दुनिया: राज्य द्वारा किया जाने वाला दमन महामारी की आड़ में हुआ तेज़
(पीपल्स डिस्पैच आपके लिए 2020 में हुए घटनाक्रमों पर लेखों और वीडियो की एक श्रृंखला लेकर आया है। 2020 एक उथल-पुथल भरा साल रहा, जिसमें हमने मानवता के सामने आए अभूतपूर्व संकट देखे। यहां जन आंदोलनों द्वारा पेश किया गया ऐतिहासिक प्रतिरोध आशा की किरण बना, इस प्रतिरोध में सेवा और भाईचारे की खूब झलकियां देखी गईं। इन जन आंदोलनों ने एक बार फिर जताया है कि हमारे सामूहिक संघर्ष से ही उत्पीड़न और अत्याचार का अंत हो सकता है। आप इस पूरी श्रृंखला को यहां पढ़ सकते हैं)
2020 के साल को लंबे-लंबे लॉ़कडाउन की वज़ह से याद रखा जाएगा। इस साल कोरोना वायरस जंगल की आग की तरह फैलता गया। इसके साथ ही वायरस के प्रसार को रोकने के लिए लाखों लोगों को उनके घरों में कैद कर दिया गया। हॉस्पिटल, स्वच्छता संयंत्रों, किराना दुकानों, खेतों, सुविधा केंद्रों और दूसरे 'फ्रंट लाइन' पर तैनात लाखों कर्मी अपने काम की जगह पर रहने को मजबूर हुए।
इस प्रतिकूल स्थिति में महामारी से निपटने के लिए सरकारी और राजनीतिक नेताओं ने राष्ट्रीय एकजुटता की खोखली अपीलें कीं। कुछ सरकारों को बहुत थोड़े सी राहत देने के लिए मजबूर होना पड़ा, इनमें किराये पर तात्कालिक स्थगन, कर्ज अदायगी में राहत और कई बार पहले बर्बाद कर दिए गए राष्ट्रीय स्वास्थ्य ढांचे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाना शामिल था। लेकिन ज़्यादातर देशों में राष्ट्रीय एकजुटता का यह हनीमून ज़्यादा लंबे वक़्त तक नहीं चला।
कई देशों में, खासकर वे देश जहां असहमति को दबाने, विरोध प्रदर्शन के आपराधिकरण का लंबा इतिहास रहा है, वहां महामारी और लॉकडाउन का इस्तेमाल सरकारों ने समाज पर अपनी पकड़ को मजबूत करने के लिए बहाने के तौर पर किया। इसके लिए ऐतिहासिक "राज्य के दुश्मनों" और वे सभी लोग जो विरोध प्रदर्शनों को सड़कों तक ले जा रहे थे, उनके खिलाफ़ अभूतपूर्व तरीके से उत्पीड़न का कार्यक्रम चलाया गया।
मनचाही और चयनात्मक गिरफ़्तारियों को अंजाम देने के लिए लॉकडाउन ने बिलकुल सही स्थितियां उपलब्ध करवाईं। इस तरह की चयनात्मक आपराधिकरण की कार्रवाई के खिलाफ़ बड़े आंदोलन की संभावना को लॉकडाउन ने कमजोर कर दिया। भारत, थाईलैंड, कोलंबिया, फिलिस्तीन, अमेरिका और दूसरे देशों में हमने बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष का माद्दा दिखाने वालों के खिलाफ़ राज्य के उत्पीड़न में तेज बढ़ोत्तरी देखी।
भारत
भारत में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने राजनीतिक विरोधियों और अल्पसंख्यकों पर अपनी अत्याचार भरी कार्रवाईयां जारी रखीं और कोविड-19 से संबंधित लॉकडाउन को अपने जन-विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया। इस साल की शुरुआत में सरकार उन लोगों के साथ खड़ी रही, जो नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे लोगों के खिलाफ़ जहरीला कैंपेन चला रहे थे। इस कैंपेन की अंतिम परिणिति राजधानी दिल्ली में हुई बड़े स्तर की हिंसा के तौर पर हुई। सरकार ने हिंसा और कोविड-19 के प्रसार का