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प्रमोशन में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या दिशा निर्देश दिए?

प्रमोशन में आरक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ जरूरी दिशा-निर्देश जारी किए हैं। साथ में मामला बदलने पर बदलने वाली परिस्थितियों और तथ्य के आधार पर कुछ जरूरी पैमाने तय करने की जिम्मेदारी सरकार को सौंप दी है।
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भारत में गैर-बराबरी की उबड़ खाबड़ जमीन को ठीक करने के लिए आरक्षण एक औजार है। साथ में प्रमोशन में आरक्षण पर भी चर्चा चलती रहती है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे से जुड़े जरनैल सिंह मामले पर महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। जस्टिस नागेश्वर राव, संजीव खन्ना और बी आर गवाई की बेंच ने प्रमोशन में आरक्षण से जुड़े कई याचिकाओं को समेटते हुए प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर 49 पैराग्राफ में 68 पेज का फैसला सुनाया है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले की शुरुआत आरक्षण के मामले से जुड़े मशहूर केस इंदिरा साहनी से की। इस मामले में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27% आरक्षण स्वीकार लिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 16 ( 4 ) प्रमोशन में आरक्षण की बात नहीं करता है।

बाद में जाकर के साल 1995 में संविधान  का 77 वां संशोधन हुआ। इस संशोधन के बाद अनुच्छेद 16 (4) A जुड़ा। जिसके तहत प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान किया गया।  इस अनुच्छेद के तहत प्रावधान यह है कि राज्य को अगर लगता है कि राज्य के अधीन सेवा से जुड़े किसी पद पर अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व कम है, तो राज्य अपने अधीन सेवा से जुड़े उस पद पर अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है।

जरनैल सिंह का मामला साल 2018 का है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि प्रमोशन में आरक्षण देना राज्य का विवेकाधिकार है। लेकिन राज्य को यह साबित करना होगा कि जिस पद के लिए राज्य प्रमोशन में आरक्षण दे रहा है, उस पद पर अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व समुचित नहीं है। साथ में राज्य को यह भी साबित करना होगा कि उस पद पर प्रमोशन में आरक्षण देने से प्रशासनिक दक्षता पर यानी कि एडमिनिस्ट्रेटिव एफिशिएंसी पर किसी तरह का नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा।

अब दिक्कत यहां पर आ रही थी कि आखिरकर किस पैमाने के तहत यह मापा जाए कि किसी पद पर अनुसूचित जाति और जनजाति का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है? किस तरह से मापा जाए कि उस पद पर आरक्षण देने से प्रशासनिक दक्षता पर असर नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा। इसी सवाल का जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट का पूरा फैसला इन छह दिशा निर्देशों पर आधारित है।

- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति के प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता को निर्धारित करने के लिए कोर्ट के जरिए किसी भी तरह का पैमाना नहीं बनाया जा सकता है।

कोर्ट का यह मानना है कि बराबरी न्याय और दक्षता को मापने के लिए किसी भी तरह का स्थाई पैमाना नहीं बनाया जा सकता है।जैसे ही मामला बदलता है, मामले से जुड़े तथ्य और परिस्थिति भी बदल जाते हैं। और पैमाना किसी भी मामले से जुड़े तथ्य और परिस्थिति पर ही निर्भर होने चाहिए। कोर्ट का मानना है कि सरकार को पूरी आजादी है कि अनुसूचित जनजाति और जाति के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को मापने के लिए प्रासंगिक कारणों को निर्धारित करें। कोर्ट ने जोर देते हुए कहा कि जो काम पूरी तरह से कार्यपालिका के क्षेत्र से जुड़ा हुआ है वह कोर्ट नहीं कर सकती।

- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार के भीतर सिविल पद कई तरह के सर्विस में बंटे होते हैं। इन कई तरह के सर्विस के भीतर कई तरह के क्लास और ग्रुप होते हैं। इन कई तरह के क्लास और ग्रुप के भीतर कई तरह के ग्रेड होते हैं। इन ग्रेड के भीतर कई तरह के काडर होते हैं। इसलिए अनुसूचित जाति और जनजाति के समुचित प्रतिनिधित्व से जुड़े आंकड़ों को मापने की इकाई कोई सर्विस नहीं हो सकता। बल्कि काडर होना चाहिए। सरल भाषा में कहा जाए तो यह कि इंडियन पुलिस सर्विस एक तरह की सर्विस है। इसके भीतर कई तरह के क्लास और ग्रुप होते हैं। ग्रुप के भीतर ग्रेड होते हैं। ग्रैंड के भीतर काडर होते हैं। प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए काडर के भीतर मौजूद पोस्ट को देखने की जरूरत है ना कि पूरे के पूरे सर्विस को देखने की जरूरत है।

- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि अनुसूचित जाति और जनजाति को प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए पर्याप्तता को निर्धारित करने के लिए बीके पवित्रा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सर्विस के भीतर मौजूद ग्रुप को यूनिट के तौर पर माना था। लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा। यूनिट के तौर पर cadre को ही माना जाएगा।

(आपको बता दें कि भारत के 44 मंत्रालयों और उनके विभागों में कुल 3800 काडर हैं। कहने का मतलब यह है कि कैडर के अलावा ग्रेड ग्रुप क्लास सर्विस जैसी बड़ी कैटेगरी को अगर यूनिट के तौर पर लिया जाएगा तो प्रमोशन में आरक्षण का कोई मतलब नहीं रहेगा।)

- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर अनुसूचित जाति और जनजाति का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है तो उन्हें प्रमोशन में आरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन यह तय करने की जिम्मेदारी कि किस तरह से अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को मापा जाए राज्य की होगी। किसी काडर से जुड़े पद पर आरक्षण अनुसूचित जाति और जनजाति की जनसंख्या के अनुपात में दिया जा सकता है। लेकिन और भी कई तरह के प्रासंगिक कारण हो सकते हैं जिनका निर्धारण राज्य सरकार करेगी।

- किसी पद पर अनुसूचित जाति और जनजाति की पर्याप्तता को मापने के लिए केवल एक बार आंकड़ा नहीं जुटाया जाएगा। बल्कि इसे एक निश्चित अंतराल के बाद मापने का नियम बनाना पड़ेगा। यह निश्चित अंतराल क्या होगा? यह तय करने की जिम्मेदारी सरकार की है.

- इन सारे दिशा निर्देशों के आधार पर आगे से दिए जाने वाले प्रमोशन में आरक्षण को तय किया जाएगा। ऐसा नहीं है कि जिन्हें पहले प्रमोशन में आरक्षण मिल गया है, उनका परीक्षण करने के लिए भी इन दिशा निर्देशों को पैमाना बनाया जाए। तकनीकी शब्दावली में कहा जाए यह सारी बातें रेट्रोस्पेक्टिव नहीं बल्कि प्रोस्पेक्टिव तरीके से लागू होंगी।

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