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किसान आंदोलन ने देश को संघर्ष ही नहीं, बल्कि सेवा का भाव भी सिखाया

किसी भी जंग के मैदान में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है रसद यानी भोजन के भंडार की। यही तय करता है कि लड़ाई का अंजाम क्या होगा? क्योंकि बिना खाना-पानी के इतनी लंबी लड़ाई लड़ना संभव नहीं है।
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किसान आंदोलन एक साल से अधिक तक सरकार से संघर्ष करता रहा और अंत में 380 दिनों के बाद उसकी जीत हुई। इस जीत तक पहुंचने में बहुत सी बाधाएं आईं, लेकिन किसान आंदोलन सबको झेलता हुआ अपनी परणिति तक पहुंचा। ये किसानों का आंदोलन किसी जंग से कम नहीं था। किसानों ने भी इसे उसी तरह से लड़ा और सरकार ने भी किसानों से किसी विदेशी आक्रांत की भांति ही लड़ा। किसानों को दिल्ली की सीमाओं पर कंटीले तारों व सीमेंट की दीवारों से रोक गया था। जब किसान 27 नवंबर 2020 को दिल्ली आ रहे थे, तब सरकार के इशारे पर पुलिस ने किसानों पर अनगिनित आंसू गैस के गोले, पानी की तोप (वाटर कैनन) व अंधाधुंध लाठियां भांजी थी। इन सबके बीच किसान भी अपने मोर्चे से पीछे नहीं हटे और उन्होंने सरकार के सारे हमलों का सामना ही नहीं किया, बल्कि कई जगह उनका प्रतिकार भी किया।

किसी भी जंग के मैदान में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है रसद की, यानी भोजन के भंडार। वही तय करता है कि लड़ाई का अंजाम क्या होगा? क्योंकि बिना खाना-पानी के इतनी लंबी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है।

इस पूरे संघर्ष में खाने की कमी न हो, इसका जिम्मा लंगरों ने संभला था, शुरआत में लंगर पंजाब के किसानों और उनके गुरुद्वारों द्वारा लगया गया था। परन्तु बाद में हरियाणा और उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसान मज़दूरों ने भी ऐसे ही लंगर लगाए। इस एक साल से लंबे संघर्ष के बाद किसानों की जीत के साथ उनका आंदोलन खत्म हुआI यह आंदोलन अपने तमाम अन्य पहलुओं के साथ-साथ सभी मोर्चों पर चल रहे लंगरों के लिए भी याद रखा जाएगाI इन लंगरों ने न सिर्फ आंदोलनरत किसानों की भोजन की व्यवस्था की, बल्कि वहां किसानों को रोकने के लिए लगाए पुलिस बल, पत्रकारों और ख़ासकर आसपास के गरीब मज़दूर, बस्ती के लोगों के लिए ये लंगर पौष्टिक आहार का केंद्र बना हुए थे। सिंघु, टिकरी और गाजीपुर इन तीनों ही मोर्चे पर आस पास के झुग्गी बस्ती और फैक्ट्री मज़दूरों के लिए ये लंगर उनके तीन समय के भोजन का केंद्र था। I न्यूज़क्लिक ने 10 दिसंबर यानी किसानों के लौटने से एक दिन पहले सिंघु, टिकरी और गाज़ीपुर तीनों मोर्चों का दौरा किया और इस पहलू के साथ ही जानने की कोशिश की कि कैसे ये लंगर साल भर चले और इन्हें चलाने वाले ,खाने वाले मज़दूर एंव किसान नेता अब कैसा महसूस कर रहे हैंI

निर्मल कुटिया आंदोलन की शुरआती दौर से सिंघु बॉर्डर पर लंगर चला रहे हैं। ये लंगर सिंघु बॉर्डर पर बड़े लंगरों में से एक था। इस लंगर के टैंट कई बार गर्मी के कारण फट गए थे। लेकिन सब अड़चनों के बावजूद ये लंगर चलता रहा। लंगर चला रहे लोगों में से एक हरदीप सिंह ने कहा हमारा ये लंगर आखिरी बंदे के बॉर्डर छोड़ने के बाद ही बंद होगा।

