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2020 : एक ऐसा साल जिसमें लोग एक दुश्मन सरकार से लड़ते रहे

मोदी सरकार ने महामारी/लॉकडाउन का इस्तेमाल कर भयंकर शोषणकारी नीतियों को थोपने का काम किया, लेकिन आम लोगों के प्रतिरोध ने उसके घमंड को हिला कर रख दिया है।
2020 : एक ऐसा साल जिसमें लोग एक दुश्मन सरकार से लड़ते रहे

बाकी दुनिया की तरह, भारत के लिए भी यह साल अशांत रहा है- एक व्यापक महामारी के   संक्रमण या उसकी पीड़ा से अब तक एक करोड़ से अधिक लोगों पीड़ित हो चुके है, हालांकि ये आधिकारिक रिकॉर्ड है- जबकि लगता है कि संक्रमित लोगों की वास्तविक संख्या इससे कई  अधिक हो सकती है; और उस पर त्रासदी ये कि एक नासमझ सरकार की प्रतिक्रिया ऐसे रही कि उसने बीमारी को कम करने के लिए बेवफुकाना और कुप्रबंधित लॉकडाउन लगा दिया, जब  बीमारी बेतहाशा फैल रही थी; और, इसके चलते पहले से ही लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को लॉकडाउन ने बड़ा ही घातक झटका दिया, जिसने बेरोजगारी को अकल्पनीय दर यानि 24 प्रतिशत और जीडीपी अप्रैल-जून में 23 प्रतिशत नीचे आ गई। इस सब ने देश में भूख और दुख के वातावरण में चौंकाने वाली वृद्धि कर दी, दुख का एक ऐसा लम्हा जिसे लंबे समय तक याद किया जाएगा।

लेकिन, 2020 की एक और विशेषता है जो इस साल के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड है। इस विशेषता के अनुरूप केंद्र में बैठी भाजपा की अगुवाई वाली सरकार, प्रधान मंत्री मोदी के नेतृत्व में इसने, महामारी और लॉकडाउन का इस्तेमाल कर देश के कामकाजी लोगों और बड़े कॉरपोरेट घरानों और व्यापारियों, बड़े भूमि मालिकों, और विदेशी पूंजी के प्रतिनिधियों तथा सत्ताधारी अभिजात वर्ग के संबंधों में काफी बदलाव ला दिया है। 

यहाँ ग़ौर करें कैसे:

कॉर्पोरेट समर्थित कृषि क़ानून

जून में, जब महामारी अपने उच्च स्तर पर थी, तो मोदी सरकार ने तीन अध्यादेशों की घोषणा की, जो कृषि उत्पादन, व्यापार, स्टॉक-होल्डिंग और कृषि उत्पादों की कीमतों की मौजूदा प्रणाली के मामले में एक विनाशकारी झटका था। इन्हे सितंबर में संसद के माध्यम से लाया गया था। सरकार पहले बिजली अधिनियम में संशोधन को लेकर एक विधेयक लाई थी, जो किसानों को रियायती बिजली के प्रावधान को खत्म करने की बात करता है और जिससे उनके खर्चों में बढ़ोतरी होगी। 

ये तीनों कृषि-कानूनों और बिजली विधेयक भारत में निर्णायक रूप से किसानों को कुचलते हुए कृषि क्षेत्र को बड़े व्यापारियों के लिए शिकार के लिए खोल देंगे। खेतिहर मजदूर, फसल काटने वाले मजदूर, किराए पर भूमि लेने वाले किसान भी इन कानूनों से पीड़ित होंगे।

किसानों का उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, या एपीएमसी कानून, जैसा कि इसे लोकप्रिय रूप से जाना जाता है, वह निजी संस्थाओं को सरकार द्वारा संचालित कृषि उपज बाजार समितियों (एपीएमसी) के साथ प्रतिस्पर्धा में किसानों से सीधे खाद्यान्न खरीदने की अनुमति देता है। लेकिन इसमें सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की कोई गारंटी नहीं है।

