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बसपा की करारी हार पर क्या सोचता है दलित समाज?

इस चुनाव में दलित वोटरों ने किस सोच के तहत अपना मत दिया? बसपा के विषय में आज उसके विचार किस ओर करवट ले रहे हैं? क्या उन्हें यह लगता है अब बसपा का चरित्र वो नहीं रहा जो तीन दशक पुराना था?
dalit society

इस विधानसभा चुनाव के नतीजों में बसपा ने बहुत खराब प्रदर्शन किया है। सीटें तो हाथ से गई ही वोट प्रतिशत भी बेहिसाब घटा। अपनी हार की समीक्षा करते हुए बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि उनका बेस वोट बैंक तो पूरी तरह उन्ही के साथ था लेकिन ब्राह्मण, मुस्लिम और पिछड़ी जातियों का वोट बसपा को नहीं मिला और दूसरी पार्टियों की तरफ चला गया।

मायावती द्वारा पेश इस समीक्षा पर इसलिए सवाल उठाना लाज़िमी है क्योंकि बसपा को इस चुनाव मिला वोट प्रतिशत यह साफ बता रहा है कि उसका बेस वोट बैंक ( दलित वोटर) भी उसके पाले से खिसकता जा रहा है। प्रदेश में 22 प्रतिशत दलितों की आबादी है जबकि इस विधानसभा चुनाव में बसपा को 13 प्रतिशत वोट ही मिला।

2012 के चुनाव में वोट प्रतिशत 25 था जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में यह घटकर 20 प्रतिशत पर आ गया यानी पाँच प्रतिशत का नुकसान बसपा को हुआ और अब 2022 के चुनाव में सात प्रतिशत का नुकसान झेलते हुए पार्टी 13 प्रतिशत वोट पर ही सिमट कर रह गई तो यह कैसे माना जाये कि बसपा का कोर वोटर आज भी उसी के साथ है।

इस चुनाव में दलित वोटरों ने किस सोच के तहत अपना मत दिया, बसपा के विषय में आज उसके विचार किस ओर करवट ले रहे हैं , क्या उन्हें यह लगता है अब बसपा का चरित्र वो नहीं रहा जो तीन दशक पुराना था, कुल मिलाकर बसपा के इस पतन का कारण वे क्या मानते हैं आदि इन सवालों के साथ हमने दलित समाज के कुछ लोगों से बात की। हालांकि इस बातचीत के दौरान ग्रामीण यह बताने से बचते रहे कि इस बार उन्होंने किस पार्टी को वोट दिया लेकिन बातचीत के क्रम में यह बात सामने आई कि दलित समाज आज बसपा के हालात पर क्या सोचता है,  इसके अलावा इन सवालों पर दलितों के बीच लंबे समय से काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता कमला गौतम और साथ ही दलित बौद्धिक चिंतक और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. विक्रम  ने भी अपने विचार रखे।

दलित बौद्धिक चिंतक डा. विक्रम

दलित समाज के लोगों से संवाद

लखनऊ के मटियारी स्थित हरदासी खेड़ा में बसी एक बस्ती है राम रहीम। इस बस्ती में कुल 29 घर हैं जिसमें से अधिकांश दलितों के घर हैं और कुछ पिछड़ी जाति के लोगों के। इस बस्ती के ज्यादात्तर पुरुष मजदूर हैं तो कुछ सब्जी फल का ठेला लगाते हैं तो कोई ई रिक्शा चलाता है। कुछ महिलाएँ  घरेलू कामगारिन के तौर पर काम करती हैं। इस बस्ती के रहने वाले पेशे से दिहाडी मजदूर कामता प्रसाद भाजपा के आने से संतुष्ट हैं। वे कहते हैं सरकार कोई भी आये गरीबों की सुनवाई होनी चाहिए। बसपा को मिली करारी हार पर पहले वह चुप्पी साध लेते हैं फिर कुछ सोचकर कहते हैं, इस बात से इंकार नहीं कि बसपा वंचित समाज की पार्टी है लेकिन दलित समाज के लिए पार्टी को जितना करना चाहिए वो होता नजर नहीं आ रहा। "

