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कृषि क़ानूनों के वापस होने की यात्रा और MSP की लड़ाई

कृषि क्षेत्र में सुधार होने चाहिए। लेकिन तीन कृषि कानून कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए नहीं बल्कि कृषि क्षेत्र को गुलाम बनाने के लिए लाए गए थे। 
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Image courtesy : India.com

साल 2018-19 के दौरान हर दिन हर किसान ने महज ₹27 की कमाई की.(द सिचुएशन एसेसमेंट सर्वे ऑफ फार्मर), यह आकड़ा बताता है कि भारत में खेती-किसानी का बहुत बुरा हाल है। खेती किसानी के भीतर अगर अच्छे से छानबीन की जाए तो पता चलता है कि खेती किसानी की पूरी आंतरिक संरचना बहुत अधिक जर्जर है। जर्जर हो चुकी कृषि क्षेत्र की भीतरी संरचना बताती है कि किसानों के लिए कृषि क्षेत्र को फायदेमंद बनाने के लिए उसमें बहुत अधिक सुधार की जरूरत है। इसलिए कोई भी किसान हितैषी कृषि क्षेत्र में होने वाले सुधारों का विरोध नहीं कर सकता।

लेकिन असली बात यह है कि सुधार होने चाहिए। तीन कृषि कानून जिन्हें खारिज करने के लिए किसानों ने तकरीबन डेढ़ साल तक संघर्ष किया उसके बाद जाकर सरकार ने उसे वापस लिया, वह कृषि क्षेत्र के सुधार नहीं थे बल्कि सुधार के नाम पर ऐसे कानून थे जो किसानों की जिंदगी में मौजूद सहारे की टूटी फूटी छत को भी तोड़ने का काम कर रहे थे। अगर तीन कृषि कानून लागू हो जाते तो यह टूटी-फूटी छत भी टूट जाती। किसानों की जिंदगी परेशानियों के बाढ़ में डूब जाती। इसलिए यह कहा जा रहा था कि केवल तीन कृषि कानूनों का विरोध नहीं हो रहा है बल्कि पहले से ही जर्जर हो चुकी खेती किसानी को पूरी तरह से गुलाम होने से बचाया जा रहा है।

कृषि मंडियों के खात्मे से जुड़ा हुआ कानून कृषि मंडी के अस्तित्व को ही पूरी तरह से खत्म करने की योजना से लाया गया था। शांता कुमार समिति की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में तकरीबन 42 हजार कृषि मंडियां होनी चाहिए। लेकिन इनकी संख्या महज 6000 से 7000 के बीच में है। प्रति 80 किलोमीटर की दूरी पर एक कृषि मंडी की जरूरत है लेकिन भारत में औसतन 450 किलोमीटर पर एक कृषि मंडी मिलती है। 

सरकार को चाहिए था कि वह कृषि मंडियों की संख्या बढ़ाए। वहां भी कृषि मंडियों की सुविधा उपलब्ध करवाए, जहां पर वह नहीं है। लेकिन यह करने की बजाय सरकार ने एपीएमसी एक्ट में ऐसा संशोधन लाया, जिससे कृषि मंडियां हीं खत्म हों जाएँ। तीन कृषि कानून में कृषि मंडियों के अस्तित्व को बर्बाद करने से जुड़े कानून पर सबसे अधिक बहस हुई। 

कानून के जरिए यह संशोधन हो रहा था कि किसान अपनी उपज को कहीं भी किसी को भी बेच सकते हैं। कोई भी बिना रजिस्टर्ड व्यापारी हुए भी किसानों की उपज खरीद सकता है। जबकि पहले का नियम यह था कि वही किसानों से उपज खरीदेंगे जो एपीएमसी मंडियों के तहत रजिस्टर्ड व्यापारी होंगे। इन व्यापारियों को मंडियों की देखरेख करने के लिए 6% टैक्स भी देना होगा। नए कानून के जरिए 6% टैक्स की शर्त और रजिस्टर्ड व्यापारी होने की शर्त हटाई जा रही थी। पुराने एपीएमसी एक्ट के तहत रजिस्टर्ड व्यापारी की शर्त इसलिए लगाई गई थी ताकि जो भी किसानों से उपज खरीदे वह एमएसपी (MSP) की दर से ख़रीदे। MSP से कम कीमत देकर के किसानों से उपज ना खरीदें। मतलब अगर कोई रजिस्टर्ड व्यापारी नहीं होगा और किसान एपीएमसी की मंडियों में अपनी उपज को नहीं बेचेंगे तो कोई भी किसी भी दाम पर किसानों से उपज खरीद सकता है। सरकार कह रही थी कि इस कानून के जरिए बिचौलिए खत्म हो जाएंगे। किसान अपनी उपज को कहीं भी बेच देंगे। उन्हें अपनी उपज की वाजिब कीमत मिलेगा। 

