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वामिक़ जौनपुरी : वक़्त का फ़रमान जब आता है बन कर इंक़िलाब

23 अक्टूबर, शायर वामिक़ जौनपुरी के जन्मदिन पर विशेष: ‘‘भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल’’ वह नज़्म है, जिससे वामिक़ जौनपुरी की शोहरत रातों रात पूरे मुल्क में फैल गई। साल 1944 में लिखी गई इस नज़्म ने उन्हें एक नई पहचान दी।
Wamiq Jaunpuri

साल 1943 में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। यह सदी का सबसे बड़ा अकाल था। इस अकाल में उस वक़्त एक आंकड़े के मुताबिक करीब तीस लाख लोग भूख से मारे गए थे। वह तब, जब मुल्क में अनाज की कोई कमी नहीं थी। गोदाम भरे पड़े हुए थे। बावजूद इसके लोगों को अनाज नहीं मिल रहा था। एक तरफ लोग भूख से तड़प-तड़पकर मर रहे थे, दूसरी ओर अंग्रेज़ हुकूमत के कान पर जूं तक नही रेंग रही थी। बंगाल के ऐसे भयावह माहौल और अवाम के जानिब सरकार की संवेदनहीनता पर बंगालवासियों की मदद के लिए बड़ी संख्या में आगे आए लेखक-कलाकार। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से जुड़े इन लेखक-कलाकारों ने अपने रचनाकर्म और रंगकर्म से न सिर्फ़ देशवासियों तक बंगाल के लोगों का दुःख-दर्द और उनकी समस्याओं को पहुंचाया, बल्कि उनकी मदद करने की ग़रज़ से पूरे देश में चंदा भी इकट्ठा किया।

‘‘भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल’’ वह नज़्म है, जिसमें बंगाल के उस वक़्त के अमानवीय और संवेदनहीन हालात की जैसे पूरी तर्जुमानी है। और इस नायाब नज़्म के लेखक हैं, शायर वामिक़ जौनपुरी। इस अकेली नज़्म से वामिक़ जौनपुरी की शोहरत रातों रात पूरे मुल्क में फैल गई। साल 1944 में लिखी गई इस नज़्म ने उन्हें एक नई पहचान दी। आलम यह था कि हर ओर उनका चर्चा था।

‘भूका है बंगाल’ नज़्म वामिक़ जौनपुरी की शायरी की मेराज़ है। यदि इस नज़्म को लिख देने के बाद वामिक़ और कुछ भी न लिखते, तो भी वे उर्दू अदब में हमेशा ज़िंदा रहते। उन्हें कोई भुला नहीं पाता। वामिक़ जौनपुरी की इस शाहकार नज़्म की तारीफ़ करते हुए, अपनी किताब ‘रौशनाई तरक़्क़ीपसंद तहरीक की यादें’ में सज्जाद ज़हीर ने लिखा है, ‘‘तरक़्क़ीपसंद अदब की तारीख में वामिक़ का यह तराना सही मायने में सोने के हरूफ़ से लिखे जाने लायक़ है। वह वक़्त की आवाज़ थी। वह हमारी इंसान दोस्ती के जज़्बात को सीधे-सीधे उभारता था। उसकी ज़बान और छब आम जन जीवन से संबंधित थी। देहात और शहर में हर तबके़ के लोग उसे समझ सकते थे। उसकी वेदना और संगीतिकता लोकधुन के साथ मिलकर दिल में पवित्रता और कर्म की भावना को जगाती थी। इसी वजह से यह तराना न सिर्फ हिंदुस्तानी बोलने वाले इलाकों में मक़बूल हुआ, बल्कि मुल्क के उन इलाक़ों में भी जिनकी ज़बान हिंदुस्तानी नहीं थी।’’ ज़ाहिर है कि नज़्म का पसमंजर बंगाल अकाल ही था।

बंगाल के अकाल पर हालांकि मख़्दूम, अली सरदार जाफ़री और जिगर मुरादाबादी ने भी पुरजोश नज़्में लिखीं, लेकिन उन्हें वह मक़बूलियत हासिल नहीं हुई, जो ‘भूका है बंगाल’ को मिली। आम ज़बान में लिखी गई यह नज़्म हर एक के ज़ेहन में उतरती चली गई। यह नज़्म, बंगाल के अकाल पीड़ितों की जैसे आवाज़ बन गई।

