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गर्भपात को लेकर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फ़ैसला, अब मैरिटल रेप में भी न्याय की उम्मीद

अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 14 का हवाला देते हुए कहा है कि अविवाहित महिलाओं को गर्भपात कराने के नियमों से बाहर रखना असंवैधानिक है। कोर्ट ने इस दौरान 'मैरिटल रेप' से हुई गर्भावस्था को भी एमटीपी एक्ट के दायरे में आने की बात कही।
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फ़ोटो साभार: onmanorama

"आख़िरकार ये महिला का ही अधिकार है कि वह अपनी परिस्थिति देखते हुए गर्भपात के मामले में फ़ैसला करे।"

अबॉर्शन या गर्भपात को लेकर की गई ये टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की है। गुरुवार, 29 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा कि सभी महिलाओं को सुरक्षित और कानूनन गर्भपात कराने का अधिकार है। शीर्ष अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 14 का हवाला देते हुए कहा कि अविवाहित महिलाओं को गर्भपात कराने के नियमों से बाहर रखना असंवैधानिक है।

कोर्ट ने इस दौरान 'मैरिटल रेप' यानी 'वैवाहिक बलात्कार' पर भी बात रखते हुए कहा कि वैवाहिक जीवन में पति के ज़बरन शारीरिक संबंध बनाने की वजह से हुई गर्भावस्था भी एमटीपी एक्ट यानी मेडिकल टर्मिनेशन प्रेग्नेंसी क़ानून के दायरे में आती है। हालांकि कोर्ट ने इसे सिर्फ़ एमटीपी क़ानून के संदर्भ में ही समझे जाने की बात कही है क्योंकि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के दायरे में वैवाहिक बलात्कार अभी नहीं है और सुप्रीम कोर्ट की अन्य बेंच के पास ये मामला लंबित है। लेकिन कोर्ट के इस कथन से भविष्य में मैरिटल रेप को लेकर आने वाले फैसलों के लिए भी रास्ता दिखाई देता है।

मालूम हो कि दशकों से गर्भपात देश-विदेश में महिलाओं के लिए संघर्ष का मुद्दा रहा है। विकसित देश हो या विकासशील, हर जगह अबॉर्शन को लेकर वाद-विवाद की एक जैसी मानसिकता देखने को मिलती है। हाल ही में, अमेरिका में गर्भपात को लेकर आए फ़ैसले को रूढ़िवादी और महिलाओं के अधिकार के ख़िलाफ़ माना गया तो वहीं अब भारत की सर्वोच्च अदालत ने सभी महिलाओं को सुरक्षित और क़ानूनी गर्भपात का अधिकार देते हुए इस मामले पर ना सिर्फ़ कानून की स्पष्टता दी है बल्कि इसका दायरा भी बढ़ाया है। अदालत के मुताबिक गर्भपात के नियमों से अविवाहित महिलाओं को बाहर रखना असंवैधानिक है और इसलिए अब अविवाहित महिलाएं भी 24 हफ़्ते तक की गर्भावस्था को ख़त्म करवा सकती हैं।

क्या है पूरा मामला?

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस जेबी पारदीवाला की बेंच एक 25 साल की अविवाहित महिला की याचिका पर विचार कर रही थी, जिसमें 24 हफ़्ते की प्रेगनेंसी को टर्मिनेट करने की मांग की गई थी। इससे पहले महिला ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी लेकिन कोर्ट ने ये कहते हुए मना कर दिया था कि एमटीपी क़ानून में अविवाहित महिलाओं के बारे में नहीं कहा गया है। इसके बाद युवती सुप्रीम कोर्ट पहुंची। जहां शीर्ष अदालत ने उसे राहत देते हुए आदेश दिया कि एम्स का एक मेडिकल पैनल ये देखे कि क्या उस समय भी महिला का सुरक्षित गर्भपात कराया जा सकता है। अगर हां, तो महिला अपनी प्रेग्नेंसी टर्मिनेट करा सकती है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को भी नोटिस जारी किया था ताकि कानून की विस्तार से व्याख्या हो सके। बेंच ने बीती 23 अगस्त को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।

