अमरीकी कर्ज संकट - सामाजिक कल्याण की मदों में कटौती के जरिए हुआ समाधान
1917 से जैसी रवायत है अमरीकी संघीय सरकार द्वारा लिए जा सकने वाले कर्ज की सीमा पर संकट का बड़ा हौवा खड़ा करने के बाद आखिर अमरीकी राजनीति की दोनों प्रमुख पार्टियों ने खर्च में कटौती के समझौते के जरिए इसका समाधान निकाल लिया। यह समाधान है सामाजिक कल्याण की मदों पर खर्च में भारी कटौती। इस समाधान से अमरीकी शासक वर्ग के विभिन्न धडे फिलहाल संतुष्ट हैं और उम्मीद जताई जा रही है कि अगले दो साल अर्थात नए राष्ट्रपति के सत्ता संभालने के पहले फिर से यह संकट खड़ा नहीं होगा।
इस बार-बार आने वाले कर्ज संकट की वजह है कि अमरीकी संसद विभिन्न मदों में खर्च की रकम तो तय करती है मगर इसके लिए टैक्स व अन्य राजस्व के जरिए पर्याप्त रकम की व्यवस्था नहीं करती। उल्टे पिछले 4 दशक के नवउदारवादी दौर में तो अमीरों और उद्योगपतियों को निरंतर टैक्स में एक के बाद एक बड़ी छूटें दी गईं हैं। साथ ही कॉर्पोरेट के लिए टैक्स चोरी बहुत आसान बना दी गई है। गूगल, एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी बड़ी कंपनियां अपनी अधिकांश आय को अनिवासी आय दिखा कर अमरीका में लगभग नहीं के बराबर टैक्स चुकाती हैं।
टैक्स व अन्य राजस्व के जरिए खर्च की रकम जुटाने के बजाय अमरीकी संसद राष्ट्रपति को बॉन्ड बिक्री के जरिए कर्ज से खर्च की रकम जुटाने की अनुमति देती है। लेकिन इस कर्ज के लिए भी एक सीमा तय कर देती है जो फिलहाल 31.4 ट्रिलियन डॉलर है। टैक्स न चुकाने वाले बड़े पूंजीपति अपनी वही टैक्स से बचाई रकम अमरीकी सरकार को कर्ज के तौर पर देते हैं और ब्याज पाते हैं। इस प्रकार सरकार को आम लोगों से जो टैक्स मिलता है या शुल्कों से जो आय होती है उसका एक बड़ा हिस्सा भी कर्ज पर ब्याज के रूप में इन्हीं अमीरों के पास चला जाता है। यह कर्ज और इस पर ब्याज लगातार बढ़ता जाता है। अतः हर एक-दो साल में कर्ज की पुरानी सीमा पार होने के करीब आ जाती है। 1945 के बाद ही 50 बार से अधिक ऐसा हो चुका है। इस सीमा को बढ़ाने के लिए संसद में दोनों पार्टियों को जो कानून पारित करना होता है उसके जरिए अमरीकी आर्थिक नीति की दिशा प्रभावित होती है खास तौर पर तब जब दोनों सदनों में सत्ताधारी पार्टी का बहुमत न हो, जैसे फिलहाल निचले सदन में विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत है।
इसी कर्ज संकट की वजह से बाइडन ने दो सप्ताह पहले अपनी ऑस्ट्रेलिया यात्रा व क्वाड शिखर बैठक तक रद्द कर दी थी। हर कुछ साल में आने वाला यह कर्ज संकट अमरीकी शासक वर्ग द्वारा जनता को भरमाने में दिखाई जाने वाली चालाकी का बडा दर्शनीय नजारा होता है। दोनों शासक पार्टी और कॉरपोरेट मीडिया मिलकर ऐसा भय का माहौल बना देते हैं कि बस अमरीका दिवालिया होकर आर्थिक संकट के गहरे गड्ढे में गिरने वाला है। पूरा मीडिया महीनों पहले से बताने लगता है कि यह कर्ज सीमा नहीं बढ़ाई गई तो इतने विभाग बंद हो जाएंगे, बड़ी तादाद में रोजगार में समाप्त हो जाएंगे, इतने सारे लोगों को पेंशन मिलनी बंद हो जाएगी और कितने सारे कर्मियों को बिना वेतन भुगतान काम करना पड़ेगा, इतने सारे अस्पताल बंद हो जाएंगे, इतने स्कूल बंद हो जाएंगे, अमरीकी सुरक्षा को भी खतरा पैदा हो जाएगा, वगैरह।
ठीक इसी स्थिति कोई न कोई पक्ष बढ़ते सार्वजनिक कर्ज पर चिंता जताते हुए खर्च में कटौती की माँग पेश करता है। इस मांग का मीडिया, विशेषज्ञों व अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा तबका समर्थन करता है और बताता है कि बजट घाटे में कटौती क्यों जरूरी है, हालांकि जब पूंजीपतियों को खरबों डॉलर की टैक्स छूट व रियायत दी जाती हैं तब कभी कर्ज संकट याद नहीं आता। इनमें से कोई यह भी नहीं बताता कि अमरीका का युद्ध बजट इतना अधिक क्यों है और उससे बजट घाटे में वृद्धि क्यों नहीं होती। कुल मिलाकर कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा पूरी तरह सेंसर किए गए अमरीकी सूचना तंत्र द्वारा ऐसा माहौल बना दिया जाता है कि कोई विकल्प ही नहीं है, कहीं तो कुछ तो खर्च में कटौती करनी ही पडेगी।