उन्होंने बताया इस लंगर के दौरान उन्हें गांव-देहात के लोगों ने भरपूर समर्थन दिया। इस दौरान हमने सभी को लंगर खिलाया, इसमें बड़ी संख्या में किसानों के साथ ही आसपास के मज़दूर भी थे, जो यहां आकर खाना खाते थे।

ऐसे ही बिहार से दो प्रवासी मज़दूर, मुकेश और शंभु साहू थे, जो सिंघु बॉर्डर के पास ही एक मिक्सी फैक्ट्री में काम करते हैं। दोनों लंगर में चाय पी रहे थे, जब हमारी मुलाकात उनसे हुई। दोनों महीने में 10 से 15 हज़ार तक कमा लेते हैं। उसमें से एक बड़ा हिस्सा परिवार चलाने के लिए गांव भेज देते हैं। क्योंकि इनका परिवार गाँव में रहता है जो पूरी तरह इन्हीं पर आश्रित है।

उन्होंने बताया कि "वो पिछले कई महीनों से इस आंदोलन में ही अपना खाना खाते थे। हम सुबह फैक्ट्री जाते वक़्त लंगर से खाना खाकर और ये लोग (किसान) लंच के लिए भी डिब्बा पैक कर देते थे और शाम को वापसी में भी हम यहां से खाकर और रात के लिए भी अपने साथ कुछ खाना पैक करा ले जाते थे।"

लगभग 50 वर्षीय आशा जो आंदोलन के खत्म बाद उखड़ते टेंटों में से अपने काम का सामान एकत्रित कर रही थीं। उन्होंने भी ऐसे ही बात कही।

आशा ने बताया कि उनके परिवार में कुल सात लोग हैं और वे जूता सफाई (मोची) का काम करते हैं। घर में बूढ़े माँ-बाप भी हैं। कोरोना के बाद से घर की स्थति और बिगड़ गई है। बच्चे भी अब स्कूल नहीं जाते हैं।

उन्होंने आंदोलनकारी किसानों का जिक्र करते हुए कहा कि, “ये लोग बहुत अच्छे थे। इन्होंने हमें कभी खाने की कमी नहीं होने दी, बल्कि सर्दियों में हमें कंबल और गर्म कपड़े भी दिए थे। आज जब ये जा रहे हैं, तो दुःख तो हो रहा है, लेकिन ख़ुशी यह है कि सरकार ने इनकी मांगें मान ली हैं और एक लंबे अरसे के बाद अब वे सड़क से उठकर अपने घरों को जा रहे हैं।”

इसी तरह गाजीपुर बॉर्डर पर आसपास के मज़दूर और उनके बच्चे; आंदोलनों में आकर खाना खाया करते थे। साथ ही किसान उन्हें अपने साथ बैठकर पढाई और बाकी बातें भी करते थे। वो सब याद करके कई लोग बहुत भवुक थे, लेकिन वो इसके साथ ही खुश थे कि किसानों की जीत हुई है।

इस एक साल में मज़दूरों के साथ एक अनोखा रिश्ता कायम किया था, जिससे मज़दूर परिवार शायद ही कभी भूल पाएंगे।

एक नवयुवती, रजनी जो सिंघु बॉर्डर के पास ही रहती थी। वो इस आंदोलन के लंगरों में शुरआती दिनों से अपनी सेवाएं दे रही थी। सरकार और उसके कुछ पिछलग्गू आंदोलन के विरुद्ध स्थानीय लोगों को खड़ा करना चाहते थे, लेकिन वो नहीं कर पाए। रजनी ने कहा कि वो इस आंदोलन में परिवार के साथ आकर सेवा देती थीं और अब इनके जाने से बहुत दुखी हैं, क्योंकि इस आंदोलन में कई भाई-बहन, चाचा-चाची और ताऊ-ताई बने थे, जो अब सब छोड़ कर चले जाएंगे।

