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बदलाव के जनादेश की भावना को नकार बनी अस्थिरता की पतनशील सरकार!

ऐसा लगता है कि जनादेश अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचा, निर्णायक मुकाम के ऐन मुहाने पर उसे रोक दिया गया। जनता का जो popular mood था, उसकी मूल दिशा बदलाव की ओर थी,  उसकी अभिव्यक्ति सरकार के गठन में नहीं हो रही है।
Bihar
साभार : हिन्दुस्तान

बिहार में NDA की नई सरकार आज शपथ ग्रहण कर रही है। जिस तरह सरकार का गठन हो रहा है, वह पूरी प्रकिया विरोधाभासों और अंतर्विरोधों से भरी हुई है। जिस NDA का मुख्यमंत्री बनने जा रहा है, महज डेढ़ वर्ष पूर्व हुए लोकसभा चुनाव की तुलना में इस बार उसके खिलाफ वोटों में 12 % का भारी स्विंग हुआ है,  जिन नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके चुनाव लड़ा गया और जो आज पुनः शपथ ले रहे हैं, उनकी पार्टी चुनाव में खिसक कर तीसरे नम्बर पर चली गयी, उनकी सीटों में 40 % की भारी गिरावट हो गयी, फिर भी उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है।

वोट प्रतिशत के लिहाज से देखा जाय तो NDA के 37. 21% की तुलना में MGB को 37.16% मिला है, अर्थात मात्र 0.5% का अंतर है।

जिस पार्टी को सर्वाधिक सीटें मिली हैं, सर्वाधिक वोट प्रतिशत मिला है, जिस गठबंधन के पक्ष में भारी स्विंग हुआ है, वह सत्ता से बाहर है।

नीतीश कुमार के 15 साल के शासन के  खिलाफ भारी anti-incumbency के बावजूद पुनः  वही मुख्यमंत्री बनाकर जनता के ऊपर थोपे जा रहे हैं !

ऐसा लगता है कि जनादेश अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचा, निर्णायक मुकाम के ऐन मुहाने पर उसे रोक दिया गया। जनता का जो popular mood था, उसकी मूल दिशा बदलाव की ओर थी,  उसकी अभिव्यक्ति सरकार के गठन में नहीं हो रही है।

ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, किसकी वजह से हुआ, इस सब पर शायद अगले चुनाव तक या फिर जनादेश की असली भावना के अनुरूप सरकार गठन तक बहस चलती रहेगी, लेकिन यह साफ है कि मौजूदा स्थिति एक संक्रमणकालीन पड़ाव ही है,  बिहार की राजनीति अस्थिर हो गयी है, वह अपना संतुलन (Equilibrium) हासिल नहीं कर सकी है।

अस्थिरता और असंतुलन का सबसे बड़ा आधार तो स्वयं NDA के अंदर के बदले हुए शक्ति-संतुलन में ही मौजूद है। भाजपा NDA का सबसे बड़ा घटक है, जबकि नीतीश कुमार अब अपने ताकतवर अतीत की छाया मात्र बचे हैं। यह भी एक open secret है कि चिराग पासवान को आगे करके भाजपा ने ही नीतीश के कद को कम करने की व्यूह-रचना की थी। भाजपा भले ही बिहार-यूपी में अति पिछड़ों पर NDA की पकड़ बनाये रखने तथा बिहार में किसी वैकल्पिक राजनीतिक गोलबंदी और सरकार की सम्भावना को खत्म कर देने एवं राष्ट्रीय राजनीति में एक सहयोगी बनाये रखने के लिए कमजोर नीतीश कुमार को फिलहाल मुख्यमंत्री बना रही है, जिनकी नकेल उसके हाथ में रहेगी, पर बिहार में अपना पहला मुख्यमंत्री बना पाने की उसकी महत्वाकांक्षा छिपी हुई नहीं है। जाहिर है इसकी अस्थिरकारी संभावनाएं भविष्य के गर्भ में हैं और वे कभी भी अनुकूल परिस्थिति आते ही प्रकट हो सकती हैं। 4-4 विधायक वाले दो अतिमहत्वाकांक्षी सहयोगी भी स्थायी तौर पर अस्थिरता के स्रोत बने रहेंगे।

चरणवार नतीजों पर गौर किया जाय तो पूरे चुनाव को decode करने के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र सामने आते हैं।