पंजाब और हरियाणा के किसान कह रहे थे कि अगर 6% टैक्स की शर्त हटा दी जाएगी तो कोई भी मंडी के अंदर व्यापारी नहीं बचेगा। सब मंडी के बाहर जाकर खरीददारी करेंगे। कोई एपीएमसी एक्ट के तहत रजिस्टर्ड व्यापारी बनकर किसानों से उनकी उपज नहीं खरीदेगा। इसका मतलब यह होगा कि किसानों को सरकारी मंडियों की सुविधा नहीं मिलेगी।अगर सरकारी मंडियों की सुविधा नहीं मिलेगी तो पंजाब और हरियाणा के किसान का  बिहार के किसान की तरह बुरा हाल हो जाएगा। 

उन 18 राज्यों के किसानों की तरह शोषण होगा, जहां पर सरकारी मंडियों की व्यवस्था को राज्यों ने बहुत पहले ही खत्म कर दिया था। वहां के किसानों को पंजाब और हरियाणा के किसानों से बहुत कम पैसा मिलता है। किसान साफ-साफ कह रहे थे कि सरकारी मंडी को हटा देने का मतलब है कि उनका भी बिहार के किसानों की तरह शोषण होने लगेगा। अगर सरकार कह रही है कि बिचौलिये नहीं होने चाहिए तो हम भी कह रहे हैं कि बिचौलिए नहीं होने चाहिए लेकिन सरकार यह लीगल गारंटी दे कि उसकी उपज को एमएसपी से कम दर पर नहीं खरीदा जाएगा। सरकार यह बताए कि क्यों उन राज्यों में जहां पर एपीएमसी की मंडियां आज से 10 साल पहले ही खत्म कर दी गईं थीं, वहां के किसानों का कोई भला नहीं हुआ?

सरकार इन सभी सवालों पर गोलमोल जवाब दे रही थी। किसी भी सवाल का ऐसा जवाब नहीं था कि किसान उसे स्वीकार करें। सारे जवाब बरगलाने वाले थे। इसलिए किसान संगठनों का सीधा कहना था कि जो सौगात प्रधानमंत्री उन्हें कृषि कानूनों के तौर पर दे रहे हैं। वह सौगात उन्हें नहीं चाहिए। किसी को भी ऐसी सौगात नहीं मिलनी चाहिए जो सौगात उसे बर्बादी के कगार पर पहुंचाती हो।

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दूसरा कानून कॉन्ट्रैक्ट खेती से जुड़ा हुआ था। इस सुधार की भी भारत के किसानों को बिल्कुल जरूरत नहीं थी। भारत में तकरीबन 86 फ़ीसदी किसान 2 हेक्टेयर से कम की जमीन पर खेती करते हैं। कॉन्ट्रैक्ट खेती करने वालों का अब तक का इतिहास रहा कि उन्हें बड़ी जोत चाहिए होती है। इस तरह से भारत के 86 फ़ीसदी किसान पहले ही कॉन्ट्रैक्ट खेती बाहर हो जाते हैं। इन 86 फ़ीसदी किसानों को अनुबंध खेती के भीतर लाने वाले बड़े-बड़े फूड प्रोसेसर प्राइवेट कंपनियां और कॉर्पोरेट यही रास्ता निकालते हैं कि जमीन के कई छोटे-छोटे टुकड़े को लेकर बड़े पैमाने पर खेती की जाए। मतलब यह कि किसान को खेती करने से वंचित कर दिया जाए। उसकी जमीन पर बड़े धन्ना सेठ खेती करें। इस तरह के व्यवहार का रास्ता देश से खेती किसानी को पूरी तरह से खत्म कर उसे कॉरपोरेट्स के हाथों में सौंप देने की तरफ जाता है।