शक्तिहीन किसानों और विशाल निगमों के बीच असमान व्यापार का मतलब एमएसपी प्रणाली की मौत होगा, जो कई किसानों की जीवन रेखा के रूप में काम करती है। इसके साथ ‘मूल्य आश्वासन और फार्म सेवा अधिनियम पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता, जिसे अनुबंध कृषि कानून के रूप में जाना जाता है, का सीधा मतलब ठेके/अनुबंध की खेती को बढ़ावा देना है, जो किसानों को उनकी ही जमीन पर मजदूरी करने पर मजबूर करेगा और उन्हें कॉर्पोरेट/ वैश्विक बाजारों के अधीन बना देगा। तीसरा कानून मौजूदा आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव लाकर आवश्यक खाद्य उत्पादन के भंडारण पर लगे सभी प्रतिबंधों को हटा देता है और कॉर्पोरेट को कीमतों को तय करने की स्वतंत्रता देता है। यह संसोधन आवश्यक अनाज और सब्जियों में जमाखोरी और मुनाफाखोरी को बढ़ाएगा। 

ये चार कानून किसानों के जीवन को नष्ट करने के अलावा, खाद्यान्न की सार्वजनिक खरीद को तबाह करने की जमीन भी तैयार करेंगे, जिससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली का पतन हो जाएगा। भारत में करोड़ों लोग जो सब्सिडी वाले खाद्यान्न पर निर्भर हैं- विशेष रूप से ऐसे समय में जब बेरोजगारी अधिक है- उन्हे राम-भरोसे छोड़ दिया जाएगा। यह उस बहस अनुरूप है जिसके तहत उन्नत पूंजीवादी देश डब्ल्यूटीओ वार्ता और अन्य जगहों पर भारत पर दबाव डाल रहे हैं, ताकि खाद्यान्न को उनके देशों से भारत में निर्यात किया जा सके।

श्रम क़ानूनों की तबाही 

मोदी सरकार ने देश में विरोध प्रदर्शनों पर प्रतिबंध का लाभ उठाते हुए संसद में तीन लेबर कोड क़ानूनों को पारित कराया जबकि चौथे को पिछले साल पहले से ही पारित करा लिया गया था। ये नए कानून जो 29 मौजूदा श्रम कानूनों की जगह लेते हैं, वे मालिकों को कार्य दिवस में काम के घंटे को 12 घंटे तक बढ़ाने की अनुमति देते हैं, जो कि 'निश्चित अवधि के रोजगार' की एक प्रणाली को भी लागू करते हैं, जो एक तरह का अनुबंधीय या ठेके का काम है, जो अच्छी तरह से तय वेतन निर्धारण मानदंड का विघटन करते हैं यानि मजदूरों को कम वेतन देने की छुट देते हैं और सरकार की अनुमति के बिना श्रमिकों को काम/सेवा से हटाने की अधिक छूट देते हैं, और विशिष्ट समस्याओं वाले श्रमिकों को जो विभिन्न ट्रेडों में से आते हैं को भी एक ही प्रावधान के तहत ले आते हैं।

इन क़ानूनों के तहत सामाजिक सुरक्षा लाभ प्रतिबंधित हैं और ईएसआई और ईपीएफ में मालिकों का योगदान कम हो गया है, जिससे ये निकाय पैसे की कमी से जूझ रहे है। श्रम कानूनों के मामले में बनी प्रवर्तन मशीनरी, जो पहले से ही हांफ रही है, को नंगा कर दिया गया है यानि उसके पास अब कोई ताक़त नहीं है। बड़ी संख्या में मामलों को अब सरकारी अधिकारियों के रहम पर छोड़ दिया जाता हैं। यहां तक कि यूनियन बनाने और विरोध आयोजित करने के अधिकार को और अधिक कठिन बना दिया गया है। इस प्रकार नए कानून बेलगाम और भयंकर शोषण का लाइसेंस हैं, जो कम मजदूरी पर काम पर रखने और जब चाहे काम से निकालने की आज़ादी देता है- जहां तक पूँजीपति वर्ग का सवाल है यह उसके लिए स्वर्गलोक है।