श्रमिक कामता प्रसाद

क्या होता नजर नहीं आ रहा " इस सवाल पर वह स्पष्ट जवाब देने से बचते हैं हाँ पर इतना ज़रुर कहते हैं पार्टी क्यों इतनी बुरी तरह से हार गई? इस पर तो पार्टी के नेताओं को ही विचार करना होगा।  योगी आदित्यनाथ के एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने से वे खुश हैं। वे कहते हैं हम रोज कमाने वाले रोज खाने वाले दिहाडी मजदूर हैं , चरम के करोना काल और लॉकडाउन में जब हम बेरोजगार हो गए तब भी इस सरकार ने किसी को भूखा नहीं सोने दिया और वे एक एक कर योगी सरकार के कामों को गिनाने लगे लेकिन दूसरे ही पल वे कहते हैं पर अभी भी गरीबों के पक्ष में सरकार को बहुत कुछ करने की जरूरत जैसे पक्के घर का वादा पूरा करे, भूमिहीन गरीबों को जमीन का पट्टा दे।

राम रहीम बस्ती के निवासी

खैर कामता प्रसाद जी से बात करने के बाद हमारी मुलाकात लाल जी से हुई। लाल जी  एक पत्थर मजदूर हैं। हमारे सवालों  का उन्होंने बेबाकी से जवाब दिया । उनके भीतर हमने एक तर्कशील राजनैतिक समझ देखी । वे कहते हैं जो सच है उसे कहने और स्वीकराने में कैसी झिझक । लाल जी के मुताबिक इसमें दो  राय नहीं कि इस बार मुफ्त के राशन, ई श्रम कार्ड पर मिलने वाले पैसे, किसान को मिलने वाली धनराशि, गैस चूल्हा आदि के बल पर भाजपा को बड़ी जीत मिली है। वे क्रोधित भाव से कहते हैं,क्योंकि इन सुविधाओं को भोगने वाले तबके को यह लगता है कि इस सरकार के पुनः वापसी से उन्हें इससे और ज्यादा मुफ्त का कुछ मिलता रहेगा लेकिन यह गरीब, दलित तबका यह नहीं सोच पा रहा कि एक तरफ सरकार उनके जेब में दस रुपये डाल कर उन्हीं की जेब से 100 रुपये खींच रही है।  हर महीने कुछ किलो गेहूँ,  चावल, एक पैकेट रीफाईंड, चना और एक पैकेट नमक मिलता है। वे कहते हैं , बढ़ती महंगाई ने घर का बजट पूरी तरह बिगाड़ कर रख दिया, गरीबी रेखा से नीचे बसर करने वाले का घर खर्च भी आठ से दस हजार का है और सरकार से हमें बमुश्किल से चार सौ से पांच सौ का राशन मिलता है, वो भी पूरा नहीं पड़ता महीने में दोबारा चावल, गेहूँ , रीफाईंड खरीदना ही पड़ता है। पाँच सौ का राशन देकर सरकार हमारी जेब पर पंद्रह हजार का अतिरिक्त बोझ डाल रही है, 190 रुपये लीटर तो तेल ही हो गया है महीने में तो पाँच सौ का तो तेल ही लग जाता है वो भी जब छोटा परिवार है तब, इसके अलावा दालों के बढ़ते दाम ने परेशान कर दिया सो दाल खाना ही कम कर दिया।

लाल जी कहते हैं, सच यही है कि इस बार चुनाव में बसपा का अधिकांश बेस वोट भाजपा को गया और इसका कारण वह मायावती को ही मानते हैं। उनके मुताबिक पर्दे के पीछे सांठ गाँठ कर बसपा और भाजपा ने चुनाव लड़ा है क्योंकि बसपा का इस चुनाव जीतने से ज्यादा लक्ष्य सपा को हराना था। लेकिन दलित वोटरों ने क्यों अपना रुख बदला, इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं मुझे इसके तीन कारण नजर आते हैं एक, मुफ्त का राशन, दूसरा बसपा का अपने वोटरों से दूरी बना लेना और  सवर्ण जातियों के उम्मीदवारों को ज्यादा टिकट देना, तीसरा कारण बताते हुए वह कुछ रुक जाते हैं फिर हँसते हुए कहते हैं तीसरा कारण तो सबसे बड़ा है वह यह कि आज भी  विवेक,  बुद्धि और शिक्षा से वंचित इस समाज को जहाँ भी हाँक तो वहीं चल पड़ते हैं।

