्रेज़ी साप्ताहिक यंग इंडिया में प्रकाशित अपने लेख 'द हेलुसिनेशन ऑफ़ लॉ कोर्ट्स' में गांधी ने यही बात उठायी थी, यानी कि जब अदालतें अपने फ़र्ज़ को पूरा करने से कतराती हैं, तो देश की आज़ादी दांव पर लग जाती है।

औपनिवेशिक काल के दौरान क़ानूनी अदालतों के कामकाज की आलोचना करते हुए गांधी ने लिखा था:

“सबसे बुरी बात यह है कि वे सरकार के अधिकार का समर्थन करते हैं। उन्हें इंसाफ़ देना चाहिए और इसीलिए उन्हें राष्ट्र की स्वतंत्रता का वास्तुकार कहा जाता है। लेकिन, जब वे किसी ज़ुल्मी सरकार के अधिकारों का समर्थन कर रहे होते हैं, तब तो वे आज़ादी के वास्तुकार नहीं रह जाते, बल्कि वे देश की भावना को कुचलने वाली एक संस्था बनकर रह जाते हैं।”

फ़र्ज़ को अदा कर पाने में अदालतों की नाकामी राष्ट्र की भावना को कुचल देती है  

आज़ादी के बाद के काल में ऐसे भी दौर आये हैं, जब कुछ अदालतों ने ऐसे-ऐसे फ़ैसले दिये और ऐसी-ऐसी घोषणायें कीं, जिनका असर यह रहा कि लोगों को लगा कि न्यायपालिका ने कार्यपालिका के फ़ैसलों का समर्थन किया है या फिर न्यायपालिका गड़बड़ तरीक़े से कार्यपालिका के साथ हो गयी है। इस तरह के मंज़ूर नहीं किये जाने वाले घटनाक्रम ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर बुरा असर डाला और गांधी के शब्दों में, "राष्ट्र की भावना" को कुचल दिया।

चाहे केंद्रीय जांच ब्यूरो के न्यायाधीश बी.एच. लोया की मौत हो, राफ़ेल विवाद हो, भीमा-कोरेगांव मामला हो या फिर इसी तरह के और कई मामले हों, इन्हें लेकर पिछले सात सालों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठते रहे हैं। हालांकि, उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा की जांच उत्तर प्रदेश पुलिस और राज्य सरकार के तौर-तरीकों पर असंतोष जताने पर शीर्ष अदालत की सराहना हुई है।

इस मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) एनवी रमना ने कहा था कि अदालत "जो कुछ हुआ, उससे नाख़ुश हैं और अगर यूपी सरकार ने कार्रवाई नहीं की, तो वह आदेश जारी करेगी"। जिस तरह से शीर्ष अदालत और सीजेआई ने लखीमपुर खीरी मामले पर नज़र बनाये रखी है, उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट और उसके मुख्य न्यायाधीशों की अक्सर आलोचना करने वाले जाने-माने वकील दुष्यंत दवे ने पिछले महीने उनकी तारीफ़ की। उन्होंने कहा, "सुप्रीम कोर्ट ने साबित कर दिया है कि यह एक सजग प्रहरी है, यानी कि यह सचमुच नागरिकों का चौकस अभिभावक है।” 

दवे ने "पिछले कुछ महीनों में उल्लेखनीय काम" करने के लिए सीजेआई रमना की भी तारीफ़ की और कहा कि "अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहे" अपने चार पूर्ववर्तियों के विपरीत उन्होंने साबित कर दिया है कि "वह अपनी संवैधानिक शपथ के प्रति सच्चे हैं।" 

पेगासस मामला और इसके 'चिलिंग इफ़ेक्ट'

गांधी की इस बात को रेखांकित करने के सौ साल बाद कि औपनिवेशिक भारत में अदालतों ने सरकार के अधिकार का समर्थन किया, देश के सम्मान का इससे अवमूल्यन हुआ, देश को एक ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा, जिसमें न्यायपालिका अपने कर्तव्य का निर्वहन करना चाहती है। पेगासस पर दिया गया फ़ैसला इस उम्मीद के फिर से ज़िंदा होने का सबूत है कि आम तौर पर न्यायपालिका और ख़ास तौर पर शीर्ष अदालत के अधिकार और गरिमा को बचाया जा सकेगा।

सीजेआई रमना की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों वाली सुप्रीमो कोर्ट की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आर.वी. रवींद्रन की देखरेख में एक स्वतंत्र तकनीकी समिति का गठन करते हुए सच्चाई और इस बात का पता लगाने के लिए कहा कि क्या पेगासस का इस्तेमाल पत्रकारों, राजनेताओं (विपक्ष और सत्तारूढ़ दल दोनों) और अन्य नागरिकों के मोबाइल फ़ोन को हैक करने के लिए किया गया था और उनकी गोपनीयता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरी तरह उल्लंघन करते हुए उन पर नज़र रखने के लिए उनके उपकरणों का इस्तेमाल किया गया था।

