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राजनीति
थारू जनजाति का संघर्ष जारी, "वन अधिकारों की मान्यता को लेकर पारंपरिक नृत्य करते हुए निकाली रैली"
एफआरए के कई प्रावधानों का हवाला देते हुए जिला स्तरीय समिति ने आदिवासियों दावों को खारिज कर दिया है, जबकि कानूनन उसे ऐसा करने का अधिकार ही नहीं है।
नवनीश कुमार
06 Aug 2022
tharu

थारू जनजाति का भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष निरंतर जारी है। वन अधिकारों को मान्यता न देने के विरोध में गुरुवार को होरी नृत्य करते हुए थारू आदिवासियों ने पलिया में रैली निकाली और एसडीएम रेनू सिंह को मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन देकर एफआरए-2006 को लागू किए जाने की मांग की।

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन के बैनर तले सैकड़ों की संख्या में दुधवा टाइगर रिजर्व जंगल के बीच निवास करने वाली आदिवासी थारू जनजाति के महिला पुरुष, शहर में पहुंचे और जुलूस निकालकर वनाधिकारों की मान्यता कानून को लागू न किए जाने का विरोध किया। इस दौरान महिलाओं ने परंपरागत वेशभूषा में प्रसिद्ध थारु होरी नृत्य भी किया।



मुख्यमंत्री के नाम दिए ज्ञापन में कहा है कि देश की संसद ने 16 दिसंबर 2006 को अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी वनाधिकारों का मान्यता कानून 2006 पास किया था, जिसका 16 साल बाद भी थारु क्षेत्र के 20 गांवों को लाभ नहीं मिला है। 16 साल से वन विभाग द्वारा कानून के क्रियान्वयन में अड़चनें लगाई जा रही हैं। इसमें 31 जुलाई 2013 को उपखंड स्तरीय समिति ने लघु उत्पाद के अधिकार के लिए दावे प्रस्तुत किए। 7 साल लंबी प्रक्रिया के बाद 2020 में उपखंड स्तरीय समिति के दावों को पास करके अंतिम अनुमोदन के लिए जिला स्तरीय समिति को अग्रसरित किया गया था लेकिन जिला स्तरीय समिति ने बिना कोई जांच किए 15 मार्च 2021 को दावों को निरस्त कर दिया गया, जो गलत है। मामले में 20 गांवों के पास किए दावों की जांच कराने, निरस्त किए गए दावों का उपखंड स्तरीय समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट से पुनरावलोकन करने की मांग की गई है, ताकि आदिवासी समाज को उनका अधिकार मिल सके। इस दौरान सहबनिया, निबादा राना, अनीता, साधना देवी, तेतारा देवी, फूलमती, रतनलाल, प्यारेलाल, दयाराम, रामचंद्र, संतोषी, अशोक चौधरी और रजनीश समेत बड़ी संख्या में थारु समाज के लोग मौजूद रहे।



खास है कि दुधवा, लखीमपुर खीरी में थारू आदिवासी समुदाय द्वारा दायर सामुदायिक भूमि अधिकार के दावों को मार्च 2021 में जिला स्तर पर खारिज कर दिया गया। जबकि समुदाय के सदस्यों का कहना है कि कानून, समिति को ऐसा करने के लिए अधिकृत नहीं करता है। इसे लेकर दुधवा क्षेत्र के 20 गांवों में रहने वाले थारू आदिवासी समुदायों ने 'जल-जंगल-जमीन' यानी सामुदायिक भूमि से वंचित करने को लेकर पहले भी विस्तृत आपत्ति दर्ज कराई थी। 



सामुदायिक भूमि अधिकार के ये दावे 2013 में बहुत पहले दायर किए गए थे जो समय बीतने के बाद आज भी कमोबेश अधर में लटके हैं। अब तक जिस तरह से इस प्रक्रिया को संभाला गया है, उससे वनवासी समुदाय काफी निराश है। अपनी आपत्तियों में उन्होंने बताया है कि जिस तरीके से उनके दावों को खारिज किया गया है वह अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (एफआरए) के अनुसार नहीं है। उन्होंने कहा कि एफआरए के कई प्रावधानों का हवाला देते हुए जिला स्तरीय समिति ने उनके दावों को खारिज कर दिया है, जबकि कानूनन उसे ऐसा करने का अधिकार ही नहीं है।

वन अधिकार अधिनियम के तहत मान्यता प्राप्त सामुदायिक वन अधिकार, वन समुदायों की आजीविका को सुरक्षित करने और वनों और प्राकृतिक संसाधनों के स्थानीय स्वशासन को मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। इसी को लेकर थारू समुदाय की महिला नेता नेबादा राणा तथा ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल्स (एआईयूएफडब्ल्यूपी) और सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) द्वारा समर्थित आदिवासी महिला नेता (यूनियन अध्यक्ष) सुकालो गोंड ने सुप्रीम कोर्ट में जोरदार हस्तक्षेप किया था। ग्राम स्तरीय वनाधिकार समिति के द्वारा भी राज्य स्तरीय निगरानी समिति व मुख्य सचिव उप्र के यहां आपत्ति दर्ज कराई गई थी। इस ऐतिहासिक हस्तक्षेप में, एफआरए 2006 का ऐतिहासिक उद्देश्य और यह कैसे "अधिकारों की मान्यता" कानून है, पर विस्तृत तर्क दिया है।