इस्तेमाल महीनों से चल रहे प्रदर्शनों को खत्म करने के लिए किया, इतना ही नहीं गृहमंत्री अमित शाह की निगरानी में दिल्ली पुलिस ने नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने वाले कई नेताओं को निशाना बनाया और उनकी गिरफ़्तारी की। उन्हें हिंसा के लिए ज़िम्मेदार बताया गया। इनमें से ज़्यादातर नेताओं पर कुख्यात आंतक रोधी कानून, "गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA)" के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। बीजेपी की सरकार वाले उत्तरप्रदेश में भी प्रदर्शनकारियों पर इसी तरह की कार्रवाई की गई।
नताशा नरवाल, देवांगना कलिता, शर्जील इमाम जैसे छात्र नेताओं और उमर खालिद, इशरत जहां, खालिद सैफी, सफूरा जरगर और कफ़ील खान समेत अन्य राजनीतिक एक्टिविस्ट को दिल्ली दंगों में उनकी कथित भूमिका के लिए गिरफ़्तार किया गया। इनमें से ज़्यादातर लोग महीनों से जेल में हैं, जबकि उन पर औपचारिक तरीके से अब तक चार्ज भी नहीं लगाए गए हैं।
मोदी सरकार ने लॉकडाउन का इस्तेमाल गौतम नवलखा जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार, आनंत तेलतुंबड़े जैसे शोधार्थी की गिरफ़्तारी के लिए भी किया। उन्हें अप्रैल में इसी भयावह UAPA कानून के तहत गिरफ़्तार किया गया। यह गिरफ़्तारी भीमा कोरेगांव केस में उनकी कथित भूमिका को लेकर हुई है। सरकार ने इसी केस में अक्टूबर के महीने में 83 साल के मानवाधिकार कार्यकर्ता स्टेन स्वामी को गिरफ़्तार कर लिया। इसी तरह 2018 से जेल में बंद 79 साल के वरवर राव और 90 फ़ीसदी अपंग हो चुके व जेल में बंद जी एन साईबाबा के मामलों ने भी चिंताएं बढ़ाई हैं। इन सभी मामलों में सरकार और कोर्ट ने परिवार वालों की इन लोगों की बड़ी उम्र और कोरोना संक्रमण को लेकर जेल में उनकी संवेदनशीलता से संबंधित चिंताओं को नज़रंदाज किया है।
कुछ दूसरे मामलों में कोर्ट ने पुलिस और सरकार द्वारा पेश किए गए तर्कों को माना है और बेल देने के लिए तय प्रक्रिया और स्थापित मापदंडों को नज़रंदाज किया है। पुलिस और सरकार ने मीडिया, जिसमें पारंपरिक और सोशल मीडिया दोनों ही शामिल हैं, उनके ज़रिए, सरकारी नीतियों का विरोध करने वाले इन एक्टिविस्ट और पत्रकारों को "अर्बन नक्सल" और "देशद्रोही" के तौर पर प्रस्तुत करने वाले कैंपेन को चलाने के लिए किया है।
फिलिस्तीन
2020 में आत्म-निर्णय (सेल्फ डिटर्मिनेशन) के अपने संघर्ष में फिलिस्तीन को नेतन्याहू के नेतृत्व वाले यहूदी शासन से और भी ज़्यादा प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ा है। नेतन्याहू के प्रशासन ने अपनी मित्र साम्राज्यवादी शक्तियों से करीबी संबंधों का इस्तेमाल कब्जाए गए वेस्ट बैंक के एक तिहाई हिस्से के औपचारिक विलय की धमकी देने के लिए किया। ट्रंप द्वारा प्रसारित "डील ऑफ द सेंचुरी" के ज़रिए यह कोशिश की गई है। साथ में इज़रायल ने कुछ अरब देशों के साथ "सामान्यीकरण समझौतों" के ज़रिए फिलिस्तीनी लोगों को विस्तृत अरब दुनिया से काटने की कोशिश की है।
