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सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन और समलैंगिक संबंधों को भी माना परिवार, अब बदलेगा समाज का नज़रिया?

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि परिवार की परिभाषा अब बदल गई है और कानून और समाज को भी इस नई परिभाषा के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है।
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Image courtesy : Dawn

सालों के लंबे संघर्ष के बाद भी भारत में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता अभी तक नहीं मिली है। ऐसे में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का समलैंगिक रिश्तों को भी परिवार की संज्ञा देने की अनुशंसा इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल मानी जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि परिवार की परिभाषा अब बदल गई है और कानून और समाज को भी इस नई परिभाषा के प्रति अपना नजरिया बदलने की जरूरत है।

बता दें कि साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में आईपीसी की धारा-377 की क़ानूनी वैधता को खत्म कर आपसी सहमति से दो समलैंगिकों के बीच बनाए गए संबंध को आपराधिक कृत्य से बाहर कर दिया था। तत्कालिन चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा था कि समलैंगिकता अपराध नहीं है। समलैंगिकों के भी वही मूल अधिकार हैं जो किसी सामान्य नागरिक के हैं। सबको सम्मान से जीने का अधिकार है। लेकिन कानून समलैंगिक व्यक्तियों को आज भी ना शादी करने की इजाजत देता है और ना बच्चे गोद लेने की।

अब ठीक पांच साल बाद न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और एएस बोपन्ना की पीठ ने कहा कि परिवार को लेकर आम धारणा क एकल, न बदलने वाली इकाई की है जिसमें एक माता, एक पिता और उनके बच्चे होते हैं और ये माता-पिता समय के साथ बदलते नहीं हैं। पीठ के मुताबिक "पारिवारिक संबंध घरेलु, अविवाहित साझेदारियों और क्वियर रिश्तों का रूप भी ले सकते हैं। एक पारिवारिक इकाई का "असामान्य" रूप भी उतना ही असली है जितना उसका पारंपरिक रूप और उसे कानूनी संरक्षण मिलना ही चाहिए।"

क्या है पूरा मामला?

प्राप्त जानकारी के मुताबिक अदालत के समक्ष मामला एक महिला को मातृत्व अवकाश ना दिए जाने का था। महिला ने एक ऐसे व्यक्ति से शादी की थी जिसने दोबारा शादी की थी और उसे उसकी पहली पत्नी के साथ दो बच्चे हैं। महिला ने उन बच्चों का ख्याल रखने के लिए पहले अवकाश लिया था लेकिन उसके बाद उसने अपने बच्चे को जन्म दिया। जब उसने अपने बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश का आवेदन किया तब उसे यह कह कर ठुकरा दिया गया कि अवकाश तो वो पहले ले चुकी है।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने महिला को मातृत्व अवकाश दिए जाने का आदेश देते हुए कहा कि समाज की अपेक्षाओं और लिंग आधारित भूमिकाओं को निर्धारित कर दिए जाने की वजह से बच्चों का ख्याल रखने का बोझ अनुपातहीन रूप से महिलाओं पर लाद दिया जाता है।

और ऐसे में अगर मातृत्व अवकाश जैसी सुविधाएं ना दी जाएं तो महिलाओं को मजबूरन काम करना छोड़ना पड़ता है। इसलिए पीठ ने कहा कि इस मामले में भी प्रभावित महिला को मातृत्व अवकाश दिया ही जाना चाहिए।

मातृत्व अवकाश का उद्देश्य महिलाओं को कार्यस्थल पर बनाए रखना

समाचार एजेंसी पीटीआई भाषा के अनुसार अपने विस्तृत फैसले में न्यायालय ने कहा है कि कई कारणों से एकल माता-पिता का परिवार हो सकता है और यह स्थिति पति या पत्नी में से किसी की मृत्यु हो जाने, उनके अलग-अलग रहने या तलाक लेने के कारण हो सकती है। इसी तरह, बच्चों के अभिभावक और देखभाल करने वाले (जो परंपरागत रूप से ‘मां’ और ‘पिता’ की भूमिका निभाते हैं) पुनर्विवाह, गोद लेने या दत्तक के साथ बदल सकते हैं।