इन आपत्तियों को ऑनलाइन पोर्टल न्यूज क्लिक द्वारा भी प्रकाशित किया गया था।

1. जिला स्तरीय समिति के पास ग्रामीणों द्वारा किए गए दावों को खारिज करने का अधिकार नहीं है।

एफआरए की धारा 6(3) में कहा गया है कि उपमंडल स्तरीय समिति ग्राम सभा द्वारा पारित प्रस्ताव की जांच करेगी और वन अधिकारों का रिकॉर्ड तैयार कर उपमंडल अधिकारी के माध्यम से जिला स्तरीय समिति को अंतिम रूप से अग्रेषित करेगी।

इसके अलावा, धारा 6 की उप-धारा 5 में यह भी दोहराया गया है कि जिला स्तरीय समिति को उप-मंडल स्तर की समिति द्वारा तैयार किए गए वन अधिकारों के रिकॉर्ड पर विचार करना और अंतिम रूप से अनुमोदित करना है। इस प्रकार, जिला स्तरीय समिति की शक्ति अनुमंडल स्तर की समिति द्वारा तैयार किए गए वन अधिकारों के अभिलेख को अनुमोदित करने की है।

2. जिला समिति द्वारा यह अस्वीकृति इंगित करती है कि या तो वे एफआरए से पूरी तरह परिचित नहीं हैं या यह जानबूझकर वनवासियों को उनके वन अधिकारों से वंचित करने के लिए किया गया था।

3. जिला समिति को सामुदायिक दावों पर अपनी सिफारिशें पुनर्विचार के लिए ग्राम सभा को वापस भेजनी चाहिए थी। जिला स्तरीय समिति ने न केवल दावों को खारिज किया बल्कि दावों का जवाब देने में भी कई महीने लग गए।

4. जिला समाज कल्याण विभाग और अनुमंडल स्तर की समिति ने दावों की गलत जांच की है। जिला स्तरीय समिति का पत्र दिनांक 15 मार्च 2021 का है जबकि यह पत्र ग्राम स्तरीय वन अधिकार समितियों को 20 सितम्बर 2021 को ही प्राप्त हुआ है। यह भी तब प्राप्त हुआ जब दावों की स्थिति का पता लगाने के लिए समितियों ने अनुमंडल एवं जिला स्तर को पत्र लिखा।

5. इसके अलावा, दावों की अस्वीकृति के लिए उल्लिखित कारण न केवल एफआरए का उल्लंघन हैं बल्कि असंवैधानिक भी हैं। टीएन गोदावर्मन थिरुमुलपाड बनाम भारत संघ और अन्य (1997) 2 एससीसी 267 का मामला जिला स्तरीय समिति के पत्र में उद्धृत इस मामले में लागू नहीं है, क्योंकि एफआरए की धारा 4 स्पष्ट भाषा में वनों में रहने वाले समुदाय को वन अधिकार अधिभार और प्रदान करती है। 

एफआरए की धारा 13 में भी कहा गया है, "इस अधिनियम और पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 में अन्यथा प्रदान किए गए को छोड़कर, इस अधिनियम के प्रावधान इसके अतिरिक्त होंगे और इसके प्रावधानों के अल्पीकरण में नहीं होंगे। एफआरए, भारतीय वन अधिनियम 1927 के ऊपर है और इसलिए, 1927 अधिनियम के आधार पर वन अधिकारों के दावों को अस्वीकार करना गलत है।

6. जब एसडीएलसी ने अपनी टिप्पणियों के साथ दावों को पारित किया तो डीएलसी द्वारा एफआरए की किस धारा के तहत दावों को खारिज किया गया? एफआरए के तहत, दावों को बिना किसी आधार के खारिज नहीं किया जा सकता है। साथ ही, दावे 2013 से लंबित हैं, वन विभाग के आदेश के अनुसार उनकी मंजूरी को रोक दिया गया था। दावों की अस्वीकृति के लिए कोई मजबूत आधार प्रदान नहीं किया गया है।

7. एफआरए की धारा 4(7) के तहत, यह स्पष्ट रूप से कहा गया है, "वन अधिकारों को सभी बाधाओं और प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं से मुक्त किया जाएगा, जिसमें वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के तहत, मूल्य' और 'प्रतिपूरक वनरोपण' वन भूमि के व्यपवर्तन के लिए मंजूरी आदि भी शामिल है। इस प्रकार, डीएलसी के अस्वीकृति पत्र में गोदावर्मन मामले का संदर्भ गलत है। यह स्पष्ट है कि किसी भी वन संबंधी कानून में निहित कुछ भी होने के बावजूद, वन अधिकार अधिनियम में दिए गए प्रावधान किसी भी चीज़ की तुलना में अधिक प्रमुख होंगे। यह कानून जंगल से संबंधित पहले के किसी भी कानून और अदालतों द्वारा दिए गए फैसलों का स्थान लेता है।

