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आंदोलनकारियों पर हमले से गहराया श्रीलंका का राजनीतिक संकट

बात बोलेगी: Occupy Galle Face पर श्रीलंका पुलिस के हमले के ख़िलाफ़ फूटा आक्रोश, चारों तरफ़ निंदा-प्रदर्शन
Srilanka
आंदोलनकारियों पर पुलिस हिंसा के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते श्रीलंका के नागरिक। स्क्रीन शॉट

श्रीलंका को लेकर जो आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं, उसी दिशा में चीज़ें बढ़ती हुई नज़र आ रही हैं। श्रीलंका संसद में गोटाबाया राजपक्षे की पार्टी, श्रीलंका पीपुल्स फ्रंट (एसएलपीपी) का बहुमत होने से अंततः राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों पद पर वे लोग आसीन हुए, जिन्हें लेकर लोकतांत्रिक आंदोलन चला रहे लोगों को गहरी आपत्तियां थीं। यह डर और आशंका आंदोलनकारियों द्वारा जताई जा रही थी कि जैसे ही विक्रमसिंघे सत्ता की कमान संभालेंगे, पुलिस हमला करेगी और वही हुआ, पुलिस ने रात अंधेरे में ही शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों पर हमला बोल दिया।

राष्ट्रपति दफ्तर के सामने Galle Face में महीनों से टेंट लगाकर आंदोलन कर रहे लोगों के टेंट उखाड़ फेंके, बलपूर्वक लोगों को भगाया, मीडियाकर्मियों पर भी हिंसा की।

गौरतलब है कि Occupy Galle Face आंदोलन का एक बड़ा प्रतीक मोर्चा था, यहीं से संदेश दिया गया था गोटाबाया राजपक्षे को कि हम तब तक घर नहीं जाएंगे, जब तक तुम यहां से नहीं जाओगे।

श्रीलंका में इस हिंसक कार्रवाई का कड़ा विरोध हुआ। पूरे श्रीलंका में विरोध प्रदर्शन हुए। जिस राजनीतिक सत्ता को लोगों का विश्वास जीतकर देश को भीषण आर्थिक संकट से निकालना था, वे आंदोलनकारियों पर ही हमलावर हो गये। श्रीलंका में अमेरिकी राजदूत जुली चुंग (Julie Chung) ने नवनियुक्त राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे से मुलाकात करके, आंदोलनकारियों पर हिंसा पर गंभीर चिंता जताई और इसे अनावश्यक कदम बताया। साथ ही यह भी कहा कि राष्ट्रपति और उनकी कैबिनेट के पास यह अवसर और कर्तव्य है कि वे श्रीलंका जनता के बेहतर भविष्य के लिये काम करे। नागरिकों पर हमलावर होने का समय यह नहीं है, बल्कि लोगों का विश्वास जीतकर अर्थव्यवस्था में स्थायित्व लाने औऱ उसे दोबारा बनाने की जरूरत है।

इसी तरह से संयुक्त राष्ट्र संघ ने श्रीलंका सरकार द्वारा आंदोलनकारियों पर हिंसा करने की कड़ी निंदा करते हुए कहा कि शांतिपूर्ण विरोध किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद है।

पुलिस की इस कार्रवाई ने श्रीलंका के राजनीतिक संकट को गहरा दिया है।   

दरअसल, चाहे वह राष्ट्रपति विक्रमसिंघे हों या फिर प्रधानमंत्री बने दिनेश गुनावर्धना—दोनों ही गोटाबाया राजपक्षे और महेंद्र राजपक्षे के करीबी और भरोसेमंद नेता के रूप में श्रीलंका की राजनीति में देखे जाते हैं। शुरू में जब विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बनाया गया था, तब उनके बारे में इस तरह की नकारात्मक छवि नहीं थी। लेकिन भीषण संकट में प्रधानमंत्री बनने के बाद विक्रमसिंघे लगातार गोटाबाया राजपक्षे के समर्थन में ही खड़े रहे और उनके विनाशकारी कदमों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की।

श्रीलंका जिस भीषण आर्थिक संकट से पिछले एक साल से जूझ रहा है, उसकी जिम्मेदारी 100 फीसदी श्रीलंका के राजनीतिक नेतृत्व की बनती है। पिछले तीन महीनों में जिस तरह से श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और उनकी सरकार के खिलाफ आंदोलन खड़ा हुआ, वह अपने आप में ऐतिहासिक है। किसी भी राजनीतिक विशेषज्ञ ने इस बात का अंदाजा तक नहीं लगाया था कि महेंद्र राजपक्षे औऱ गोटाबाय राजपक्षे जैसे तानाशाही नेताओं को श्रीलंका छोड़कर भागना पड़ेगा-सत्ता से बाहर होना पड़ेगा। महज दो साल पहले अगस्त 2020 में महिंद्रा राजपक्षे की पार्टी ने श्रीलंका के संसदीय चुनाव में जीत हासिल की थी। वर्ष 2009 में महिंद्रा राजपक्षे ने तमिल ईलम-लिट्टे के खिलाफ जिस तरह से हिंसा और क्रूरता की थी, वही उनके राजनीतिक उत्थान की बड़ी वजह बनी।

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महिंद्रा राजपक्षे और गोटाबाया राजपक्षे के ऊपर वार क्राइम (युद्ध अपराध) का मामला चलाने की मांग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठी, जिसे उन्होंने बलपूवर्क दबा दिया। इसके बाद सिंहली वर्चस्व की राजनीति के जरिये ईसाइयों औऱ मुसलमानों पर नफरती हिंसा का मुंह मोड़ पर राजनीतिक सत्ता हासिल तो कर ली, लेकिन देश को चलाने में असमर्थ साबित हुए। उनकी गलत नीतियों की वजह से पिछले एक-डेढ़ साल श्रीलंका के इतिहास के सबसे बड़े आर्थिक संकट के साल बन गये। ईंधन-बिजली, रसोई गैस की भीषण किल्लत को झेलते हुए श्रीलंका की जनता ने अलग-अलग मोर्चों को खुद को लामबंद किया। और बस एक ही नारा था—गो गोटाबाया गो—राजपक्षे परिवार के खिलाफ गुस्सा लगातार मुखर होता गया। पिछले तीन महीने बेहद निर्णायक साबित हुए, जिसमें लाखों की तादाद में जन समूह सड़कों पर उतर आया।

इसे विडंबना ही कहना होगा, कि इन लाखों लोगों की भावनाओं की नुमाइंदगी श्रीलंका की संसद में नहीं है। राजनीतिक साख के अभूतपूर्व संकट से श्रीलंका गुजर रहा है। जिसे हल किये बिना, आर्थिक संकट का हल निकलना मुश्किल है।  

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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