आखिर में समझौता होता है कि आम जनता के कल्याण के लिए जो खर्च के कुछ मद हैं उनमें कटौती कर दी जाए। दिखावे के लिए कुछ प्रतीकात्मक कटौती प्रशासनिक खर्च में भी होती है। पर इस साल के लिए बाइडन ने फौजी खर्च जब बढा कर 1 ट्रिलियन डॉलर से भी ऊपर किया था तो पूरे शासक वर्ग में किसी ने चिंता प्रकट नहीं की थी कि इस से भी बजट में कर्ज भुगतान का संकट पैदा हो सकता है।
इस बार भी यही पूरी पटकथा दोहराई गई है। समझौता इस पर हुआ है कि पहले ही 1 ट्रिलियन डॉलर पहुंच चुके युद्ध खर्च के बजट में कटौती के बजाय और भी वृद्धि की जाएगी। साथ ही यह भी शर्त लगा दी गई है कि कॉर्पोरेशन्स व अमीर व्यक्तियों पर टैक्स दरें बढ़ाने का कोई प्रस्ताव सरकार पेश नहीं करेगी। इसके अतिरिक्त अमरीकी टैक्स एजेंसी इंटर्नल रेवेन्यू सर्विस टैक्स चोरी पकड़ने और कर वसूली बढ़ाने वाले कदमों पर जो 10 अरब डॉलर खर्च करने वाली थी, वह अब नहीं किया जाएगा।
इसके बजाय मेडिकेयर की स्वास्थ्य सेवा, गरीब छात्रों के लिए शिक्षा खर्च में मदद, सामाजिक सुरक्षा मदों, पूर्व सैनिकों की देखभाल, बच्चों के पोषण पर खर्च, छात्रों द्वारा उच्च शिक्षा के खर्च हेतु लिए कर्ज में राहत, कैंसर शोध, स्वच्छ ऊर्जा, आदि के मदों में 2024 में कोई वृद्धि नहीं होगी और 2025 में मात्र 1% वृद्धि की जाएगी। साफ है कि 5-10% जैसी ऊंची महंगाई दर के दौर में इन मदों के बजट में प्रभावी रूप से 10% से अधिक की कटौती हो जाएगी। यह भी तय हुआ है कि बेरोजगारी, गरीबी की वजह से जिन लोगों को भुखमरी का सामना करने के कारण सरकार से कुछ फूड स्टैम्पस की मदद मिलती है उन पर अब काम करने की सख्त शर्त की उम्र बढ़ाकर 49 वर्ष से 54 वर्ष कर दी जाएगी। हालांकि तथ्य यह है कि काम न मिलने के कारण ही तो ये भूख में मदद के लिए सरकारी मदद लेने के लिए मजबूर हुए हैं तो उसी काम की शर्त लगा देने पर इन्हें इस मदद से भी वंचित होना पड़ेगा।
साफ है कि एक और कर्ज संकट के बहाने अमरीकी शासकों की दोनों पार्टियों ने समाज कल्याण के कार्यों की मदों पर खर्च घटा दिया है और मीडिया द्वारा इसे एक भयंकर संकट के समाधान के रूप में राहत की सांस बता कर इस पर उठने वाले सवालों को किनारे कर दिया जाएगा। दोनों पार्टियों को अपने वोटरों को भी अपने वादे पूरे न करने पर जवाब से बचने का अच्छा बहाना मिल जाएगा - आखिर राष्ट्रहित के लिए कुछ तो बलिदान देना ही पड़ता है न? राष्ट्रपति जो बाइडेन से लेकर बर्नी सैंडर्स व रिपब्लिकन नेता तक सभी अपने वोटरों को अपने वादे तोड़ने के लिए इसके जरिए जवाब दे सकते हैं। नोम चोम्स्की के ‘मैनुफैक्चर्ड कॉन्सेंट’ का उत्कृष्ट उदाहरण है यह ऐसे देश में जहां कॉर्पोरेट पूंजी ने सेंसरशिप को एक अत्यंत उच्च स्तर पर पहुंचा दिया है।
कुल मिलाकर देखें तो शासक वर्ग का एक बडा पैंतरा होता है 'संकट' खडा कर प्रश्न को इस तरह प्रस्तुत कर देना जैसे उसके बताए विकल्पों में से किसी एक को न चुना जाए तो आसमान टूट पडेगा, जबकि वास्तविक समाधान होता ही इन विकल्पों के बाहर है। ऐसे ही हमारे देश में भी शिक्षा-स्वास्थ्य पर खर्च को टैक्स पेयर के पैसे की बरबादी बताते हुए कहा जाता है कि सरकार सबके लिए शिक्षा स्वास्थ्य की व्यवस्था करेगी तो 'विकास' के लिए धन कहां से आएगा? लेकिन पूंजीपतियों को लाखों करोड़ की कर्ज माफी और टैक्स छूट देते हुए 'विकास' हेतु पैसे की कमी का जिक्र तक नहीं होता। तब कोई नहीं कहता कि जिस पूंजीपति ने कर्ज या टैक्स नहीं चुकाया उसकी संपत्ति जब्त कर वसूल करो नहीं तो 'विकास' के लिए पैसा कम पड जाएगा।
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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