प्राकृतिक संसाधनों को बेचना और पर्यावरणीय विनियमों को बेअसर बनाना

खनिज कानून (संशोधन) अधिनियम को दो केंद्रीय कानूनों को बदलने के लिए पारित किया गया जो खनन क्षेत्र को विनियमित करते हैं- खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम (एमएमडीआर),1957 और कोयला खान (विशेष प्रावधान) अधिनियम 2015। ये संसोधित कानून कोयला ब्लॉक के मामले में बिना किसी अनुभव के कंपनियों को बोली लगाने और उसके  उपयोग के किसी भी पूर्व प्रतिबंध के बिना कोयला निकालने की अनुमति देता है। ये भारत के खनन क्षेत्र, विशेष रूप से कोयले के निजीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा हैं, और विदेशी पूंजी को इस आकर्षक क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति देते हैं। मोदी सरकार द्वारा लागू उपाय उद्योगों को खनिज/कोयला निकालने के लिए पर्यावरणीय नियमों को बेअसर बना देते हैं। पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) नियम पर नया मसौदा पूरी परियोजनाओं और परियोजना के 50 प्रतिशत विस्तार को अनिवार्य सार्वजनिक सुनवाई से छूट देता है और ऐसी सुनवाई के लिए नोटिस की अवधि को 30 से 20 दिनों तक कम कर देता है। यह उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के विरोध को दबाने का तरीका है जो इन परियोजनाओं से प्रभावित होंगे। नए संशोधन उन परियोजनाओं को भी मान्यता देते हैं जो बिना पूर्व स्वीकृति के बंद कर दी जाती हैं। चूंकि मोदी सरकार भूमि के बड़े हिस्से को खनन और निर्माण निगमों को सौंप रही है, इसलिए इन उपायों से स्थानीय लोगों को तबाह होने के लिए छोड़ दिया गया है।

बढ़ते जनप्रतिरोध से सरकार सकते में 

जैसे-जैसे साल बीतता गया और बेवफुकाना लॉकडाउन से तबाह हुए परिवारों का दर्द बढ़ता गया, तब सरकार से अनाज और आय के समर्थन की मांग ने रफ्तार पकड़ ली। संयुक्त मंच बनाकर एक साथ काम करने वाली कई ट्रेड यूनियनें पहले से ही बेहतर वेतन और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण के खिलाफ संघर्ष कर रही थीं, जिन्होने 8 जनवरी को अखिल भारतीय हड़ताल का सफल आह्वान किया था। इन ट्रेड यूनियनों ने अपने संघर्ष को जारी रखा बावजूद महामारी से संबंधित प्रतिबंधों के ऐसा किया।

सरकार द्वारा कामकाजी लोगों की घोर उपेक्षा के चलते और आय समर्थन और अधिक खाद्यान्न की मांग को लेकर 21 अप्रैल, 14 मई, 22 मई, 3 जुलाई, 23 जुलाई, 9 अगस्त और 5 सितंबर को विरोध दिवस मनाए गए, जिनमें मजदूरों की व्यापक भागीदारी रही। जैसे-जैसे लोगों का गुस्सा बढ़ता गया वैसी-वैसे सरकार के साथ टकराव। 25 और 26 जून को आशा श्रमिकों और मिड-डे मील वर्करों ने देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किया। इसके साथ ही, चूंकि सरकार अपनी निजीकरण नीति को आगे बढ़ा रही थी, विभिन्न उद्योगों से जुड़े श्रमिकों ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन करना जारी रखा: जिसमें कोयला मजदूरों ने 2-4 जुलाई को हड़ताल की, रेलवे कर्मचारियों ने 16-17 जुलाई को विरोध प्रदर्शन किया, रक्षा उत्पादन कर्मचारियों ने 4 अगस्त माह में विरोध प्रदर्शन किया, परिवहन कर्मचारियों ने 5 अगस्त को विरोध दिवस प्रदर्शन आयोजित किए,  सभी सरकारी स्कीम श्रमिकों ने 7 और 8 अगस्त को ऐतिहासिक दो दिवसीय हड़ताल की, और बीपीसीएल (BPCL) के श्रमिकों ने 6-7 सितंबर को हड़ताल की। 23 सितंबर को, जिस दिन नए श्रम कानून पारित किए गए थे, सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने संयुक्त रूप से पूरे भारत में विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया था।