इस साल कई मासूम फिलिस्तीनियों का कत्ल किया गया। 32 साल के इयाद हलाक, 27 साल के अहमद इरेकत, 29 साल के मुस्तफा अबू याकूब और 13 साल के अली अयमान अबू आलिया की हत्याओं की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा हुई। यूएन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने अबू आलिया की हत्या की निंदा की और स्वतंत्र जांच की मांग की। उन्होंने चिंता जताते हुए कहा कि "हाल के सालों में फिलिस्तीनी बच्चों की हत्याओं की जवाबदेही की कमी से हम गंभीर तौर पर चिंतित हैं।" विशेषज्ञों ने आगे बताया अबू आलिया छठवां बच्चा है, जिसकी इज़रायल ने जिंदा हथियारों के ज़रिए 2020 में हत्या की है। उन्होंने बताया कि 1 नवंबर, 2019 से 31 अक्टूबर, 2020 के बीच इज़रायल द्वारा कब्ज़ाए गए फिलिस्तीनी क्षेत्र में 1048 फिलिस्तीनी बच्चों को इज़रायल के सुरक्षाबलों ने घायल कर दिया।
इज़रायल की सत्ता ने कोविड-19 महामारी का इस्तेमाल फिलिस्तानी एक्टिविस्ट, जिनमें कई छात्र और स्वतंत्रता सेनानी शामिल थे, उन्हें गिरफ़्तार करने और गैरकानूनी तरीके से हिरासत में लेने के लिए किया। जबकि जेलों में महामारी के लेकर पहले ही चिंताएं जताई जा रही थीं। इज़रायल ने कई फिलिस्तीनी घरों को तबाह कर दिया और राज्य की ताकत और कब्ज़ा करने वाली फौज़ का इस्तेमाल करते हुए फिलिस्तीनी ज़मीन को कब्ज़ा करने की कार्रवाई जारी रखी। साथ ही अवैधानिक बसावटें और फौज की चौकियां लगाने के कार्यक्रम को आगे बढ़ाया, इसके लिए वैधानिक स्वामित्व वाले मालिकों को उस ज़मीन से हटाया गया।
कोलंबिया
पूरे लैटिन अमेरिका में कोलंबिया की अति दक्षिणपंथी इवान डुके की सरकार का मानवाधिकार हनन का इतिहास सबसे बदतर देशों में से एक रहा है। लॉकडाउन की आड़ में उनकी सरकार ने सामाजिक आंदोलनों पर अपने हमले तेज कर दिए, यहां तक कि उन आंदोलनों जिनमें सामाजिक नेताओं, मानवाधिकार रक्षकों और 2016 के शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों के नरसंहार की अपील की जा रही थी, उनकी तरफ अपनी आंखें बंद कर दीं।
इंस्टीट्यूट ऑफ डिवेल्पमेंट एंड पीस स्टडीज़ (INDEPAZ) की रिपोर्टों के मुताबिक़, देश में 2020 में 310 सामाजिक नेताओं और मानवाधिकार रक्षकों की हत्याएं हुई हैं। कुल 90 जनसंहार हुए, वहीं शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले 65 लोगों की हत्याएं हुई हैं। शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले यह लोग रेवोल्यूशनरी आर्म्ड फोर्सेज़ ऑफ कोलंबिया (FARC) के लड़ाके रह चुके थे।
ठीक इसी दौरान सामाजिक आंदोलनों का दमन और आपराधिकरण भी बेहद तेजी से बढ़ा है। इसके तहत निगरानी से लेकर सरकार के एजेंटों और 'पब्लिक फोर्स' के सदस्यों द्वारा सामाजिक कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न किया गया, उन पर साजिश रचने के आरोप लगाते हुए कई कार्यकर्ताओं को जेलों में बंद कर दिया गया। इसका एक हालिया उदाहरण 15 और 16 दिसंबर को देखने को मिला, जब तीन ऐतिहासिक कृषि नेताओं- टियोफिलो एक्यूना, एडेल्सो गैलो और रॉबर्ट डाज़ा को गिरफ़्तार कर लिया गया। एटॉर्नी जनरल द्वारा उन पर एक हथियारबंद गुरिल्ला समूह का हिस्सा होने का आरोप लगाया गया है। तीनों नेताओं के पक्ष में एक लंबा आंदोलन चला, जिसमें बताया गया कि किसान नेता और अपनी ज़मीन और मानवाधिकार के रक्षकों के तौर पर काम करना कोई अपराध नहीं है।