अब कोर्ट ने फैसला देते हुए साफ कहा है अविवाहित महिलाएं भी 24 हफ़्ते तक की गर्भावस्था को ख़त्म करवा सकती हैं। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी ऐक्ट 2021 विवाहित और अविवाहित महिलाओं में भेद नहीं करता है। शीर्ष अदालत के मुताबिक मेडिकल टर्मिनेशन के लिए बने नियमों से अविवाहित महिलाओं को बाहर रखना असंवैधानिक है। और इसलिए सभी महिलाओं को सुरक्षित और क़ानूनी गर्भपात का अधिकार है।

सुप्रीम कोर्ट ने प्रेग्नेंसी के मेडिकल टर्मिनेशन से जुड़े मौजूदा नियमों की खामी का उल्लेख करते हुए कहा, "आधुनिक समय में भी ये नियम इस विचार का समर्थन करता दिखता है कि व्यक्तिगत अधिकारियों के लिए शादी की शर्त पूरी करना जरूरी है। जबकि समाज की हकीकत बताती है कि अब गैर-पारंपरिक पारिवारिक संरचनाओं को भी मान्यता देने की जरूरत है।"

कोर्ट ने आगे कहा कि एमटीपी को आज की वास्तविकताओं को स्वीकार करना होगा। उन्हें पुराने नियमों से नहीं रोका जाना चाहिए। कोर्ट ने हिदायत दी कि एक बालिग महिला एमटीपी एक्ट के दायरे में अपनी मर्ज़ी से गर्भपात का फ़ैसला ले सकती है और उन पर उनके परिवार या पति की इजाज़त का ज़ोर ना डाला जाए। सिर्फ़ नाबालिग या मानसिक रूप से विकलांग महिलाओं के मामले में ही गार्जियन की इजाज़त की ज़रूरत है।

बता दें कि इससे पहले जुलाई के महीने में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने अपने फैसले में कहा था कि दिल्ली हाई कोर्ट ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी एक्ट के प्रावधान को अनावश्यक तौर पर प्रतिबंधात्मक बताने का गलत दृष्टिकोण अपनाया और महिला को गर्भपात की इजाजत देने से इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी एक्ट 2021 में जो बदलाव किया गया है उसके तहत एक्ट में महिला और उसके पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया गया है। वहां पार्टनर शब्द का इस्तेमाल है न कि पति शब्द का। ऐसे में एक्ट के दायरे में अविवाहित महिला भी कवर होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता महिला को इसलिए एक्ट के बेनिफिट से वंचित नहीं किया जा सकता है कि वह अविवाहित महिला है।

इसे भी पढ़ें: गर्भपात को लेकर विवाहित और अविवाहित महिला में फ़र्क़ नहीं, क़ानून में पति नहीं पार्टनर शब्द का इस्तेमाल!

क्या है एमटीपी क़ानून?

भारत में अबॉर्शन को लेकर 1971 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी एक्ट बनाया गया था। तब प्रेग्नेंसी के 20 हफ्ते तक अबॉर्शन कराया जा सकता था। 2021 में इस कानून में संशोधन किया गया था, जिसके बाद इस समय सीमा को 20 हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दिया गया था। यानी, अब प्रेग्नेंसी के 24 हफ्ते तक अबॉर्शन कराया जा सकता है। हालांकि, एमटीपी कानून में कुछ स्थितियों में 24 हफ्ते बाद भी अबॉर्शन कराया जा सकता है। ऐसा उस स्थिति में होगा जब महिला या बच्चे के मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य को किसी तरह का खतरा हो, लेकिन इसके लिए मेडिकल बोर्ड की मंजूरी जरूरी होगी।

इसके अलावा रेप सर्वाइवर्स, नाबालिग लड़की, मानसिक विकलांग महिलाओं को भी 24 हफ़्ते तक प्रेग्नेंसी टर्मिनेट करवाने का अधिकार है और इसके लिए उन्हें कोर्ट की इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं होगी। साथ ही ऐसी महिलाएं जिनकी प्रेग्नेंसी के बीच में ही वैवाहिक स्थिति बदल गई हो, जैसे कि तलाक़ हो गया हो या महिला के पति की मौत हो गई हो...तो वे भी एमपीटी एक्ट के दायरे में 24 हफ़्ते तक गर्भपात करवा सकती हैं।

