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तिरछी नज़र: बिन देखे मुझे भी पता है कि फ़िल्म बहुत ही अधिक अच्छी है

फ़िल्म बहुत ही अधिक अच्छी है। अधिकतर लोगों की तरह मुझे भी बिना देखे ही पता चल गया है कि फ़िल्म बहुत ही अधिक अच्छी है। फ़िल्म सिनेमाघरों में अब सिर्फ़ इसलिए चल रही है कि मैं उसे जल्दी से देख लूं।
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कार्टून सतीश आचार्य के ट्विटर हैंडल से साभार

एक फिल्म बनी है, रिलीज भी हुई है और लोगों द्वारा देखी भी जा रही है-'द कश्मीर फाइल्स'। मेरे पास इतने लोगों के वाट्सएप संदेश आ चुके हैं, कि इसे जरूर देखें, सिनेमा हॉल में ही देखें। और फेसबुक और ट्विटर पर भी इतना कुछ लिखा जा चुका है कि लगता है पूरा विश्व इसे देख चुका है, सिवाय मेरे। और सब लोग मेरे पीछे इतना अधिक पड़े हैं कि लगता है कि फिल्म सिनेमाघरों में अब सिर्फ इसलिए चल रही है कि मैं उसे जल्दी से देख लूं।

फिल्म बहुत ही अधिक अच्छी है। अधिकतर लोगों की तरह मुझे भी बिना देखे ही पता चल गया है कि फिल्म बहुत ही अधिक अच्छी है। एक्चुअली, मुझे तो यह वाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर के अलावा गुप्ता जी ने भी बताया है कि फिल्म बहुत ही अधिक अच्छी है। फिल्म गुप्ता जी ने, और उन्हीं की तरह बहुत सारे लोगों ने भी नहीं देखी है। पर उन सब को भी बिना देखे ही पता है कि फिल्म बहुत ही अच्छी है। फिल्म इतनी अधिक अच्छी है कि उन्होंने इतनी अच्छी फिल्म पहले कभी नहीं देखी थी। 

कहते हैं, फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट है। नहीं, नहीं, पुराने जमाने की श्वेत श्याम फिल्म नहीं है। फोटोग्राफी तो रंगीन है परन्तु सारे चरित्र पूरे ब्लैक या व्हाइट हैं। यानी जो व्हाइट है वह पूरा व्हाइट है। बिल्कुल चकाचक सफेद, घड़ी डिटर्जेंट से धुला हुआ। और जो ब्लैक है, वह पूरी तौर पर ब्लैक है। श्याम, चारों ओर से काजल से पुता हुआ। काजल की कोठरी से निकला हुआ नहीं, खुद काजल ही है। और एक आदमी नहीं, पूरी की पूरी कौम काजल है। जो कौम काली है उसमें कहीं कोई सफेदी नहीं है। यह फिल्म इसीलिए महान है क्योंकि इतनी श्वेत और श्याम फिल्म पहले कभी, श्वेत और श्याम फिल्मों के दौर में भी नहीं बनी। जब प्राण और रंजीत काले बनते थे, तब भी नहीं।

सुना है, और सुना ही नहीं, वाट्सएप और फेसबुक पर देखा भी है कि लोग फिल्म देखते हुए रो रहे हैं, आंसू बहा रहे हैं। अंदर सिनेमा हॉल में रो रहे हैं और बाहर निकल कर उत्तेजित हो, जोर जोर से 'भारत माता की जय', 'वंदे मातरम्' और 'जय श्री राम' के नारे लगा रहे हैं। कुछ लोग महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू मुर्दाबाद के नारे भी लगा रहे हैं। बस जो एक मात्र कमी मुझे इस महान फिल्म में लगी वह यह है कि सिनेमा हॉल में या फिर उससे बाहर निकल रहे लोग 'मोदी' 'मोदी' नहीं चिल्ला रहे हैं। कुछ लोग वह कमी भी दूर कर दें, 'मोदी' 'मोदी' के नारे भी लगा दें, तो यह फिल्म सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फिल्म बन जाएगी।

फिल्म-शो में 'जय श्री राम' के नारे लग रहे हैं। यह जय श्री राम का नारा भी न अजीब बन गया है। अब इस फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' को ही देखो। फिल्म की कहानी में भगवान राम का कहीं कोई रोल नहीं है। पर लोग सिनेमा हॉल में और उसके बाहर जय श्री राम का नारा लगा रहे हैं। वास्तव में बीजेपी ने भगवान राम पर ये दो अहसान तो किए ही हैं। एक तो वे भगवान राम को लाए हैं। यह उन्हीं का चुनावी नारा था, 'जो राम को लाए हैं,..........'। अब वे कहां से लाए हैं, यह वे ही जानते हैं। और दूसरा कण कण में व्यापे राम को; राम-राम जी, सीता-राम, जै राम जी, जैसे प्यार भरे राम को जय श्री राम जैसे नफरत, उत्तेजना और हिंसा से भरे राम में बदल दिया है। अभी तीन दिन पहले भी होलिका दहन के समय भी हमारे मोहल्ले में 'जय श्री राम' के नारे गूंज रहे थे। होली खेलने घूम रहे लोग भी 'जय श्री राम' के नारे लगा रहे थे। जबकि होली के त्योहार का भगवान राम से कोई संबंध भी नहीं है। अभी तो भगवान राम देख ही रहे हैं कि ये स्वयं कहां तक गिरते हैं और मुझे भी कहां तक गिराते हैं।