मज़दूर-किसानों की बढ़ती एकता 

विभिन्न धाराओं द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शन बड़े और अधिक एकजुट होते गए, जो तीन काले कानूनों के खिलाफ विशाल एकता में बदल गए। जून में अध्यादेश लागू होने के बाद से ही किसान संगठन इनका विरोध कर रहे थे। 9 अगस्त को एक बड़े पैमाने पर कार्रवाई हुई, जिसमें, 450 से अधिक जिलों में विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए और ‘जेल भरो’ आंदोलन की कार्रवाई के माध्यम से लाखों किसानों और श्रमिकों ने गुस्से से भरे विरोध प्रदर्शन किए। 5 सितंबर को, एआईकेएस (AIKS) और एआईएडब्लूयू (AIAWU) ने सीटू (CITU) के साथ मिलकर मज़दूर-किसान संघर्ष दिवस मनाया, जिसमें फिर से लाखों लोगों ने शिरकत की। एआईकेएससीसी (AIKSCC) जो 350 से अधिक संगठनों का माँच है, के बैनर तले किसानों ने 25 सितंबर को काले कानून पारित होने के कुछ दिनों बाद विरोध दिवस मनाया। फिर 5 नवंबर को एक बड़ा और व्यापक विरोध हुआ।

अंत में, 26 नवंबर को, श्रमिकों और कर्मचारियों की एक ऐतिहासिक हड़ताल हुई, जिसका अनुमान था कि यह दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल है। यह हड़ताल एआईकेएससीसी द्वारा दिल्ली चलो के नारे के आह्वान के साथ हुई थी, जिसमें उत्तरी राज्यों के हजारों किसानों ने देश की राजधानी की ओर मार्च शुरू किया। हरियाणा और यूपी में भाजपा की अगुवाई वाली सरकारों ने किसानों पर हिंसक हमले कर उन्हे रोकना चाहा जिसके परिणामस्वरूप लड़ाई हुई, सरकार को मजबूरन पीछे हटना पड़ा और किसानों को राजधानी की सीमाओं पर डेरा डालने की की अनुमति देनी पड़ी, जहां वे अभी डेरा डाले हुए हैं।

जैसे-जैसे वर्ष बीतता जा रहा है, तीन काले-कानूनों, बिजली बिल के खिलाफ और एमएसपी के वैधानिक संरक्षण की मांग को लेकर किसानों के आंदोलन को देश भर में अभूतपूर्व समर्थन मिल रहा है। अधिकांश राज्यों में हजारों किसानों ने विरोध प्रदर्शन और एकजुटता के कार्यकर्मों के माध्यम से समर्थन करना जारी रखा। 8 दिसंबर को, किसानों के समर्थन में भारत बंद या आम हड़ताल का आह्वान किया गया था, जिसमें कई राज्यों में पूर्ण बंद देखा गया, जबकि अधिकांश राज्यों में लोगों ने व्यापक विरोध प्रदर्शन में भाग लिया। मोदी सरकार जिसे इस तरह के बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का सामना करने का कोई अनुभव नहीं है, वह अब कोई समाधान खोजने के लिए छटपटा रही है, लेकिन साथ ही वह इन कानूनों से सख्ती से चिपकी हुई है, क्योंकि वह क़ानूनों में कॉस्मेटिक परिवर्तन की पेशकश कर रही है। किसान आंदोलन ने देश के कुछ उन इजारेदार व्यापारिक घरानों की वस्तुओं और सेवाओं के बहिष्कार का आह्वान करके अपनी विचार को व्यापक बनाया है, जिनकी इन कानूनों को लागू करने में एक बड़ी हिस्सेदारी है।

वर्तमान संघर्ष के परिणाम जो भी हों, भारत के लोगों ने ऐतिहासिक संकल्प और साहस दिखाया है, जिसने मोदी सरकार की कॉर्पोरेट समर्थक नीतियों को लागू करने की अहंकारी योजनाओं को हिला कर रख दिया है। इस प्रक्रिया में, भारत ने उन विभाजनकारी और ज़हरीली नीतियों का भी मुकाबला किया है या उनके खिलाफ विरोध किया है जो मोदी सरकार की धार्मिक घृणा/कट्टरता को बढ़ावा देती हैं। मजदूर-किसानों की यह जंगी एकता जो सरकार की जन-विरोधी नीतियों को पीछे धकेलने का विश्वास लिए आगे बढ़ रही है वे ही नए साल में एजेंडा तय करेंगी।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

The Year That Was….People Fight Back a Hostile Government

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