अदालत ने सरकार की इस दलील को ख़ारिज कर दिया कि अगर निगरानी से जुड़े इन ब्योरों को सार्वजनिक कर दिया जाता है, तो राष्ट्रीय सुरक्षा ख़तरे में पड़ जायेगी।

"लोकतांत्रिक समाज में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए पत्रकारिता के स्रोतों के संरक्षण की अहमियत" को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा: "अदालत सचाई का निर्धारण करने और लगाये गये आरोपों की तह तक जाने के लिए इसलिए मजबूर है, क्योंकि पेगासस की जासूसी तकनीकों का नागरिकों के अधिकारों के उल्लंघन के गंभीर आरोपों के कारण पूरे समाज पर इसका "चीलिंग इफ़ेक्ट", यानी बाक़ी चीज़ों पर भी इसका असर पड़ सकता है।

राष्ट्रीय सुरक्षा शामिल नहीं

शीर्ष अदालत ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि सरकार को "... हर बार राष्ट्रीय सुरक्षा के ख़तरे का हौआ खड़ा करके कुछ भी कर गुज़रने का अधिकार नहीं मिल सकता और यह ऐसा काल्पनिक डर भी पैदा नहीं हो सकता कि न्यायपालिका इसके ज़िक़्र कर देने से ही अपनी दूरी बना ले।" अदालत की यह टिप्पणी न्यायिक स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिहाज़ से उस अदालत की सांसों में एक ताज़े बयार का संचार जैसा है, जिसने पिछले चार सीजेआई के कार्यकाल के दौरान गंभीर रूप से समझौता किया था।

हालांकि, अदालत ने कहा कि "राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में अतिक्रमण करने के लिहाज़ से सावधानी बरती जानी चाहिए, न्यायिक समीक्षा के ख़िलाफ़ कोई सर्वव्यापी निषेध नहीं दिया जा सकता।"  अदालत ने आगे कहा, "राज्य की ओर से सिर्फ़ राष्ट्रीय सुरक्षा की मांग कर देने भर से अदालत मूकदर्शक नहीं बन जाती।"

निजता का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला निजता के मौलिक अधिकार और विशेषज्ञ समिति के गठन को सही ठहराने के सिलसिले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आधारित था। लोगों के जीवन में सुधार के लिहाज़ से प्रौद्योगिकी की उपयोगिता का ख़्याल रखते हुए अदालत ने कहा कि इस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल "किसी व्यक्ति की ज़रूरी निजता को भंग करने" के लिए किया जा सकता है।

जिस तरह शीर्ष अदालत ने निजता के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की बुनियादी अहमियत की व्याख्या की, उसका महत्व तब और भी गहरा हो जाता है, जब सत्ता इन अधिकारों का अतिक्रमण कर रही हो, बेरहमी से उन सख़्त क़ानूनों को लागू कर रही हो, जिसमें राजद्रोह का क़ानून भी शामिल है, और असहमति को अपराध मान रही हो।

सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस के. एस. पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ (2018) के मामले में अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में गोपनीयता को दी गयी मान्यता को लागू किया और कहा “निजता का अधिकार मानव अस्तित्व की तरह ही अनुल्लंघनीय है और मानवीय गरिमा और स्वायत्तता के लिए अपरिहार्य है।”  

शीर्ष अदालत ने उस फ़ैसले के एक हिस्से का ज़िक्र किया:

“गोपनीयता संवैधानिक रूप से एक ऐसा संरक्षित अधिकार है, जो मुख्य रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी से पैदा होता है। भाग III में निहित मौलिक अधिकारों से मान्यता प्राप्त और गारंटीकृत स्वतंत्रता और गरिमा के अन्य पहलुओं से अलग-अलग सिलसिले में गोपनीयता के तत्व भी पैदा होते हैं।”

सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध रिपोर्टों से पता चलता है कि पेगासस का इस्तेमाल मीडिया हस्तियों सहित कई लोगों के मोबाइल फ़ोन को हैक करने के लिए किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए संपूर्ण नागरिकता के लिए गोपनीयता के इस ख़ास महत्व की अहमियत को रेखांकित किया:

“गोपनीयता महज़ पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं की चिंता नहीं है। भारत के हर नागरिक को निजता के उल्लंघन से बचाया जाना चाहिए। यही अपेक्षा तो हमें अपनी पसंदगी, स्वतंत्रता और आज़ादी के इस्तेमाल करने में सक्षम बनाती है।”

‘चौकसी करता पूंजीवाद’ 

सर्वोच्च न्यायालय ने निजता के अधिकार के उल्लंघन के साथ हमारी पसंद, स्वतंत्रता और आज़ादी के इस्तेमाल के अधिकार के उल्लंघन के बीच जो सम्बन्ध बताया है, यह इसलिए अहमियत रखता है, क्योंकि इसमें आने वाले दिनों में जो कुछ होने वाला है, उसका संकेत छुपा है और जिनकी विशेषताओं को अमेरिकी दार्शनिक शोशना ज़ुबॉफ़ लिखित किताब द एज ऑफ़ सर्विलांस कैपिटलिज़्म में दर्ज किया गया है। उनका कहना है कि प्रौद्योगिकी की इस निगारनी में निहित पूंजीवाद व्यक्तिगत स्वायत्तता को कम कर रहा है और लोकतंत्र को तबाह कर रहा है।