तो कॉन्ट्रैक्ट खेती से छोटे छोटे किसान बहुत अधिक डरे हुए थे। खासकर पंजाब और हरियाणा के किसान जिन्होंने कॉन्ट्रैक्ट खेती का कुछ अनुभव ले रखा था। वह कह रहे थे कि जब बड़े पैसे वाले उनके साथ अनुबंध करेंगे तो उनकी बात को कौन सुनेगा? अनुबंध में कुछ भी लिखा जाए? किसी भी तरह की शर्त लगा दी जाए? लेकिन जब झगड़ा होगा तो एसडीएम या डीएम छोटे किसानों की सुनेगा या बड़े बड़े कॉरपोरेट घरानों की? ऐसे में देश भर की जमीनों को कॉन्ट्रैक्ट खेती के लिए खुले छोड़ देने का मतलब है- किसानों को खेती किसानी से बेदखल कर देने का एक अच्छा खासा रास्ता बना देना. ऐसे सुधार को क्या सुधार कहा जाएगा, जहां पर यह साफ-  साफ दिख रहा हो कि ना जमीन रहेगी ना किसानी का अस्तित्व रहेगा।

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तीसरा कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम से जुड़ा हुआ था। सरकार का तर्क था कि जब कृषि उत्पाद के संग्रहण से जुड़ी बाध्यताएं ख़त्म हो जाएंगी तो पैसा लगाने वाले कोल्ड स्टोरेज बनाएंगे। प्राइवेट इन्वेस्टर गोदाम बनाएंगे। कृषि का बुनियादी ढांचा अपने आप तैयार होता चला जाएगा। सरकारी मदद की जरूरत नहीं पड़ेगी। किसानों का कहना था कि अब तक क्यों नहीं हो पाया? देश के 18 राज्यों में बिना किसी रोक-टोक के कृषि उपज खरीदने बेचने का नियम है, वहां पर प्राइवेट इन्वेस्टर ने क्या किया? क्या वहां पर कोल्ड स्टोरेज बनवाया? क्या वहां पर गोदाम बने? अगर नहीं बने तो क्यों नहीं बने? किसान साफ-साफ कह रहे थे कि दरअसल सरकार की मंशा गोदाम बनवाने की नहीं है बल्कि कृषि से पूरी तरह से अपना पिंड छुड़ा लेने की है।

सरकार का इरादा है कि कृषि क्षेत्र को बड़ी-बड़ी कंपनियों को सौंप दिया जाए। अगर बड़ी-बड़ी कंपनियां आएंगी तो बड़े-बड़े प्लांट लगेंगे। जब बड़े-बड़े प्लांट लगेंगे तो बड़े-बड़े प्लांट लगाने वाले तब तक तिकड़म भिड़ा करके मुनाफा नहीं कमा पाएंगे जब तक आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसा कानून रहेगा। जब अनाज संग्रहण से जुड़ी किसी तरह की बाध्यता ही नहीं रहगी तो बड़े-बड़े कोल्ड स्टोरेज गोदामों में अनाज का स्टॉक रहेगा। जब कृषि बाजार में कीमतें ऊंची होने की तरफ बढ़ेंगी तो उन स्टॉक के अनाज को बाजार में उतार दिया जाएगा। बाजार में अनाज की सप्लाई ज्यादा हो जाएगी। कीमतें कम हो जाएंगी। मुनाफा कमाने वाले बड़े बड़े धन्ना सेठ ऐसे ही तिकड़म लागाकर मुनाफा कमाते आए हैं तो इसे सुधार कैसे कहा जाए?