गाज़ीपुर पर किसान आंदोलन शुरआती दौर में मौजूद भारतीय किसान यूनियन और संयुक्त किसान मोर्चा के नेता जगतार सिंह बाजवा ने कहा कि इन लंगरों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जितना इस आंदोलन में लोगों की भूमिका अहम थी, उतनी इन लंगरों की भूमिका थी। अगर ये लंगर न होता, तब इस आंदोलनों को चलने में बहुत समस्या आती।

बाजवा ने कहा इन लंगरों ने इस आंदोलन की एकता में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। क्योंकि इसने जाति, धर्म, ऊंच-नीच के भेद मिटा दिए थे। सभी एक साथ एक पंगत में खाते थे, जिसने किसानों की एकता को बल दिया।

हरियाणा के जमींदार छात्र सभा द्वारा टिकरी बॉर्डर के मुख्य स्टेज के साथ ही एक बड़ा लंगर चलाया जा रहा था। उसके संचालकों में से एक प्रदीप ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि हम शुरआत में किसानों को कच्चा राशन उपलब्ध कराते थे, फिर हमने लंगर शुरु किया।

उन्होंने आगे कहा, “पंजाब के किसानों ने हमसे बहुत कुछ सीखा होगा, लेकिन हमने उनसे लंगर चलाना सीखा। आज हम इस आंदोलन से भाईचारा लेकर जा रहे हैं और तानाशाह को घुटने के बल बैठाकर जा रहे हैं। हमने जब इस लंगर को शुरू किया तो हमे पता नहीं था कि ये कैसे और कितने दिनों तक चलेगा। लेकिन ये लंगर चलता ही रहा और कभी नहीं रुका। इस लंगर में करोड़ों रूपए आए और हमने उन्हें खर्च किया। लोग अपनी मर्जी से दान दे जाते थे। साथ ही गांव वालों ने कभी आनाज, दूध, सब्जी और फल की कमी नहीं होने दी।”

इन लंगरों की भूमिका कितनी बड़ी थी, इसका आंदजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब यह आंदोलन खत्म हुआ तो संयुक्त किसान मोर्चा ने सभी बॉर्डर पर लंगर चला रहे लोगों और संगठनों का धन्यवाद दिया। ये आंदोलन इतिहास का सबसे लंबा आंदोलन था। हालंकि, इसकी दिल्ली की सीमाओं पर शुरआत भले नवंबर 2020 में हुई हो, परन्तु पंजाब के भीतर ये आंदोलन कई महीने पहले से सुलग रहा था।

इस आंदोलन ने दिखा दिया कि शंतिपूर्ण ढंग से आंदोलन करके भी निरंकुश सत्ता को झुकाया जा सकता है। इस पूरे दौरान कभी भी लंगर सेवाओं ने भोजन की कमी नहीं होने दी। ये आंदोलन जितना अपना संघर्ष और लड़ाकूपन के लिए याद किया जाएगा, उतना ही अपनी सेवाओं के लिए भी याद किया जायगा। इस आंदोलन में हमें देखने को मिला कि किस तरह नौजवान बुजुर्गों की सेवा कर रहे थे। खाने के लंगर के साथ ही मसाज के लंगर भी लगाए गए थे। डॉक्टरों की टीम ने इस पूरे आंदोलन में अपनी सेवा दी और वो सिर्फ आंदोलनकारी किसनों का इलाज ही नहीं, बल्कि गरीब मज़दूरों का भी इलाज़ कर रहे थे। 

इस आंदोलन ने न केवल संघर्ष करना, बल्कि सेवा का भाव भी सिखाया है। 

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