कोलंबिया की राजधानी बोगोटा में सितंबर की शुरुआत में बड़े स्तर के प्रदर्शन हुए। यह प्रदर्शन पुलिस द्वारा जेवियर ऑरडोनेज़ की हत्या के खिलाफ़ हुए थे। इन प्रदर्शनों का भी सुरक्षाबलों ने बेहद क्रूरता के साथ दमन किया। इस हिंसात्मक कार्रवाई में 13 लोगों की मौत हो गई (बोगोटा में 10 और सोशा में 3), वहीं 65 लोग गंभीर तौर पर गोलीबारी में घायल हो गए। कुल मिलाकर 400 लोग घायल हुए, वहीं सैकड़ों लोगों को मनमाने ढंग से हिरासत में ले लिया गया।
थाईलैंड
थाईलैंड में यह साल एक सैनिक द्वारा बड़े स्तर की गोलीबारी में 30 लोगों की हत्या को अंजाम देकर लोकतंत्र और लोकप्रिय इच्छाशक्ति पर हमले के साथ शुरू हुआ। इस हमले में दर्जनों लोग घायल हो गए, वहीं एक संवैधानिक कोर्ट ने सेना के समर्थन वाली प्रयुत चान-ओ-चा की सरकार की इच्छा पर एक मुख्य विपक्षी पार्टी का विघटन कर दिया।
अगले कुछ महीने तक लोकतांत्रिक संस्थानों का दमन होता रहा, यह तब तक चलता रहा, जब तक राजधानी बैंकॉक और दूसरी जगह विरोध प्रदर्शन शुरू नहीं हो गए। इन प्रदर्शनों में छात्र समूहों से लेकर ट्रेड यूनियनों तक, समाज के सभी तबकों के लोगों ने हिस्सा लिया। इन प्रदर्शनों में नागरिक सरकार पर सेना के नियंत्रण को समाप्त करने, राजशाही के पक्ष में बनाए गए खास नियमों को ख़त्म करने और कार्यकर्ताओं-पत्रकारों का दमन रोकने की मांगें रखी गईं। लेकिन यहां विडंबना यह रही कि प्रदर्शनकारियों को जो मांगें थीं, सरकार ने उनका बिलकुल उल्टा किया। सरकार ने अचानक आपातकाल की घोषणा कर दी, कई प्रदर्शनकारियों पर "राजशाही के अपमान" संबंधी मुक़दमे दायर कर दिए गए, यहां तक कि प्रदर्शनों की रिपोर्टिंग कर रहे मीडिया संस्थानों पर भी मुक़दमे दायर कर दिए गए। लेकिन इसके बावजूद भी आंदोलन जारी रहा और आने वाले साल भी यह मजबूत होता रहेगा।
फिलिपींस
फिलिपींस में राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते के शासनकाल में दमन जारी रहा। साल 2020 की शुरुआत सरकार और कम्युनिस्ट विद्रोहियों की बीच शांति स्थापना के साथ हुई थी, लेकिन जैसे-जैसे साल बढ़ता गया, यह धीरे-धीरे भंग होती गई। मीडिया पर हुए हमले खासतौर पर उल्लेखनीय हैं, रैपलर में काम करने वाले मशहूर पत्रकार मारिया रेसा और उनके एक साथी को सजा सुनाई गई, राष्ट्रीय प्रसारणकर्ता ABS-CBN बंद हो गया और एक क्षेत्रीय रेडियो पत्रकार विरजिलियो मैग्नेस की हत्या कर दी गई। फिलिपींस के लोगों को कोरोना महामारी के दौर में भी बेहद दमनकारी सरकार को झेलना पड़ा, जिसने नए आतंक-रोधी कानूनों को लागू किया। नागरिक समाज समूहों ने अपने कार्यकर्ताओं की जान को ख़तरा बताते हुए रक्षा की गुहार लगाईं थीं, इसके बावजूद भी इस साल राजनीतिक हत्याएं जारी रहीं। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं और मैदानी नेताओं की कोशिशों ने रास्ता भी निकाला, हाल में अतंरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय के मुख्य अभियोजक की एक हालिया रिपोर्ट में सरकार को उसके नशा-रोधी अभियान के दौरान मानवता के खिलाफ़ अपराधों का दोषी बताया गया।