शीर्ष अदालत ने कहा कि प्रेम और परिवारों की ये अभिव्यक्तियां विशिष्ट नहीं हो सकती हैं, लेकिन वे अपनी पारंपरिक व्यवस्था की तरह ही वास्तविक हैं और परिवार इकाई की ऐसी असामान्य अभिव्यक्तियां न केवल कानून के तहत सुरक्षा के लिए बल्कि सामाजिक कल्याण कानून के तहत उपलब्ध लाभों के लिये भी समान रूप से योग्य हैं।

पीठ की तरफ से फैसला लिखने वाले जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि जब तक वर्तमान मामले में एक उद्देश्यपूर्ण व्याख्या नहीं अपनाई जाती, तब तक मातृत्व अवकाश देने का उद्देश्य और मंशा विफल हो जाएगी। शीर्ष अदालत ने कहा कि 1972 के नियमों के तहत मातृत्व अवकाश देने का उद्देश्य महिलाओं को कार्यस्थल पर बने रहने में सुविधा प्रदान करना है। पीठ ने कहा कि कोई भी नियोक्ता बच्चे के जन्म को रोजगार के उद्देश्य से अलग नहीं मान सकता है और बच्चे के जन्म को रोजगार के संदर्भ में जीवन की एक प्राकृतिक घटना के रूप में माना जाना चाहिए। इसलिए, मातृत्व अवकाश के प्रावधानों को उस परिप्रेक्ष्य में माना जाना चाहिए।

इस फैसले और अदालत की टिप्पणी को महिलाओं के अधिकारों के साथ साथ एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों के अधिकारों के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है। क्योंकि सर्वोच्च अदालत ने अपने निर्णय में परिवार की परिभाषा को विस्तारिक करते हुए कहा कि पारंपरिक परिवार की तरह पारिवारिक संबंधों में अविवाहित भागीदारी (लिव इन रिलेशनशिप) या समलैंगिक संबंध भी शामिल हैं। फैसले में कहा गया है कि अविवाहित सहजीवन या समलैंगिक रिश्ते जैसी असामान्य पारिवारिक इकाइयां भी समान रूप से कानून के संरक्षण की हकदार हैं।

समलैंगिक रिश्ते और समाज

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ से आए ऐतिहासिक फ़ैसले के लगभग दो साल बाद समलैंगिकों के बीच शादी को क़ानूनी दर्जा दिए जाने की अपील दिल्ली हाई कोर्ट पहुँची थी। साल 2020 में तब के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बीते सोमवार समलैंगिक जोड़ों के बीच शादी को क़ानूनी मान्यता दिए जाने के लिए दाख़िल की गई जनहित याचिका पर अपना पक्ष रखते हुए दिल्ली हाई कोर्ट से कहा था कि भारतीय समाज, क़ानून और मूल्य इसकी इजाज़त नहीं देते हैं। उन्होंने कहा था कि हमारे क़ानून, हमारी न्याय प्रणाली, हमारा समाज और हमारे मूल्य समलैंगिक जोड़े के बीच विवाह को मान्यता नहीं देते हैं। हमारे यहां विवाह को पवित्र बंधन माना जाता है। हालांकि इस मामले में ये भी कहा गया कि समलैंगिक जोड़ों को शादी का अधिकार इस्तेमाल न करने देना संविधान के आर्टिकल-14 का उल्लंघन है जो कि समानता की बात करता है।

यूं तो आज के दौर में होमोसेक्शुआलिटी यानी समलैंगिकता को बहुत से समाजों में मान्यता मिलने लगी है। मगर अभी भी हमारे देश में कई जगह समलैंगिकता को नफ़रत की नज़र से देखा जाता है, इसे क़ुदरती नहीं माना जाता। रूढ़ीवादी समाज में इस समुदाय ने लंबा सफर तय किया है। सामाजिक और पारिवारिक टिप्पणियों को ध्यान न देते हुए समुदाय के सदस्यों ने समाज में अलग पहचान बनाई है। लेकिन कई स्तरों पर समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव, शोषण, अपमान और क्रूरता की दुखद कहानी भी सामने आती है। एलजीबीटीक्यू अधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक कागज पर लाभ के बावजूद समलैंगिक और ट्रांस लोग अभी भी भेदभाव झेलते हैं और उन्हें नियमित रूप से पुलिस उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।

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