‘‘पूरब देस में डुग्गी बाजी फैला दुख का जाल/दुख की अगनी कौन बुझाये सूख गए सब ताल/जिन हाथों ने मोती रोले आज वही कंगाल रे साथी/आज वही कंगाल/भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल/.....कोठरियों में गांजे बैठे बनिये सारा नाज/सुंदर नारी भूक की मारी बेचे घर घर लाज/चौपट नगरी कौन संभाले चारों तरफ भूचाल रे साथी/चारों तरफ भूचाल/भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल।’’ वामिक़ जौनपुरी ने इस नज़्म में न सिर्फ़ अकाल से पैदा हुए दर्दनाक हालात का पूरा मंज़र बयां किया है, बल्कि नज़्म के आखि़र में वे बंगालवासियों से अपनी एकजुटता दर्शाते हुए कहते हैं, ‘‘प्यारी माता चिंता जिन कर हम हैं आने वाले/कुंदन रस खेतों से तेरी गोद बसाने वाले/खू़न पसीना हल हंसिया से दूर करेंगे काल रे साथी/दूर करेंगे काल/भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल।’’ एक नई उम्मीद, नया हौसला बंधाने के साथ इस नज़्म का इख़्तिताम होता है।

इप्टा के ‘बंगाल स्कवॉड’ और सेंट्रल स्कवॉड ने ‘भूका है बंगाल’ नज़्म की धुन बनाई और चंद महीनों के अंदर यह तराना मुल्क के कोने-कोने में फैल गया। इस नज़्म ने लाखों लोगों के अंदर वतनपरस्ती और एकता, भाईचारे के जज़्बात जगाए। इप्टा के कलाकारों ने नज़्म को गा-गाकर बंगाल रिलीफ़ फंड के लिए हजारों रुपए और अनाज बंगाल के लिए इकट्ठा किया। जिससे लाखों हमवतनों की जान बची। नज़्म की मक़बूलियत को देखते हुए, इसका मुल्क की दीगर ज़बानों में भी तर्जुमा हुआ।

इस युगांतकारी नज़्म के लिखे जाने का क़िस्सा कुछ इस तरह से है। वामिक़ जौनपुरी अलीगढ़ में थे, एक दिन उन्होंने बंगाल के अकाल की रिपोर्ट किसी अख़बार में पढ़ी। रिपोर्ट पढ़ने के बाद वे बेचैन हो उठे और यह मंज़र देखने कलकत्ता जा पहुंचे। वहां से लौटे तो कई दिनों तक यह ख़ौफ़नाक मंज़र उनकी आंखों के सामने घूमता रहा। कुछ लिखने को क़लम उठाई, लेकिन लिखा कुछ नहीं गया। आखि़रकार एक दिन वे जब लेटे थे, तो उनके दिमाग में एक मिसरा आया, ‘‘भूका है बंगाल रे साथी, भूका है बंगाल’’ इसके बाद, तो एक के बाद एक मिसरे आते चले गए और नज़्म पूरी हो गई।

नज़्म की कहानी, उन्हीं की ज़बानी, ‘‘इसके बाद तो बोल इस तरह क़लम से तराशा होने लगे, जिस तरह उंगली कट जाने पर खू़न के कतरे। शायद इसी को इस्तलाहन इ़ल्का (ईश्वर की ओर से दिल में डाली गयी बात) कहते हैं।’’ सिर्फ़ यही नज़्म नहीं, बल्कि वामिक़ जौनपुरी के सारे कलाम में सामाजिक चेतना साफ़ तौर पर दिखलाई देती है। उन्होंने सियासी और समाजी मसलों को हमेशा अपनी नज़्म का मौजू़अ बनाया। अपनी नज़्मों-ग़ज़लों में उन्होंने तरक़्क़ीपसंद रुझान से कभी किनारा नहीं किया। मिसाल के तौर पर अपनी एक ग़ज़ल में वे कहते हैं, ‘‘सुर्ख़ दामन में शफ़क के कोई तारा तो नहीं/ हमको मुस्तकबिले-ज़र्रीं ने पुकारा तो नहीं/ दस्तो-पा शल हैं, किनारे से लगा बैठा हूं/ लेकिन इस शोरिशे-तूफाँ से हारा तो नहीं।’’