श्रमिक लाल जी

अब बारी थी किसी दलित युवा से बात करने की तो हमारी मुलाक़ात चंदा से हुई। वह अभी बी ए प्रथम वर्ष की छात्रा है। बसपा की करारी हार पर वह कहती है पाँच साल पार्टी न तो छात्रों के मुद्दे पर न किसान के मुद्दे पर न महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर आन्दोलन करती नजर आती है और न ही सरकार को घेरती नजर आती है बस नजर आती है तो चुनाव से पहले तो ऐसे तो काम नहीं चल सकता। वे कहती है छात्रों में दलित छात्र भी हैं, किसानों में दलित किसान भी हैं, बेरोजगारों में दलित भी हैं लेकिन बसपा इन मुद्दों से दूर रही। चंदा कहती है इसलिए चुनाव के समय वोटरों को जो समझ आया उधर वोट किया। और अंत में वह अपना जवाब एक  बहुत तर्कशील  बात से ख़त्म करती है , वह कहती है एक तरफ विपक्ष का  " कुछ न करना " भी नजर आ रहा था तो दूसरी तरफ़ सरकार का लगातार कुछ न कुछ करते रहना भी नजर आ रहा था, कभी मुफ्त का भरपूर राशन दे रही थी तो कभी शौचालाय तो कभी किसानों, छात्रों के खाते में पैसा भेज रही थी तो कभी पक्का घर कभी गैस चूल्हा दे रही थी आदि तो इसका लाभ उसे चुनाव में मिल गया।

छात्रा चंदा

हरदासी खेड़ा के बाद चलते हैं इन्दौराबाग तहसील के अन्तर्गत आने वाले मामपुर गाँव जो कि लखनऊ के बाहरी क्षेत्र बक्शी का तालाब ( बी के टी) स्थित है।   इस गाँव के दलित टोले के रहने वाले रमेश गौतम एक राज मिस्त्री हैं और बसपा के जन्मकाल से ही उसके पक्के समर्थक हैं। वे कहते हैं इस चुनाव में बसपा की जो हालत हुई है वह चिन्ताजनक ज़रुर है, क्योंकि सीटों को ही पार्टी ने नहीं गँवाया बल्कि वोट प्रतिशत भी कम हुआ है,  इसके बावजूद भी वह पार्टी के भविष्य को लेकर आशावादी है। रमेश कहते हैं इससे पहले भी पार्टी ने खासा उतार चढ़ाव देखें हैं लेकिन पार्टी खत्म नहीं हुई न होगी। हाँ वह इतना ज़रुर कहते हैं एक गुजारिश ज़रुर है बहन जी से कि भाजपा की बी टीम होने का जो टेग पार्टी पर लगा है उसे हटाने का ईमानदारी से प्रयास करे साथ ही पार्टी को एक मजबूत दलित चेहरा दे।

राज मिस्त्री रमेश 

इसी गाँव की रहने वाली अंजली एक कॉलेज छात्रा है और दलित परिवार से है। बसपा की इस बेहद  खराब प्रदर्शन पर वह कहती है सचमुच यह चौंकाने वाला परिणाम है इस रिजल्ट से यही तस्वीर उभर कर सामने आती है कि इस बार बसपा के अपने कोर वोटरों ने भी उसका खासा साथ नहीं दिया जो काफी हद तक सही भी है। वह कहती है हमारा परिवार, समाज हमेशा से बसपा का घोर समर्थक रहा है। यह पार्टी हमें यह अहसास दिलाती है कि राजनीति और समाज में हमारा भी अस्तित्व और वर्चस्व है, ऐसा हमारे बड़ों का सोचना है लेकिन आज के दौर के दलित युवा की सोच बदल रही है उसको शिक्षा चाहिए, रोजगार चाहिए । पढ़ा लिखा युवा आज अपनी जरूरत के हिसाब से वोट देता है यह सोचकर नही कि चूँकि यह दलितों की पार्टी है तो इसे ही वोट जाना चाहिए हाँ उसके घर के बड़े बुजुर्ग भले ही जाति आधारित वोट करे लेकिन युवाओं की सोच बदल रही है।

मामपुर गाँव की अंजली

एक सामजिक कार्यकर्ता की नजर से.....

बरगदी गाँव की रहने वाली कमला गौतम दलित जाति से ताल्लुक रखती हैं। वे एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं । कमला  बताती हैं  लखनऊ से सटे बख्शी का तालाब ( बी के टी) क्षेत्र के कई दलित बहुल गाँवों में उनका पिछले लंबे समय से आना जाना है। इस विधानसभा चुनाव में बसपा के वोटरों का पार्टी के प्रति इतना मोहभंग क्यों हुआ और पार्टी इतने बुरे हालात में क्यों पहुँच गई, इस सवाल के जवाब में वे कहती हैं ,  दलित वोटरों का पार्टी के प्रति मोहभंग क्यों हुआ दरअसल, इस सवाल को वे दूसरे नजरिए से कुछ यूँ देखती हैं कि पार्टी का वोटरों के प्रति मोह भंग क्यों हो गया ? अपनी बात को कुछ विस्तार से समझाते हुए कमला जी कहती हैं  तब मेरी उम्र करीब दस साल की थी, मुझे वह दिन आज भी अच्छे से याद है, जब हम सब के लोकप्रिय नेता माननीय कांशीराम जी द्वारा बाबा साहेब के जन्मदिवस पर (14  अप्रैल 1984) बहुजन समाज पार्टी  (बसपा ) का गठन किया था और याद इसलिए है क्योंकि हमारे पूरे टोले मोहल्ले में खुशी की लहर थी, मिठाईयाँ बँट रही थी, खुश होती भी क्यों न?