लेकिन बात तो हम फिल्म की कर रहे थे बीच में भगवान राम आ गए। मुझ मैं यह बहुत बड़ी खराबी है कि सरकार-जी की तरह ही मैं भी विषय से भटक जाता हूं। तो विषय पर आते हैं, इस फिल्म पर आते हैं। यह फिल्म सिर्फ अच्छी ही नहीं, महान है। फिल्म की महानता इसमें निहित है कि शायद यह पहली फिल्म है जो नफरत फैलाती है। जो सच नहीं, सच के नाम पर सच की कहानी दिखाती है। यह फिल्म यह सच दिखाती है कि आधा अधूरा सच पूरे सच से कितना अधिक खतरनाक होता है।

कश्मीरी पंडितों के साथ वास्तव में ही बहुत बुरा हुआ। जो उत्पीड़न हुआ वह अवर्णनीय है, अकल्पनीय है। किसी भी कौम को उसकी जड़ों से उखाड़ दिया जाए, यह निंदनीय है। लेकिन सरकार-जी क्या करें। सरकार-जी अब आठ साल से सरकार-जी हैं। कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ करा धरा तो है नहीं। अब ले दे कर एक फिल्म बनी है तो क्या सरकार-जी उसका भी लाभ न उठाएं! ठीक है कश्मीरी पंडितों को पीड़ा हुई तो क्या सरकार-जी उससे लाभ भी नहीं उठा सकते हैं? बीजेपी क्या उससे लाभ भी नहीं उठा सकती है?

अब सरकार ने पहली बार, हां पहली बार, इन बत्तीस साल में किसी सरकार ने पहली बार कश्मीरी पंडितों के लिए कुछ किया है। किया क्या है? सरकार ने अपने एक फिल्मकार से कश्मीरी पंडितों पर एक फिल्म बनवाई है। जब फिल्म बनवाई है तो क्या सरकार उसका फायदा भी न उठाए। यह भी कोई बात हुई। मतलब, क्या सरकार-जी और उनकी पार्टी बीजेपी इस फिल्म के बहाने हिंदू मुस्लिम भी न करें। अपना नफरत का एजेंडा भी न फैलाएं। नफरत फैला 'डिवाइड एंड रूल' न करें। लो जी, कर लो बात। एक तो फिल्म बनवाएं। फिर टैक्स फ्री कर उसे लोगों को कम पैसों में दिखलाएं। सिनेमा हॉल की महंगी टिकटों से लोगों को निजात दिलवाएं। मंत्री, मुख्यमंत्री तो छोड़ो, सरकार-जी तक फिल्म की बढ़ाई करें। और फिल्म से फायदा तक न उठाएं। ऐसे तो दुनिया चल ली। ऐसे तो सरकार-जी ने और बीजेपी ने देश पर शासन कर लिया।

सरकार-जी को बहुत सी बातें फिल्मों से ही पता चलती हैं। सरकार-जी को कश्मीरी पंडितों के बारे में भी 'द कश्मीर फाइल्स' से ही पता चला है। अब पता चला है तो कुछ करेंगे भी। ऐसे ही सरकार-जी को तो गांधी जी के बारे में भी तब तक बिल्कुल भी नहीं पता था जब तक 'गांधी' फिल्म नहीं आई थी। या फिर पता भी था तो सिर्फ इतना पता था कि गांधी जी वह व्यक्ति थे जिनकी हत्या गोडसे ने की थी। चलो, फिल्मों से ही सही, झूठा-सच्चा ही सही, सरकार-जी को कुछ पता तो चलता है। अरे, जो पढ़ेगा लिखेगा नहीं, उसे इतिहास भी तो फिल्मों और वाट्सएप यूनिवर्सिटी से ही पता चलेगा। भई कोई महंगाई, बेरोज़गारी, गरीबी पर भी फिल्म बना दे, जिससे सरकार-जी को इन चीजों का भी पता चल सके।

फिल्म अपना मतलब बहुत कुछ भूल भूल कर पूरा करती है। सच कहने के चक्कर में फिल्म यह सच्चाई भूल जाती है कि अनेकों मुसलमानों ने कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम का विरोध किया था और आतंकवादियों ने उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया था। फिल्म निर्देशक भूल जाते हैं कि जिस समय यह घटना हुई उस समय केन्द्र में बीजेपी समर्थित सरकार थी, राज्य में भी राष्ट्रपति शासन लागू था और बाद में बीजेपी की सरकार में मंत्री बने, आरएसएस के जगमोहन कश्मीर के राज्यपाल थे। फिल्म निर्माता को यह भी याद नहीं है कि अब तो पिछले आठ साल से केंद्र में और कश्मीर में भी बीजेपी का ही शासन है। पर कश्मीरी पंडित, वे वहीं के वहीं हैं। फिल्म सरकार-जी को इसीलिए भी अच्छी लगी क्योंकि जो दिखाया गया है वह तो उन्हें अच्छा लगा ही, जो कुछ भूला गया है वह उन्हें और भी अधिक अच्छा लगा।

जिस तरह से 'द कश्मीर फाइल्स' अच्छी फिल्म है उसी तरह से 'द ताशकंद फाइल्स' भी एक अच्छी फिल्म थी। अब तो इस 'फाइल्स' सीरीज के निर्माता-निर्देशक से यह गुजारिश है कि 'द कश्मीर फाइल्स' की तरह ही गुजरात में हुए मुसलमानों के जीनोसाइड पर एक फिल्म 'द गुजरात फाइल्स' बना दे। और हां, जैसे शास्त्री जी की संदेहास्पद मृत्यु पर 'द ताशकंद फाइल्स' बनाई थी वैसे ही एक और संदेहास्पद मौत पर एक फिल्म 'द जस्टिस लोया फाइल्स' बना दे।

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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