भोजपुर-मगध के पहले चरण के चुनाव में महागठबंधन को भारी बढ़त मिली, उसे 47 सीटें मिलीं, जबकि NDA को मात्र 22 सीटें। यह इलाका वामपंथी-समाजवादी-सामाजिक न्याय के आंदोलनों विशेषकर भाकपा (माले) के नेतृत्व में ग्रामीण गरीबों के मान-सम्मान और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए चली लड़ाइयों का गढ़ रहा है, स्वाभाविक रूप से फासीवाद के खिलाफ संसदीय संघर्ष में भी प्रतिरोध का सबसे मजबूत दुर्ग बन कर यह उभरा। भाजपा अध्यक्ष नड्डा और योगी ने लोगों को कम्युनिस्टों के भूत से डराने की कोशिश की, लेकिन लगता है इसका उल्टा असर हुआ। भाकपा (माले) ने अपनी 12 में से 8 सीटें इसी क्षेत्र में जीतीं, यहां उसके केवल 2 प्रत्याशी हारे।

दूसरे चरण में दोनों alliances के मिलेजुले प्रभाव के इलाके थे। पहले चरण में बुरी तरह पिछड़ने के बाद भाजपा और नीतीश कुमार ने अपनी रणनीति में बदलाव किया। नीतीश कुमार के खिलाफ भारी नाराजगी को भांपते हुए, पूरे campaign के केंद्र में मोदी का चेहरा और उनकी ग्रामीण गरीबों के लिए लोकलुभावन योजनाओं को ला दिया गया, यहां तक कि नीतीश कुमार भी अपनी उपलब्धियों की बजाय इसी नाम पर वोट मांगने लगे कि सरकार बन गयी तो मोदी जी बिहार को विकसित राज्य बना देंगे।

मोदी ने एक ओर 'जंगलराज' के भूत से लोगों को डराया, तो दूसरी ओर , राम-मंदिर और "धारा 370 का विरोध करने वाले भारत माता की जय के नारे का भी विरोध करते हैं" जैसे शरारतपूर्ण प्रचार के माध्यम से विपक्ष के खिलाफ आक्रामक अंधराष्ट्रवादी साम्प्रदयिक अभियान छेड़ दिया।

इसका प्रभावी राजनैतिक प्रतिकार महागठबंधन नहीं कर सका।

उधर चिराग पासवान फैक्टर से अधिक damage न हो, इसके लिए NDA की एकता का जोरशोर से राग छेड़ा गया और अधिक unified चेहरा पेश किया गया।

इस चरण में NDA को 52 और महागठबंधन को 41 सीटें मिलीं।

बहरहाल, पहले दोनों चरण मिलाकर महागठबंधन की 14 सीटों से बढ़त बनी हुई थी।

लेकिन तीसरे और अंतिम चरण के चुनाव में बाजी पूरी तरह पलट गयी। यहां NDA की 51 सीटों के मुकाबले महागठबंधन को मात्र 22 सीटें मिलीं, अर्थात वह 29 सीटों से पिछड़ गया।

दरअसल उत्तरी बिहार के 16 जिलों की इन सीटों में चंपारण के दोनों जिलों में BJP का पहले से मजबूत आधार रहा है, 2015 की लालू-नीतीश की आंधी में भी वह 12 में से 6 सीटें जीती थी। मिथिलांचल के बड़े हिस्से में वामपंथी और सामाजिक आंदोलन की पकड़ मजबूत नहीं है और परंपरागत ताकतों का दबदबा रहा है, NDA  यहां विकास के एजेंडे के साथ जोर लगाए था, इसी बीच नवनिर्मित दरभंगा एयरपोर्ट operative हुआ है। लगता है विकास के इस narrative का aspirarional classes पर असर हुआ ।

महागठबंधन का मिथिला और सीमांचल में कांग्रेस पर काफी कुछ दांव लगा था, लेकिन वह भाजपा से छीनकर अपने पुराने आधार को वापस जीत पाने में बुरी तरह फेल हुई।

महागठबंधन के लिए सबसे निराशाजनक सीमांचल के परिणाम रहे। मुस्लिम-यादव बहुल सीमांचल की 32 सीटों में RJD को मात्र 3 और पूरे महागठबंधन को मात्र 9 सीटें मिलीं जबकि NDA को 18 सीटें, जिसमे अकेले भाजपा को 12 सीटें मिल गयीं। ओवैसी की AIMIM को 5 सीटें मिलीं।

यह बिल्कुल साफ है कि जहाँ NDA विरोधी वोटों में बिखराव हुआ, वहीं BJP और NDA के पक्ष में reverse  polarisation हुआ, 30% से अधिक मुस्लिम आबादी वाली 12 सीटें भाजपा की झोली में चली गयीं। यही वो इलाका था जहां ओवैसी, उपेंद्र कुशवाहा और बसपा एक मोर्चा बनाकर लड़ रहे थे तो पप्पू यादव भी चंद्रशेखर आज़ाद के साथ मोर्चा बनाकर मैदान में थे।