ग्रामीणों से बातचीत करती कमला गौतम

जिस वर्ग को समाज की सवर्ण और दबंग जातियों द्वारा दशकों से दबाया जा रहा था, जिस वर्ग के अधिकारों का हनन खुलेआम हो रहा था, हाशिये में धकेले गए उस दलित समाज की आवाज बनकर उभरी थी बसपा। हर दलित को यह लगता था कि अब यदि उसके खिलाफ़ हिंसा होती है तो बहुजन समाज पार्टी उसके लिए ढाल बनकर खड़ी है। कमला जी बताती हैं कि उनके पिताजी गाँव गाँव घूमकर  बसपा का प्रचार करते थे और अक्सर वह भी साथ में जाया करती थीं, तब वह मात्र छठी कक्षा की छात्रा थी।

वे कहती हैं इस चुनाव में यह शोर बड़े जोरों पर रहा कि महीने में दो बार मिल रहे मुफ्त के राशन, उज्जवला गैस चूल्हे, शौचालय, प्रधानमंत्री आवास के तहत मिला पक्का घर, या मुफ्त की मिलने वाली दूसरी चीजों ने अन्य पार्टियों खासकर बसपा का वोट भाजपा की ओर परिवर्तित कर दिया जो कि काफी हद सही भी है क्योंकि इसमें दो मत नहीं कि मुफ्त का राशन हर गरीब को मिल रहा है, शौचालय मिला, प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बहुतों को पक्की छत मिली , उज्जवला गैस चूल्हा मिला और जिन को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाया या कुछ का मिला और कुछ का नहीं उन्होंने भाजपा को इस उम्मीद पर वोट दिया कि अगर यही सरकार दोबारा आ जाती है तो जिन योजनाओ का लाभ उन्हें नहीं मिला है वह मिल जाएगा क्योंकि यह सरकार अपने अधूरे कामों को पूरा करेगी। वह कहती हैं, लेकिन इन सब के बावजूद केवल और केवल यही कारण है बसपा के कोर वोटरों का भाजपा की ओर चले जाने का, मैं नहीं मानती, वोट बंटे हैं सपा कि ओर भी गए हैं लेकिन यहाँ सवाल यह नहीं कि बसपा का वोटर किस ओर ज्यादा गया यहाँ सवाल यह कि आखिर वह बटा क्यों? कमला जी कहती हैं इस बटवारे को समझने के लिए लगभग डेढ़ दशक पीछे जाना होगा।

बसपा के गठन से लेकर और आज तक यानी इन 38 सालों में पार्टी को लेकर हालात और नजरिया दलित समाज के बीच काफी बदला है और यह बदलाव पिछले दस वर्षों में अधिक देखा गया है, थोड़ा सोचकर वे कहती हैं, हालांकि यह बदलाव और पहले से होना शुरू हो गया था जब "सोशल इंजीनियरिंग"  के नाम पर एक ब्राह्मण को पार्टी का प्रमुख चेहरा बना दिया गया और ब्राहमणों  की भागीदारी पार्टी के भीतर बढ़ने लगी। कमला जी कहती हैं राजनीति की माँग को देखते हुए राजनैतिक गठजोड़, समीकरणों के हिसाब से भले ही इस तरह के फार्मूले सही बैठते हो लेकिन दलित समाज के एक गरीब, अशिक्षित व्यक्ति के लिए यह समीकरण समझ से परे है । वे कहती हैं उच्च स्तर के विश्लेषण को छोड़ दीजिए, मैं जमीनी स्तर की बात कहती हूँ क्योंकि मैं खुद दलित समाज की हूँ और हमेशा अपने समाज के लोगों के बीच  रही हूँ, काम किया किया है , गाँव गाँव गई हूँ तो लोग यही सवाल करते थे कि क्या हमारे समाज का कोई व्यक्ति महासचिव बनने लायक नहीं था जो एक ब्राह्मण को बना दिया, लोगों की यह धारणायें बनने लगी थी कि उनकी बहनजी अब बदल गई हैं, बसपा अब उनकी पार्टी नहीं रही, यह उस जाति की पार्टी बन रही है जिसने दशकों तक दलितों पर अत्याचार किया। हालांकि इस  फार्मूले के तहत 2007 में बसपा को यूपी की सत्ता मिली लेकिन इसके बाद यह फार्मूला बुरी तरह धाराशायी होता गया। 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने अपनी सत्ता गँवा दी और 2017 में भी उसकी वापसी तो छोडिये वोट प्रतिशत भी घट गया और इस बार के चुनाव में तो बुरी हालत में पार्टी पहुँच गई। केवल सीटें नहीं घट रही वोट प्रतिशत भी घट रहा है।

