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तिरछी नज़र: ‘हम भारत के लोग’ बनाम ‘अखंड भारत’

हमारा संविधान कहता है— हम भारत के लोग। हमारे संविधान निर्माता लोगों की परवाह करते थे, ज़मीन की नहीं। वे ज़मींदार नहीं थे। पर आज क्या हो रहा है। हमें ज़मीन चाहिए, लोग नहीं।
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साभार : कोलाब रिसर्च

छब्बीस जनवरी को सुबह मैं घर के बाहर बने छोटे से लॉन में बैठा चाय की चुस्की ले रहा था कि गुप्ता जी पधार बैठे। बोले, "मुझे पता था डॉक्टर आज तुम घर पर ही मिलोगे। आज तो तुम मरीजों का पीछा छोड़ दोगे। नहीं तो तुमने सातों दिन एक समान कर रखे हैं। और हां स्वतंत्रता दिवस की बधाई"।

"स्वतंत्रता दिवस नहीं, गणतंत्र दिवस", मैंने सुधारना चाहा।

"हां! हां! पता है। स्वतंत्रता दिवस को हम अंग्रेजों से आजाद हुए थे और आज के दिन हमारा संविधान लागू हुआ था। अब तुम यार ज्यादा चाटो मत"। कुर्सी सरका कर बैठते हुए बोले, "गरमा गरम चाय पिलाओ जरा"। फिर स्वंय ही अंदर की ओर मुंह करके बोले, "भाभी जी, जरा एक कप चाय और देना। गुप्ता जी आए हैं"।

"हां! आज के दिन हमारा संविधान लागू हुआ था। और पता है संविधान की प्रस्तावना कैसे शुरू होती है। प्रस्तावना शुरू होती है— हम भारत के.."।

"हां, हां, पता है। प्रस्तावना शुरू होती है, हम भारत के लोग, वी द पीपल ऑफ इंडिया। इस कन्हैया कुमार ने सारे देश को यह रटा दिया है। कोई भी बात शुरू करता है तो इसी से शुरू करता है, हम भारत के लोग"। गुप्ता जी कुछ कोफ्त के साथ बोले। 

"हां, यही बात। हमारा संविधान कहता है— हम भारत के लोग। भारत की जमीन नहीं। हमारे संविधान निर्माता लोगों की परवाह करते थे, जमीन की नहीं। वे जमींदार नहीं थे। पर आज क्या हो रहा है। हमें जमीन चाहिए, लोग नहीं। हमें कश्मीर की जमीन चाहिए, लोग नहीं। हमें छत्तीसगढ़ की जमीन चाहिए, पहाड़ चाहिए, पर लोग नहीं। हमें मुम्बई में धारावी की जमीन चाहिए, वहां बसे लोग नहीं"। 

गुप्ता जी बोर होते दिखे, मैंने सोचा, कुछ उनके इंटरेस्ट की बात भी करनी चाहिए। "और गुप्ता जी, अखंड भारत भी चाहिए ना", मैंने कहा।

"हां, वे खुश होते हुए बोले"। आंख बंद कर जैसे कोई स्वप्न देख रहे हों, बोले, "पश्चिम में अफगानिस्तान तक, पूर्व में म्यांमार तक। उत्तर में तिब्बत हो और दक्षिण में श्रीलंका। तो कितना मजा आ जाए। पाकिस्तान और बंगलादेश तो बीच में आ ही जाएंगे"। 

"अखंड भारत की सिर्फ जमीन ही चाहिए या वहां के लोग भी चाहिए। और वहां के लोग भी चाहिए तो पैंतालीस-पचास करोड़ लोग और शामिल हो जाएंगे। और करीब करीब सारे मुसलमान। फिर तो हो सकता है कोई मुसलमान मुखिया भी बन जाए"।

"यार डाक्टर, डराओ मत। तुम तो ना जब भी मिलते हो, पालिटिक्स की ही बात करते हो। हर जगह पालिटिक्स। मंदिर में‌ भी पालिटिक्स। मैं तो जा रहा हूं। मुझे नहीं पीनी तुम्हारी चाय वाय"। गुप्ता जी उठने लगे। 

तभी पत्नी चाय लेकर आ गई। गुप्ता जी को उठते देख कर बोली, "अरे गुप्ता जी, चाय तो पी कर जाइएगा"।

"भाभी जी, अपनी चाय आप रखिए। मैं कहीं और पी लूंगा। तुम्हारे इस डाक्टर को छोड़ कर सभी मेरे जैसे हैं। सक्सेना के यहां पी लूंगा। उसने तो बाइस जनवरी को घर पर लड़ियां भी लगाईं थीं"। गुप्ता जी बाहर निकल गए।

"अच्छा, गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं तो लेते जाइए"। पत्नी बाहर निकलते गुप्ता जी से बोली।

"अब वे गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं तभी लेंगे जब सरकार जी नया गणतंत्र दिवस घोषित करेंगे"। मैंने पीछे से पंच जड़ा। 

(इस व्यंग्य आलेख के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।) 

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