दूसरे चरण से ही प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ साम्प्रदयिक ध्रुवीकरण का जो तीखा अभियान चला रहे थे, उसका सबसे ज्यादा असर इसी इलाके में रहा, यहां तक कि अमितशाह भी चुनाव के दिन बगल में बंगाल में थे और घुसपैठियों को लेकर तुष्टिकरण के खिलाफ जहर उगल रहे थे। यह अनायास नहीं है कि इस चरण में एक चौथाई मतदाताओं ने अंतिम क्षणों में अपना choice  तय किया और उनमें 71% ने NDA को मत दिया (स्रोत: CSDS-लोकनीति सर्वे)।

जाहिर है महागठबंधन अपनी अंतर्निहित कमजोरियों के कारण इसकी वैचारिक-राजनैतिक काट नहीं कर पाया और न NDA विरोधी वोटों के बिखराव को रोकने के लिए  इस इलाके के लिए जरूरी alliance बना पाया।

बहरहाल, इस चुनाव ने जिन नई आकांक्षाओं को जगाया है,  जिन forces को unlease किया है,  जिन नए players को व्यक्तिशः भी और राजनैतिक ताकत के बतौर भी-रंगमंच के केंद्र में ला खड़ा किया है,  जिस तरह की social churning को जन्म दिया है, उसके दूरगामी परिणाम होंगे बिहार की राजनीति के लिए भी और राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी।

बिहार के इस चुनाव से निकलने वाला लड़ाई का मॉडल ही भारत की संसदीय राजनीति से मोदी परिघटना का अंत करेगा।

यह साबित हुआ कि मेहनतकश जनता विशेषकर युवापीढ़ी का जनांदोलन ही मोदी-शाह-भाजपा की ताकतवर चुनावी-मशीनरी की शातिर चालों और फासीवादी राजनीति को शिकस्त दे सकता है, कोई short-cut नहीं, जाति-समुदाय का कोई जोड़तोड़ या दलों का गठजोड़ नहीं।

जिस तरह रोजगार और नौकरियों का सवाल चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बन गया,  उसने व्यापक जनता को विशेषकर युवाओं को जिस तरह स्वतःस्फूर्त उत्साह से भर दिया, वह अभूतपूर्व था , यह दरअसल NDA का नकार ही था,  इसका न नीतीश के पास कोई जवाब था, न मोदी के पास।

अभूतपूर्व बेरोजगारी और आर्थिक संकट के इस दौर में समाज के सभी तबकों के छात्रों-युवाओं का सबके लिए रोजगार, सबके लिए शिक्षा का व्यापक एकताबद्ध आंदोलन इसका हिरावल बनेगा जो हिंदुत्व की विभाजनकारी, विनाशकारी राजनीति से इतर युवापीढ़ी को लामबंद करेगा।

यह आंदोलन विकास का एक नया नैरेटिव गढ़ेगा, जिसके केंद्र में जीवन के बुनियादी सवाल,  सबके लिए खुशहाल, गरिमामय जीवन की बुनियादी जरूरतों- रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य, आवास, बुनियादी ढांचे के लिए संघर्ष होगा।

इस चुनाव ने सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के प्रश्न पर मध्यमार्गी दलों की उन कमजोरियों को भी उजागर किया जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा है।

CSDS-लोकनीति सर्वे के अनुसार अतिपिछड़ों का 58% तथा महादलितों का 65% मत NDA को मिला, जबकि महागठबंधन के लिए यह क्रमशः मात्र 18% तथा 24% रहा। हिंदुत्व तथा मोदी सरकार की लोकलुभावन योजनाओं की तो इसमें भूमिका है ही, लेकिन इन चिंताजनक आंकड़ों ने एक बार फिर शिद्दत के साथ dominant सामाजिक न्याय मॉडल के अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया।

आज जरूरत है सामाजिक न्याय के एक समावेशी मॉडल की, जो सबके लिए राजनैतिक हिस्सेदारी और आर्थिक न्याय की गारंटी करे, जो सारे वंचितों की वर्गीय एकता को मजबूत करे, साथ ही चाहिए वर्ग संघर्ष का रैडिकल मॉडल,  जो यांत्रिक व अर्थवादी न हो, वरन सामाजिक न्याय को समग्रता में समाहित करे, जो आज के समय की मांग के अनुरूप विकास के नए चरण में सबके लिए खुशहाल, गरिमामय जीवन की गारंटी के लिए संघर्ष का वाहक बने।