 कमला कहती हैं बसपा का कोर वोटर तेजी से दूसरी पार्टी की ओर रुख कर रहा है क्योंकि उसे अपनी सुरक्षा और जीवन  यापन का मसला अन्य पार्टियों में हल होता दिखाई दे रहा है। कोर वोटर बँट रहा है इसकी जिम्मेदार खुद बहनजी (मायावती) हैं। वे थोड़ा क्रोध भाव में कहती हैं जब अन्य पार्टियां एक एक साल पहले चुनाव के लिए कमर कस लेती हैं, जनसंपर्क शुरू कर देती हैं तो बहनजी का कहीं अता पता नहीं होता,  वे सवाल करती हैं, पिछले पाँच वर्षों में प्रदेश इतनी सारी दलित विरोधी घटनाएँ हुई किस घटना पर दलितों की सुप्रिमो मायावती ने मुखर होकर आवाज उठाई या आंदोलित हुई या प्रदेश सरकार से सवाल किया तो यह सारी बाते वोटर नोटिस करता है इसलिए इस चुनाव में बसपा को भाजपा की बी टीम कहा जाने लगा। पिछले कुछ सालों में पिछड़ी और दलित जाति के कद्दावर  नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ना और मायावती द्वारा इसे हल्के में लेना, सवर्ण चेहरों को पार्टी में ज्यादा से ज्यादा तरजीह देना , ये भी वह कारण जिसने पार्टी को नुकसान पहुँचाया।

दलित बौद्धिक चिंतक की नजर से

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. विक्रम कहते हैं यह कह देना कि बहुजन समाज पार्टी की हार के पीछे वह खुद जिम्मेदार है यह पूर्ण सत्य नहीं है। दरअसल बसपा एक वंचित समाज की पार्टी है और वंचित समाज एक महत्वकांक्षा की चाह रखने वाला जमात है। इस जमात को एक साथ रखना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है।उदाहरण के रूप में समझते हैं कि कभी सोने लाल पटेल की पार्टी, जिसका नेतृत्व अनुप्रिया पटेल और उनकी माँ कर रही हैं, वे आज भाजपा और कमेरावादी पार्टी से जुड़ी हैं, इसी तरह ओम प्रकाश राजभर अलग पार्टी का अलग पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं स्वामी प्रसाद मौर्या, राम अचल राजभर ,  लाल जी वर्मा इत्यादि यह सभी बसपा के साथ थे लेकिन इनकी महत्वकांक्षा पार्टी के हार के पीछे मुख्य रही है। कांशीराम साहब कहते थे कि हमें न बिकने वाला समाज चाहिए लेकिन यह हुआ नहीं। भाजपा यह चाल ठीक से समझती है कि बसपा के वोटरों और उसके मझले या मध्यम क्रम के लीडरशिप को कैसे जोड़ा जा सकता है साथ ही यह भी भली भाँति कि चावल, दाल, कुछ रुपये में समाज बिक सकता है।

क्या बसपा समाप्ति की ओर है, इस सवाल के जवाब में डा. विक्रम कहते हैं बसपा एक व्यवस्था परिवर्तन करने वाली है  कैडर आधारित पार्टी है जो किसी दक्षिण पंथी दल को मंजूर नहीं। रही बात बसपा के परंपरगत वोट बिखरने का तो निश्चित तौर पर यह बिखराव ज़रुर हुआ है पर अभी समाप्त नहीं हुआ है और बसपा भी समाप्ति की ओर नहीं है। वे कहते हैं बसपा अपने बनने के दिनों से अर्थात 1984 से ही कई बार टूटी और है और तब भी यह आरोप लगाया जाता था कि पार्टी समाप्त हो गई है लेकिन अभी यह जिन्दा है । आज पार्टी को बने  38 साल हो गए और यह अभी भी जीवित है यहाँ तक कि उत्तराखंड में इसे 2 सीटें मिली हैं और पंजाब में भी इसका वोट प्रतिशत बढ़ा है इसलिए बसपा को समाप्त मान लेना जल्दबाजी होगी।

(लेखिका स्वतन्त्र पत्रकार है।) 

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