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इस तरह के ढेर सारे तर्क किसानों की तरफ से सरकार को पेश किए गए। लेकिन सरकार उसे अनसुना करती रही। जब कृषि अध्यादेश बिल आए तो किसानों ने कहा कि यह असंवैधानिक है। केंद्र सरकार राज्य का हक छीन रही है। इतना बड़ा बदलाव आनन-फानन में कर रही है। दाल में जरूर कुछ काला है। नहीं तो सुधारों के नाम पर होने वाला इतना बड़ा बदलाव वैधानिक प्रक्रियाओं को नजरअंदाज करके नहीं किया जाता। किसानों ने अध्यादेश के हर एक प्रावधान की छानबीन की। उसके बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि दाल तो पूरी तरह से काली है। इतनी काली है कि अगर खाने की लत लग जाए तो खेती किसानी ही बर्बाद हो जाएगी। 

इसलिए पहले अनुनय विनय शुरु किया। सरकार को लिखित संदेशा भिजवाया। सारे तर्क रखे। सरकार नहीं मानी तो अहिंसात्मक आंदोलन का संघर्ष शुरू किया। सरकार टालमटोल करती रही। इस टालमटोल और सरकारी बेरुखी के दौरान दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे पंजाब और हरियाणा के किसानों ने पूरे हिंदुस्तान को बता दिया कि कृषि क्षेत्र कितना अधिक जर्जर हो चुका है।

वह कृषि क्षेत्र जिससे भारत की तकरीबन 42 फ़ीसदी आबादी अपनी जिंदगी गुजारने का इंतजाम करती है तो भारत की राजनीति का मुख्य धारा का विषय बन गया। यह सब किसानों का कमाल था कि गाहे-बगाहे लोग अपनी प्लेट में रखे हुए खाने को देखते हुए किसान आंदोलन के बारे में सोचते थे। लेकिन फिर भी सरकार नहीं मानी। दिल्ली के बॉर्डर पर किसानों ने जाड़ा सहा, बरसात सही, गर्मी सही, आंधी, तूफान सब कुछ सहा।

तकरीबन साढ़े सात सौ से अधिक किसान शहीद हो गए। किसानों को सरकार समर्थित मीडिया ने आतंकवादी, नक्सली, खालिस्तानी, देशद्रोही सब कुछ कहा। आंदोलन स्थल पर चोरियां हुईं। पत्थर चले। सरकारी अधिकारियों ने सर फोड़ने के आदेश दिए। आसपास के भाजपा के गुंडों ने तंबू उखाड़ दिए। डेढ़ साल के दौरान किसानों ने ऐसे अनेक मुसीबतों का सामना किया। तब जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भावी चुनावी वोट बैंक को भांपते हुए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया। 

कृषि कानूनों की वापसी का एलान करते वक्त प्रधानमंत्री ने यह नहीं कहा कि उनकी सरकार अपने कदम पर शर्मिंदा है। वह कृषि कानूनों को वापस लेती है। बल्कि बड़े ही थेथर ढ़ंग से यही कहा कि इन कृषि कानूनों से देश के तमाम छोटे-छोटे किसानों को फायदा पहुंचने वाला था। लेकिन जनता के एक धड़े ने विश्वास नहीं किया। इसलिए हम इन कानूनों को वापस लेते हैं। जबकि तर्क का गणित साफ साफ कहता है कि छोटे-छोटे किसानों को तभी फायदा होगा जब MSP की लीगल गारंटी दी जाएगी। जब यह तय किया जाएगा कि किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम देना कानूनन जरूरी है। तीन कृषि कानूनों के लागू होने पर पंजाब और हरियाणा के जिन छोटे-छोटे किसानों को एमएसपी मिल जा रही थी, उन्हें वह भी ना मिलती।

इस तरह से प्रधानमंत्री ने कृषि कानून वापस लेते हुए भी यह स्वीकार नहीं किया कि सुधार के नाम पर जो कदम उठाए गए थे वह कृषि क्षेत्र को बर्बाद करने के कदम थे ना कि उस को आबाद करने वाले। लेकिन किसान भी मोर्चे पर तैनात हैं। गांधीवादी आंदोलन की शानदार क्षमता से पूरी तरह से रूबरू हो चुके हैं। किसान खुलकर कह रहे हैं कि अभी उनकी आधी जीत हुई है। सरकार का घमंड चकनाचूर हुआ है। लेकिन पूरी जीत तभी होगी जब सरकार एमएसपी की लीगल गारंटी देगी। तब तक यह आंदोलन ऐसे ही चलता रहेगा। देश के मानस को ऐसे ही आंदोलित करता रहेगा।

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