कांग्रेस व मध्यमार्गी दलों द्वारा प्रैक्टिस किये जा रहे धर्मनिरपेक्षता के अवसरवादी मॉडल के भयानक खतरों को भी इस चुनाव ने expose किया। यह साफ हुआ कि इस प्रश्न पर दृढ़ सिद्धान्तनिष्ट वैचारिक stand और राजनैतिक अभियान के अभाव में इन दलों के सामाजिक आधार का चिंताजनक saffronisation हो रहा है, जो कई सीटों पर वोटों में भी translate हुआ, दूसरी ओर अल्पसंख्यकों को for granted मान कर चलना, यह मानकर चलना कि भाजपा के खिलाफ उनके पास कोई विकल्प नहीं है, इसलिए वे कहाँ जाएंगे, यह मानकर हिंदुत्व के खिलाफ soft hindu plank पर अमल करना और उनके लिए आर्थिक-सामाजिक न्याय तथा राजनैतिक भागेदारी से पल्ला झाड़ लेना परले दर्जे का अवसरवाद और संवेदनहीनता तो है ही, चुनाव की दृष्टि से भी आत्मघाती है। मोदी युग मे जितनी गहराई तक भगवाकरण होता जा रहा है, उसमें आप मोदी-भाजपा की अंधराष्ट्रवादी-विभाजनकारी वैचारिकी से टकराये बिना और उसकी राजनैतिक पकड़ से जनता को मुक्त कराए बिना pragmatic ढंग से चुनावी लाभ भी हासिल नहीं कर सकते, फासीवाद को मुकम्मल शिकस्त और राज-समाज का जनतांत्रीकरण तो बहुत दूर की बात है।

रोजगार जैसे जनमुद्दों पर आंदोलन आवश्यक हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। जनता को राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता जैसे प्रश्नों पर वैचारिक-राजनैतिक समझ के स्तर पर सचेत नहीं किया गया तो अंधराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की आंधी में उसका टिक पाना मुश्किल है।

आज जरूरत है participatory democracy के ऐसे मॉडल की, जिसमें सब की भागीदारी और हिस्सेदारी हो, सबके सवालों का समाधान हो ।जनता के विभिन्न तबके, समुदाय ऐसी आकांक्षा के साथ जहां अपने समुदाय की हितैषी  लगने वाली पार्टियों को वोट  कर रहे हों, उन्हें वोटकटवा और साम्प्रदयिक या जातिवादी घोषित कर उनके ऊपर अपनी विफलता का ठीकरा फोड़ना निरर्थक और नुकसानदेह है। इसकी बजाय उनकी आकांक्षाओं को सम्वेदनशीलता के साथ address करके ही उन्हें गलत राजनीतिक दिशा में जाने से बचाया जा सकता है। हमारा लोकतंत्र इसी दिशा पर चलकर और परिपक्व होगा।

चुनाव में वामपंथ, विशेषकर भाकपा (माले) ने अपनी शानदार परफॉरमेंस से राष्ट्रीय-स्तर पर ध्यान आकर्षित किया है। महागठबंधन में highest strike rate के साथ माले ने 19 में से 12 सीटें जीती हैं,  वह दरअसल जनवाद, समावेशी सामाजिक-आर्थिक न्याय, हाशिये के तबकों की राजनैतिक हिस्सेदारी, सिद्धान्तनिष्ठ धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों पर मजबूती से डटे रहते हुए, रोजगार-शिक्षा-स्वास्थ्य-समान काम के लिए समान वेतन, ग्रामीण गरीबों के मान-सम्मान, न्याय आजीविका-आवास जैसे सवालों पर लगातार सड़क से लेकर सदन तक धारावाहिक आन्दोलनों का परिणाम है। माले की मौजूदगी ने महागठबंधन द्वारा उठाये गए जनमुद्दों को धार और विश्वसनीयता दी और देखते देखते पूरा चुनाव आंदोलन में तब्दील हो गया। इसी के बल पर मोदी-नीतीश को इतनी कड़ी टक्कर मिली और वे हारते-हारते किसी तरह पाला छू पाये और अपनी सत्ता बचा पाए।

राष्ट्रीय राजनीति की निर्णायक हिंदी-उर्दू पट्टी में वामपंथ और भाकपा (माले) की अग्रगति शुभ लक्षण है, फासीवाद के खिलाफ लोकतंत्र की लड़ाई के लिए यह बेहद अहम है।

इस चुनाव में बिहार ने फासीवाद से लड़ने का रास्ता दिखाया है और पूरे देश के लिए सम्भावनाओं के नए द्वार खोले हैं।

लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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