8. ग्राम सूरमा के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2003 में गांव को विस्थापित करने के आदेश के बावजूद, उत्तर प्रदेश कानून और न्याय विभाग इन आदेशों के खिलाफ चला गया और 2011 में वन अधिकार अधिनियम के तहत न केवल लोगों को उनके निवास और कृषि भूमि पर मालिकाना अधिकार मिला बल्कि टाइगर रिजर्व के कोर जोन में होने के बावजूद उन्हें राजस्व का दर्जा भी दिया गया। जिससे जिला स्तरीय समिति द्वारा दिये गये उपरोक्त तर्क स्वतः ही निरस्त हो जाते हैं।

9. जिला स्तरीय समिति द्वारा दिए गए इस आदेश के अंतिम पैराग्राफ में योजनाओं के लाभ के अलावा ग्राम सूरमा के व्यक्तिगत दावों को स्वीकार किया गया है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जब एक कानून के तहत व्यक्तिगत अधिकारों को मान्यता दी गई है, तो उसी कानून के तहत किए गए सामुदायिक अधिकारों के दावों को कैसे रद्द किया जा सकता है। एक ही कानून में पात्रता और अपात्रता का यह दोहरा मापदंड साबित करता है कि सामुदायिक दावों को लेकर जिला स्तरीय समिति द्वारा लिया गया यह फैसला पूरी तरह से कानून का उल्लंघन है।

10. यह कि जिला स्तरीय समिति ने पत्र में लिखा है कि इस गांव के लोग न तो जंगलों में रहते हैं और न ही अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं। जबकि दुधवा वन क्षेत्र में 200 से अधिक वर्षों से बसे गांव के पुराने रिकॉर्ड हैं और रिकॉर्ड एसडीएलसी के समक्ष पहले ही प्रस्तुत किए जा चुके हैं।

11. डीएलसी ने एफआरए का कोई संदर्भ दिए बिना अस्वीकृति आदेश पारित कर दिया है। जिला स्तरीय समिति की बैठक में जहां दावों को खारिज करने का निर्णय लिया गया था, एफआरए के अनुसार आदिवासी समुदाय या अन्य पारंपरिक वन निवासियों के तीन सदस्यों को शामिल करना था।

12. एफआरए 2006 और संबंधित 2008 नियम सभी आदिवासियों और वनवासी समुदायों के जीवन में एक ऐतिहासिक मील का पत्थर हैं जो उनके जीवन और आजीविका दोनों की रक्षा करते हैं। संसद के एक अधिनियम के माध्यम से इस महत्वपूर्ण कानून का अधिनियमन, भारत के स्वदेशी, आदिवासी, अन्य पारंपरिक वनवासी समुदायों के एक दशक के लंबे संघर्ष और अभिव्यक्ति का परिणाम था और वास्तव में, स्थानीय लोगों को सशक्त बनाकर न्यायशास्त्र में एक बहुत ही आवश्यक बदलाव का प्रतीक है। समुदायों और उनकी ग्राम सभाओं को न केवल शासन के साथ बल्कि उनकी आजीविका, वनों और भूमि की सुरक्षा के लिए भी। लेकिन, उचित प्रक्रिया और नियमों का पालन न करने और देरी करने की रणनीति का उपयोग करके, यह कानून के उद्देश्य को हरा देता है जो हमारे हितों की रक्षा के लिए है। वास्तव में, यह अधिनियम भारतीय संविधान की अनुसूची V, VI और XI (अनुसूची IX उत्तर पूर्व से संबंधित है) के तहत आदिवासी, स्वदेशी लोगों और वनवासी समुदायों के लिए पहले से ही संवैधानिक प्रावधानों को वैधानिक जीवन और अधिकार देता है।

13. ऐसे सामुदायिक दावों को ऐसे प्राधिकरण द्वारा खारिज नहीं किया जा सकता है जिसके पास ऐसा करने की शक्ति नहीं है। इसके अलावा, इन दावों की अस्वीकृति जल्दबाजी में की गई थी। यह एक ज्ञात तथ्य है कि वनवासी समुदायों/अनुसूचित जनजातियों के बीच भूमि के साथ संबंध महत्वपूर्ण है और उनके लिए आजीविका का एक स्रोत भी है। वह भूमि उन्हें सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा भी देती है जिससे वे वर्षों से वंचित हैं।

14. याचिकाकर्ताओं द्वारा गुमराह किए जाने के बाद फरवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट के अचानक और विवादास्पद आदेश के बाद, दोनों जनजातीय मामलों के मंत्रालय (MoTA) ने कड़ी आपत्ति जताई जिसके बाद कोर्ट ने अपने आदेश के संचालन पर रोक लगा दी थी।

आदिवासियों के अधिकारों को लेकर आज जनसुनवाई होनी है। आदिवासी समाज लंबे समय से अपने हक की लड़ाई लड़ रहा है। अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन भी आदिवासियों के हक की लड़ाई में उनके साथ है। आदिवासी समाज अब अपने अधिकार और दावों को लेकर काफी सजग है और कानून के दायरे में रहकर अपना हक मांग रहा है।

साभार : सबरंग 

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