वरवर राव : जो जैसा है, वैसा कह दो, ताकि वह दिल को छू ले
देश भर में कवि, लेखक, बुद्धिजीवी सभी उनके स्वास्थ्य की चिंता और जल्द स्वस्थ होने की कामना कर रहे हैं। साथ ही रिहाई की मांग भी। आज ‘इतवार की कविता’ में पढ़ते हैं 80 साल के इसी जुझारू और क्रांतिकारी तेलुगू कवि की कुछ कविताओं का हिन्दी अनुवाद।
चिन्ता
मैंने बम नहीं बाँटा था
न ही विचार
तुमने ही रौंदा था
चींटियों के बिल को
नाल जड़े जूतों से ।
रौंदी गई धरती से
तब फूटी थी प्रतिहिंसा की धारा
मधुमक्खियों के छत्तों पर
तुमने मारी थी लाठी
अब अपना पीछा करती मधुमक्खियों की गूँज से
काँप रहा है तुम्हारा दिल !
आँखों के आगे अंधेरा है
उग आए हैं तुम्हारे चेहरे पर भय के चकत्ते ।
जनता के दिलों में बजते हुए
विजय नगाड़ों को
तुमने समझा था मात्र एक ललकार और
तान दीं उस तरफ़ अपनी बन्दूकें...
अब दसों दिशाओं से आ रही है
क्रान्ति की पुकार ।
मूल्य
हमारी आकांक्षाएँ ही नहीं
कभी-कभार हमारे भय भी वक़्त होते हैं ।
द्वेष अंधेरा नहीं है
तारों भरी रात
इच्छित स्थान पर
वह प्रेम भाव से पिघल कर
फिर से जम कर
हमारा पाठ हमें ही बता सकते हैं ।
कर सकते हैं आकाश को विभाजित ।
विजय के लिए यज्ञ करने से
मानव-मूल्यों के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई
ही कसौटी है मनुष्य के लिए ।
युद्ध जय-पराजय में समाप्त हो जाता है
जब तक हृदय स्पंदित रहता है
लड़ाइयाँ तब तक जारी रहती हैं ।
आपसी विरोध के संघर्ष में
मूल्यों का क्षय होता है ।
पुन: पैदा होते हैं नए मूल्य...
पत्थरों से घिरे हुए प्रदेश में
नदियों के समान होते हैं मूल्य ।
आन्दोलन के जलप्रपात की भांति
काया प्रवेश नहीं करते
विद्युत के तेज़ की तरह
अंधेरों में तुम्हारी दृष्टि से
उद्भासित होकर
चेतना के तेल में सुलगने वाले
रास्तों की तरह होते हैं मूल्य ।
बातों की ओट में
छिपे होते हैं मन की तरह
कार्य में परिणित होने वाले
सृजन जैसे मूल्य ।
प्रभाव मात्र कसौटी के पत्थरों के अलावा
विजय के उत्साह में आयोजित
जश्न में नहीं होता ।
निरन्तर संघर्ष के सिवा
मूल्य संघर्ष के सिवा
मूल्य समाप्ति में नहीं होता है
जीवन-सत्य ।
वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता
वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता
वसन्त कभी अलग होकर नहीं आता
ग्रीष्म से मिलकर आता है ।
झरे हुए फूलों की याद
शेष रही कोंपलों के पास
नई कोंपलें फूटती हैं
आज के पत्तों की ओट में
अदृश्य भविष्य की तरह ।
कोयल सुनाती है बीते हुए दुख का माधुर्य
प्रतीक्षा के क्षणों की अवधि बढ़कर स्वप्न-समय घटता है ।
सारा दिन गर्भ आकाश में
माखन के कौर-सा पिघलता रहता है चांद ।
यह मुझे कैसे पता चलता
यादें, चांदनी कभी अलग होकर नहीं आती
रात के साथ आती है ।
सपना कभी अकेला नहीं आता
व्यथाओं को सो जाना होता है ।
सपनों की आँत तोड़ कर
उखड़ कर गिरे सूर्य बिम्ब की तरह
जागना नहीं होता ।
आनन्द कभी अलग नहीं आता
पलकों की खाली जगहों में
वह कुछ भीगा-सा वज़न लिए
इधर-उधर मचलता रहता है ।
सीधी बात
लक़ीर खींच कर जब खड़े हों
मिट्टी से बचना सम्भव नहीं ।
नक्सलबाड़ी का तीर खींच कर जब खड़े हों
मर्यादा में रहकर बोलना सम्भव नहीं
आक्रोश भरे गीतों की धुन
वेदना के स्वर में सम्भव नहीं ।
ख़ून से रंगे हाथों की बातें
ज़ोर-ज़ोर से चीख़-चीख़ कर छाती पीटकर
कही जाती हैं ।
अजीब कविताओं के साथ में छपी
अपनी तस्वीर के अलावा
कविता का अर्थ कुछ नहीं होता ।
जैसे आसमान में चील
जंगल में भालू
या रखवाला कुत्ता
आसानी से पहचाने जाते हैं
जिसे पहचानना है
वैसे ही छिपाए कह दो वह बात
जिससे धड़के सब का दिल
सुगन्धों से भी जब ख़ून टपक रहा हो
छिपाया नहीं जा सकता उसे शब्दों की ओट में ।
ज़ख़्मों को धोने वाले हाथों पर
भीग-भीग कर छाले पड़ गए
और तीर से निशाना साधने वाले हाथ
कमान तानने वाले हाथ
जुलूस के लहराते हुए झण्डे बन गए ।
जीवन का बुत बनाना
काम नहीं है शिल्पकार का
उसका काम है पत्थर को जीवन देना ।
मत हिचको, ओ, शब्दों के जादूगर !