दीगर तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह वामिक़ जौनपुरी का भी झुकाव मार्कसिज्म की तरफ रहा और उनका यह अक़ीदा इस ख़याल में आखि़र क्यों है?, उन्हीं की एक मशहूर नज़्म ‘कार्ल मार्क्स’ के आइने में, ‘‘मार्क्स के इल्म ओ फ़तानत का नहीं कोई जवाब/ कौन उस के दर्क से होता नहीं है फ़ैज़-याब/.....मार्क्स ने साइंस ओ इंसाँ को किया है हम-कनार/ ज़ेहन को बख़्शा शऊर-ए-ज़िंदगानी का निसाब/ उस की बींनिश उस की वज्दानी-निग़ाह-ए-हक़-सनास/ कर गई जो चेहरा-ए-इफ़्लास-ए-ज़र को बे-नक़ाब/ कोई क़ुव्वत उस की सद्द-ए-राह बन सकती नहीं/ वक़्त का फ़रमान जब आता है बन कर इंक़िलाब/ अहले दानिश का रजज़ और सीना-ए-दहक़ाँ की ढाल/लश्कर मज़दूर के हैं हम-सफ़ीर ओ हम-रकाब।’’

हमारे मुल्क को आज़ादी बंटवारे के तौर पर मिली। पूरा मुल्क दंगों की आग में झुलस उठा। ख़ास तौर पर पंजाब इससे सबसे ज्यादा मुतअस्सिर रहा। पंजाब की तक़्सीम पर वामिक़ जौनपुरी ने अपनी नज़्म ‘तक़सीमे-पंजाब’ के हवाले से लिखा, ‘‘जैसे अब ख़ुश्क हैं पंजाब के सारे दरिया/सोने की बालियां जिन खेतों में लहराती थीं/अब उन्हीं खेतों में उड़ते हैं हया सोज शरार/और लहू से उन्हें सैराब किया जाता है/ ...अब ये पंजाब नहीं एक हंसीं ख़्वाब नहीं/ अब ये दोआब है सह आब है पंजाब नहीं/ अब यहां वक़्त अलग सुबह अलग शाम अलग/ महो-ख़ुर्शीद अलग नज़्मे-फलकगाम अलग।’’

फ़ैज़ अहमद फैज़ और दीगर तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह वामिक़ जौनपुरी ने भी इस तक़्सीम को तस्लीम करने से साफ़ इंकार कर दिया। फ़ैज़ की मशहूर नज़्म ‘सुब्हे-आज़ादी’ की तर्ज़ पर उन्होंने अपनी नज़्म ‘दूसरी मंज़िल’ में कहा, ‘‘मेरे साथी मेरे हमदम/तेरे पैगामे-मसर्रत पे गुमां मुझको भी गुज़रा/ कि वतन हो गया आज़ाद/ ...आज़ादी की तस्वीर तो आज़ादी नहीं खुद/ अभी तो मिलती है लाखों दिलों की बस्तियां ताराज़/अभी तो इफ़राते-तही दस्ती का है चारों तरफ राज।’’

वामिक़ जौनपुरी के कलाम में जहां इंक़लाब का ज़बर्दस्त आग्रह है, तो वहीं अपनी नज़्मों में उन्होंने हमेशा वैज्ञानिक नज़रिए को अहमियत दी। ऐसी ही उनकी कुछ नज़्में हैं ‘माइटी एटम’, ‘वक़्त’, ‘आफ़रीनश’, ‘ज़मीं’, ‘एक दो तीन’ वगैरह। साल 1948 में वामिक़ जौनपुरी का पहला शे’री मजमुआ ‘चीखें’ छपा। इस मजमुए में शामिल उनकी ज़्यादातर ग़ज़लें, नज़्में साल 1939 से लेकर 1948 तक के दौर की हैं। यह वह दौर था, जब मुल्क में आज़ादी का आंदोलन अपने चरम पर था। पूरे मुल्क में सियासी उथल-पुथल मची हुई थी। ज़ाहिर है इस मजमुए की ग़ज़लों, नज़्मों में भी उस हंगामाखेज दौर की अक्कासी है।