पोलैंड
पोलैंड में कंजर्वेटिव लॉ एंड जस्टिस (PiS) पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने 2020 में अपनी प्रतिगामी, महिला-विरोधी नीतियों और कम्यूनिस्टों का दमन बिना थके जारी रखा। पूर्व शक्ति हासिल करने की कोशिश के तहत PiS सरकार ने कोरोना महामारी के बीच मई में राष्ट्रपति चुनावों का ऐलान कर दिया। लेकिन लोगों के बीच बड़े स्तर की नाराज़गी से सरकार को चुनावों को आगे बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा और जब 12 जुलाई को चुनाव हुए, तो PiS समर्थित एंड्रजेज़ अपने विपक्षी उदारवादी प्रतिद्वंदी से सिर्फ़ दो फ़ीसदी मतों से जीतने में कामयाब रहे।
PiS सरकार के "महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा और घरेलू हिंसा की यूरोपीय संधि", जिसे लोकप्रिय तौर पर इस्तांबुल कंवेशन के नाम से जाना जाता है, उससे बाहर आने के फ़ैसले के खिलाफ़ महिला समूहों, लेफ़्ट और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने बड़े स्तर पर प्रदर्शन किए। अक्टूबर में पोलैंड के संवैधानिक कोर्ट ने भ्रूण गड़बड़ी की स्थिति में गर्भपात को अंसवैधानिक करार दे दिया। पोलैंड के लेफ़्ट संगठनों, महिला समूहों और दूसरे प्रगतिशील वर्ग ने इस फ़ैसले की निंदा की और इसे महिलाओं के खिलाफ़ जंग बताया और पूरे देश में प्रदर्शन शुरू कर दिए। पूरे साल पोलैंड में महिला समूह और प्रगतिशील PiS सरकार की निरंकुशता के खिलाफ़ बिना थके संघर्ष करते रहे, उन्होंने बहादुरी से पुलिसिया कार्रवाई और अति दक्षिणपंथी असामाजिक तत्वों के उत्पीड़न का सामना किया।
अमेरिका
अमेरिका में 2020 इतिहास के सबसे बड़े प्रदर्शनों में से एक विरोध प्रदर्शन का गवाह बना। मिनेपोलिस में 25 मई को जॉर्ज फ्लॉयड की नस्लभेदी हत्या के विरोध में तमाम छोटे-बड़े शहरों और कस्बों से लाखों लोग सड़कों पर आ गए। इन लोगों का विरोध उस नस्लभेदी व्यवस्था के ख़िलाफ़ भी था, जो इस तरह की हिंसक कार्रवाईयों को जन्म देती है और इन्हें अंजाम देने वालों को सुरक्षा प्रदान करती है। इस आंदोलन का केंद्रीय नारा "ब्लैक लाइव्स मैटर्स" पूरी दुनिया में गूंजा, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, फ्रांस और ब्रिटेन में भी पुलिसिया हिंसा के पीड़ितों को न्याय देने और नस्लभेद को ख़त्म करने के लिए ढांचागत बदलावों की मांग के साथ प्रदर्शन हुए।
लेकिन इस बड़े आंदोलन का भी कठोरता से दमन किया गया। पूरे सोशल मीडिया पर महीनों के प्रदर्शन के दौरान ऐसी कई तस्वीरें आती रहीं, जिनमें स्थानीय और संघीय पुलिस अधिकारी प्रदर्शनकारियों पर हमला करने के लिए हिंसा और ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं। पुलिस अधिकारियों ने आंसू गैस, लाठियों और रबर की गोलियां का इस्तेमाल किया, जिनसे सैकड़ों प्रदर्शनकारी और प्रेस के सदस्य घायल हुए।
फिलाडेल्फिया जैसे कुछ शहरों में नागरिक अधिकार समूहों ने नगर प्रशासन के खिलाफ़ ताकत के जरूरत से ज़्यादा इस्तेमाल और नस्लभेदी व सैन्यवादी पुलिस कार्रवाई का आरोप लगाते हुए मुक़दमे दायर किए।