अब तक 24 हफ्ते तक अबॉर्शन कराने की कानूनी मान्यता थी। लेकिन अब तक अविवाहित महिलाओं को अबॉर्शन कराने की इजाजत नहीं मिलती थी। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सहमति से संबंध बनाने के बाद कोई महिला गर्भवती होती है, तो वो 24 हफ्ते तक अबॉर्शन करवा सकती है, फिर चाहे वो शादीशुदा हो या न हो।

इसी साल यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फ़ंड की रिपोर्ट में बताया गया कि असुरक्षित गर्भपात की वजह से भारत में हर दिन औसतन आठ महिलाओं की मौत होती है। रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि वर्ष 2007 से 2011 के बीच भारत में हुए 67 फ़ीसदी गर्भपात असुरक्षित थे।

अबॉर्शन का मुद्दा स्वास्थ्य से बढ़कर रूढ़िवाद और पितृसत्ता का बना दिया गया है

गौरतलब है कि कानून की वैधता के बावजूद भी हमारे देश में गर्भपात या अबॉर्शन के मुद्दे को स्वास्थ्य से न जोड़कर इसके रुढ़िवादी सामाजिक पहलू को ज्यादा तरहीज दी जाती है। महिला आंदोलन के लंबे संघर्ष के बाद भारत सरकार ने 2021 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी यानी एमटीपी अधिनियम 1971 में संशोधन किया था। इसके तहत कुछ विशेष मामलों में गर्भपात की ऊपरी समय सीमा को बीस हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दिया गया है। इन श्रेणियों में बलात्कार पीड़ित, अनाचार की शिकार और अन्य कमजोर महिलाओं को रखा गया है। दंड संहिता के तहत गर्भपात कराना अपराध है, लेकिन एमटीपी के तहत ऐसे मामलों में अपवादों को अनुमति है। अन्य लोग भी इसका फायदा उठा सकते हैं यदि उनके पास 20 सप्ताह से पहले गर्भपात के लिए डॉक्टर की सहमति है।

बहरहाल, अबॉर्शन करवाना एक महिला का मूलभूत अधिकार है और यह नारीवादी आंदोलन की एक प्रमुख मांग रही है। अनचाहे और असुरक्षित अबॉर्शन और गर्भधारण दोनों ही महिलाओं के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। पितृसत्तात्मक समाज में जहां महिलाओं का अपने शरीर और प्रजनन पर कोई अधिकार नहीं है ऐसे में अनचाहे गर्भधारण महिलाओं के शोषण का एक और ज़रिया बन चुके हैं। राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं में प्रभावी रूप से भाग लेने में सक्षम होने के लिए, महिलाओं के पास अपने शरीर पर नियंत्रण होना चाहिए फिर वो चाहें विवाहित हो या अविवाहित।

जाहिर है एमटीपी एक्ट में महिला का विवाहित या अविवाहित होना मायने नहीं रखता। लेकिन हमारे पितृसत्तात्मक समाज में अविवाहित औरतों और लड़कियों के अबॉर्शन को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है। तथ्य यह है कि अविवाहित लड़कियों का अबॉर्शन अस्वीकार्य है, परिणामस्वरूप यह सुरक्षित अबॉर्शन में रुकावटें पैदा करता है और कभी-कभी अबॉर्शन के मूल उद्देश्य यानी अबॉर्शन कराने वाली महिला के स्वास्थ्य को दरकिनार कर देता है। कई बार इस अधिनियम की अबॉर्शन की ऊपरी सीमा रेप सर्वाइवर्स को मजबूरन इस अपराध से उपजे या अनचाहे गर्भ को दुनिया में लाने को भी मजबूर कर देता है। अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद एक बेहतर कल की नई उम्मीद जागी है।

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