अन्य अधिकारों और स्वतंत्रता के इस्तेमाल के लिए बतौर एक पूर्व शर्त निजता के अधिकार के इस तरह की व्याख्या ने शीर्ष अदालत को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की अहमियत को सामने रखने के लिए प्रेरित किया, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है।

अदालत ने एक ज़रूरी टिप्पणी में कहा कि निगरानी और जासूसी किये जाने का ख़तरा व्यक्तियों और नागरिकों को आत्म-सेंसरशिप लागू करने और खुद को व्यक्त करने की उनकी क्षमता को कम करने के लिए मजबूर कर देगा। अदालत ने कहा, “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस तरह का चीलिंग इफ़ेक्ट प्रेस की अहम सार्वजनिक निगरानी की भूमिका पर एक ऐसा हमला है, जो सटीक और विश्वसनीय जानकारी दिये जाने की प्रेस की क्षमता को कमज़ोर कर सकता है।”

राम मोहन राय और प्रेस की आज़ादी

हक़ीक़त तो यही है कि "प्रेस की सार्वजनिक चीज़ों पर नज़र रखने की यह अहम भूमिका" 2014 के बाद से काफ़ी कमज़ोर हो गयी है। 2020 में वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स में भारत 180 देशों में से 142वें स्थान पर था। इस निम्न रैंकिंग के कारणों में से एक कारण अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय मामलों और रक्षा सौदों को लेकर की जाने वाली आलोचना और उठाये जाने वाले सवालों के सिलसिले में खुलेपन को लेकर सरकार की अनिच्छा का होना है।

अभिव्यक्ति की आज़ादी पर निगरानी के "चीलिंग इफ़ेक्ट" और इसके चलते "प्रेस की सार्वजनिक निगरानी की भूमिका" पर हो रहे हमले को जिस तरह से शीर्ष अदालत ने पेगासस पर आये इस फ़ैसले से उजागर किया है,वह 1823 में रॉय के शब्दों की याद दिला देता है:

“…स्वतंत्र प्रेस की वजह से अभी तक दुनिया के किसी भी हिस्से में इंक्लाब नहीं आया है... बल्कि, जहां प्रेस की स्वतंत्रता अपने वजूद में नहीं थी और जिस चलते शिकायतों का प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया था, दुनिया के उन ताम हिस्सों में बेशुमार क्रांतियां हुई हैं।”

रॉय और अन्य जाने-माने भारतीयों ने ये शब्द 1823 के उस प्रेस अध्यादेश के ख़िलाफ़ ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंपे गये एक स्मृति-पत्र में लिखे थे, जिसने संपादकों और प्रकाशकों के लिए अपनी पत्रिकाओं के सिलसिले में लाइसेंस सुरक्षित करना अनिवार्य कर दिया था।

उन्होंने आगे लिखा था, “सत्ता में बैठे प्रेस की आज़ादी के विरोधियों के आचरण पर यह प्रेस एक असहनीय अवरोध है, जब ये लोग प्रेस के अस्तित्व से पैदा होने वाली किसी भी वास्तविक बुराई को ढूंढ़ पाने में असमर्थ हैं, तो उन्होंने दुनिया को इस तरह की कल्पना कराने की कोशिश की है, हो भी सकता है कि सरकार के ख़िलाफ़ एकजुटता का यह एक साधन बन  जाये, लेकिन इसमें यह ज़िक़्र तो नहीं है कि ग़ैर-मामूली आपात स्थिति में ऐसे उपाय लागू होंगे, जिन्हें सामान्य स्थिति में अपनाना पूरी तरह से अनुचित हैं…,” 

1941 में प्रेस की स्वतंत्रता के बचाव में रॉय की उस प्रार्थना-पत्र के तक़रीबन 123 साल बाद गांधी ने भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लेने के लिए मजबूर किये जाने के बाद अंग्रेज़ों के लगाये गये प्रेस सेंसरशिप का विरोध करने के लिए अपना व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया था। गांधी ने क़लम और प्रेस की आज़ादी को स्वराज की बुनियाद बताया था और भारतीयों से इसकी हिफ़ाज़त के लिए लड़ने का आह्वान किया था।

पेगासस मुद्दे की सच्चाई की तह तक जाते हुए सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला इस तथ्य पर आधारित है कि इस मामले ने निजता के अधिकार और अभिव्यक्ति की आज़ादी का उल्लंघन किया है, दरअसल सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला संविधान में निहित गांधी और रॉय के नज़रियों के अनुरूप है।

(एस.एन. साहू भारत के पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के विशेष कार्य अधिकारी और प्रेस सचिव थे। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें:

SC’s Pegasus Verdict Embodies Vision of Gandhi, Ram Mohan Roy

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