जो जैसा है, वैसा कह दो
ताकि वह दिल को छू ले ।
औरत
ऐ औरत !
वह तुम्हारा ही रक्त है
जो तुम्हारे स्वप्न और पुरुष की उत्कट आकांक्षाओं को
शिशु के रूप में परिवर्तित करता है ।
ऎ औरत !
वह भी तुम्हारा ही रक्त है
जो भूख और यातना से संतप्त शिशु में
दूध बन कर जीवन का संचार करता है ।
और
वह भी तुम्हारा ही रक्त है
जो रसोईघर में स्वेद
और खेत-खलिहानों के दानों में
मोती की तरह दमकता है ।
फिर भी
इस व्यवस्था में तुम मात्र एक गुलाम
एक दासी हो
जिसके चलते मनुष्य की उद्दंडता की प्राचीर के पीछे
धीरे-धीरे पसरती कालिमा
तुम्हारे व्यक्तित्व को
प्रसूति गृह में ढकेल कर
तुम्हें लुप्त करती रहती है ।
इस दुनिया में हर तरह की ख़ुशियाँ बिकाऊ हैं
लेकिन तुम तो सहज अमोल आनन्दानुभूति देती हो,
वही अन्त्तत: तुम्हें दबोच लेती है ।
वह जो तुम को
चमेली के फूल अथवा
एक सुन्दर साड़ी देकर बहलाता है,
वही शुभचिन्तक एक दिन उसके बदले में
तुम्हारा पति अर्थात मलिक बन बैठता है ।
वह जो एक प्यार भरी मुस्कान
अथवा मीठे बोल द्वारा
तुम पर जादू चलाता है ।
कहने को तो वह तुम्हारा प्रेमी कहलाता है
किन्तु जीवन में जो हानि होती है
वह तुम्हारी ही होती है
और जो लाभ होता है
मर्द का होता है ।
और इस तरह जीवन के रंगमंच पर
हमेशा तुम्हारे हिस्से में विषाद ही आता है ।
ऐ औरत !
इस व्यवस्था में इससे अधिक तुम
कुछ और नहीं हो सकतीं ।
तुम्हें क्रोध की प्रचंड नीलिम में
इस व्यवस्था को जलाना ही होगा ।
तुम्हें विद्युत-झंझा बन
अपने अधिकार के प्रचंड वेग से
कौंधना ही होगा ।
क्रान्ति के मार्ग पर क़दम से क़दम मिलाकर आगे बढ़ो
इस व्यवस्था की आनन्दानुभूति की मरीचिका से
मुक्त होकर
एक नई क्रान्तिकारी व्यवस्था के निर्माण के लिए
जो तुम्हारे शक्तिशाली व्यक्तित्व को ढाल सके ।
जब तक तुम्हारे हृदय में क्रान्ति के
रक्ताभ सूर्य का उदय नहीं होता
सत्य के दर्शन करना असम्भव है ।
कवि
(बैंजामिन मालेस की याद में)
जब प्रतिगामी युग धर्म
घोंटता है वक़्त के उमड़ते बादलों का गला
तब न ख़ून बहता है
न आँसू ।
वज्र बन कर गिरती है बिजली
उठता है वर्षा की बूंदों से तूफ़ान...
पोंछती है माँ धरती अपने आँसू
जेल की सलाखों से बाहर आता है
कवि का सन्देश गीत बनकर ।
कब डरता है दुश्मन कवि से ?
जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हिं
वह कै़द कर लेता है कवि को ।
फाँसी पर चढ़ाता है
फाँसी के तख़्ते के एक ओर होती है सरकार
दूसरी ओर अमरता
कवि जीता है अपने गीतों में
और गीत जीता है जनता के हृदयों में ।
- वरवर राव
(सभी कविताएं कविता कोश से साभार)
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