लेकिन यह दमन सिर्फ़ हिंसक पुलिस हमलों तक ही सीमित नहीं था। रिपोर्टों के मुताबिक़, 300 से ज़्यादा प्रदर्शनकारियों पर संघीय अपराधों का आरोप लगाते हुए मामले दर्ज किए गए। नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने बताया है कि आरोपों में से ज़्यादातर कानून व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियों द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए दावे हैं या फिर पूरी तरह यह मनगढंत आरोप हैं। 18 सितंबर को कोलाराडो के डेनवर में "पार्टी फॉर सोशलिज़्म और लिबरेशन (PSL)" के तीन कार्यकर्ताओं- लिलियन हॉउस, एलिज़ा लुसेरो और जोएल नॉर्थम को शांति भंग करने जैसे असभ्य व्यवहार से लेकर अपहरण, दंगा जैसे गंभीर अपराधों का आरोप लगाते हुए गिरफ़्तार कर लिया गया। यह सामाजिक कार्यकर्ता डेनवर में नस्लभेद विरोधी आंदोलन में पहली पंक्ति में शामिल थे। यह लोग 24 अगस्त, 2019 को ऑउरोरा (डेनवर के पास का का शहर) पुलिस विभाग द्वारा मारे गए एलाइजा मैक्क्लेन के लिए न्याया की मांग रहे थे। एक हफ़्ते जेल में बिताने के बाद उन्हें बॉन्ड के आधार पर रिहा कर दिया गया, लेकिन अब तक डिस्ट्रिक्ट एटॉर्नी ने धाराएं नहीं हटाई हैं।
यह साल राजनीतिक बंदी जूलियन असांज को रिहा करने के संघर्ष के लिए भी अहम है। जूलियन असांज की प्रत्यर्पण सुनवाई की शुरुआत सितंबर में लंदन के सेंट्रल क्रिमिनल कोर्ट (ओल्ड बैली) में हुई। यह मामला प्रेस की स्वतंत्रता के बुनियादी सवाल से जुड़ा हुआ है, लेकिन इसकी शुरुआत ही सेंसरशिप से हुई, जहां मामले में सुनवाई कर रहीं जज वेनेसा बराइस्टर ने दूरदराज से ट्रॉयल में शामिल होने वाले लोगों में से 40 आवेदकों को बाहर रखा। 4 हफ़्ते की सुनवाई के दौरान तीन दर्जन विशेषज्ञ गवाहों की गवाही हुई, इसमें केस के कई पहलुओं को शामिल किया गया, जिसमें असांज की मानसिक हालत से लेकर अमेरिका में उन पर लगाई गई धाराओं की राजनीतिक प्रवृत्ति और अगर उनका प्रत्यर्पण किया जाता है, तो उनके साथ दुर्व्यवहार और उत्पीड़न की संभावना जैसी बातें शामिल थीं। जज वेनेसा बराइस्टर को 4 जनवरी, 2021 को अपना फ़ैसला सुनाना है। सुनवाई पूरी होने के बाद से अब तक असांज को बेलमार्श की जेल में रखा गया है, क्योंकि उन्हें बेल नहीं दी गई।
दुनिया के कई बड़े नेताओं और अहम शख्सियतों के साथ-साथ सामाजिक आंदोलनों ने असांज को समर्थन दिया है और उनके प्रत्यर्पण और सजा के खिलाफ़ आवाज उठाई है। इन लोगों में ब्राजील के पूर्व राष्ट्रपति रह चुके लुइज़ इंसियो लूला दा सिल्वा, डिल्मा रुसेफ, इक्वाडोर के पूर्व राष्ट्रपति राफेल कोर्रिया, रोजर वाटर्स, जरमी कॉर्बिन, नोऑम चॉमस्की, अर्जेंटीना के राष्ट्रपति अल्बर्टो फर्नांडेज़ और कई दूसरे लोग शामिल हैं।
अब्दुल रहमान, अनीश आर एम, मोहम्मद शबीर और जोए पीसी से योगदान के साथ।
इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
Under the Cover of the Pandemic, States Cracked Down Even Harder
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।