वामिक़ जौनपुरी की दूसरी किताब ‘जरस’ साल 1950 में आई। इस किताब में नज़्म, ग़ज़ल के अलावा चंद शे’र, अशआर भी शामिल हैं। ‘जरस’ की प्रस्तावना में ‘वामिक़’ जौनपुरी ने लिखा है, ‘‘उस वक़्त आलमगीर जंग अपने पूरे शबाब पर थी। सारे मुल्क में भूख और बरहनगी की आंधियां चल रही थीं। फ़िरंगी और अमरीकी सिपाही सड़कों और गलियों को रौंदते फिर रहे थे। पस्त और मुतवस्सित तबके़ और गरीबों के घर वीरान और चकलेखाने आबाद हो रहे थे। हर जानिब ज़िंदगी की हसीन क़द्रें फ़ासिस्ट ताक़तों के हाथों दम तोड़ रही थीं। यह हाल देखकर मुझे महसूस हुआ कि जिस क़िस्म की रवायती शायरी मैं कर रहा हूं, वह एक नाक़ाबिले मुआफ़ी जुर्म है। यही वह वक़्त भी था, जब मुल्क के रजतपसंद अदीब अदब बराये ज़िंदगी के मुक़ाबले में अपने आखि़री मोर्चे से जंग लड़ रहे थे। इस जंग में मुझको बड़ा फ़ायदा हुआ और मैं इस नतीजे़ पर पहुंचा कि अदब को ज़िंदगी का आईनादार होना चाहिए।’’ बहरहाल वामिक़ जौनपुरी की एक बार जब यह समझ बनी, तो उनके सामने कई नये दरीचे खुल गए। उनका अदब, बराये ज़िंदगी हो गया। अदब आर्ट के लिए नहीं, ज़िंदगी के लिए।

‘जरस’ की भूमिका मशहूर तंकीद निगार एहतेशाम हुसैन ने लिखी थी। अपनी भूमिका में एहतेशाम हुसैन ने वामिक़ जौनपुरी की शायरी की तारीफ़ करते हुए लिखा है, ‘‘वामिक़ के अंदर गैरमामूली शायराना सलाहियते हैं।’’ उनके अंदर यह गैरमामूली शायराना सलाहियतें ही थीं कि उन्होंने ‘मीना बाज़ार’, ‘भूका बंगाल’, ‘ज़मीं’, ‘तक़सीमे-पंजाब’, ‘सफ़रे नातमाम’, ‘नीला परचम’ और ‘मीरे कारवां’ जैसी बेहतरीन नज़्में अपने चाहने वालों को दीं। यह सभी नज़्में ‘जरस’ में शामिल हैं। बहरहाल ‘जरस’ के प्रकाशन और इसकी कामयाबी ने वामिक़ जौनपुरी को तरक़्क़ीपसंद शायरों की पहली सफ़ में खड़ा कर दिया। वामिक़ जौनपुरी का वास्ता कम्युनिस्ट पार्टी से भी रहा। उन्होंने किसान सभा के लिए काम किया। ‘नीला परचम’, ‘फ़न’ और ‘ज़मीं’ वामिक जौनपुरी की वे नज़्में हैं, जिन्हें ‘भूका बंगाल’ की तरह मक़बूलियत हासिल हुई। ‘नीला परचम’ नज़्म में वे जंग के ख़िलाफ़ अमन की बात करते हैं। क्यांकि जंग से पूरी इंसानियत को ख़तरा है। जंग में कोई नहीं जीतता। जंग में जो जीतता है, वह भी अंततः हारता ही है। ‘‘हम इसलिए अमन चाहते हैं/ कि एशिया से सफेद कौमें उठा लें अपना सियाह डेरा/ रहेंगे कब तक नजस फ़जाएं/ हम आज मिलकर कसम ये खायें/कि हिंद को हम न बनने देंगे इस जंग का अखाड़ा/.......अगर ये जंग रुक सकी तो ये सारे नग़मे, ये सारे शम्मे/ तमाम हुस्नोनज़र के जलवे/ हमारी बज़्म में ख़याल-ओ-अहसास/ कभी फिर न आ सकेंगे/ अगर न ये जंग रुक सकी तो/ हमारी तारीख़-ए-इर्तिक़ा की सुनहरी जिल्दें रुपहली सतरें/ लहद में निस्यां की दफ़्न होंगी।’’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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