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कब रुकेगा सफ़ाई कर्मियों–दलितों की हत्याओं और यौन उत्पीड़न का सिलसिला

दलितों का एक वर्ग सफ़ाई के कार्यों में सेप्टिक टैंक और सीवर साफ़ करते हुए जहरीली गैस से अपनी जान गवां रहा है। दूसरी ओर दलित महिलाओं- बच्चियों से सामूहिक बलात्कार जैसी हैवानियत हो रही है, लेकिन सरकार कोई नोटिस नहीं ले रही है। जैसे इन लोगों की जान और मान-सम्मान की कोई क़ीमत न हो।
stop killing

हाल ही में कानपुर में बर्रा थाना क्षेत्र के मालवीय नगर में सेप्टिक टैंक में शटरिंग खोलने उतरे एक मजदूर की जहरीली गैस मौत हो गई। वहीं, बचाने उतरे दो साथियों की भी हालत बिगड़ गई। आनन-फानन में दोनों को अस्पताल भेजा गया, जहां उन्हें भी मृत घोषित कर दिया गया।

इसी प्रकार दिल्ली में स्थित लोकनायक पुरम कॉलोनी में सीवर की सफाई के दौरान दो लोगों की मौत हो गई थी। उसमें एक का नाम रोहित था जबकि दूसरे का अशोक। सोसायटी के लोगों के अनुसार, रोहित यहां सफाईकर्मी का काम कर रहा था, जबकि अशोक सुरक्षा ‌गार्ड था।

ये दो घटनाएं जिन में 5 लोगों की मौत सेप्टिक टैंक और सीवर के अन्दर हुई है, ताजे उदाहरण मात्र हैं। ऐसे अनेक लोग सेप्टिक और सीवर की सफाई के दौरान मरते रहते हैं। पर देश के हर राज्य में प्रशासन का रवैया ढुलमुल और खानापूर्ति वाला होता है। जहां सीवर या सेप्टिक टैंक में सफाई मजदूरों की मौत बल्कि कहिये हत्या होती है उसके लिए जो दोषी होते हैं उनके खिलाफ कोई सख्त कानूनी करवाई नहीं होती जबकि एम.एस. एक्ट 2013 और सुप्रीम कोर्ट के 27 मार्च 2014 के अनुसार इसके लिए दोषी पाए जाने वाले व्यक्ति के खिलाफ जेल और मुआवजे दोनों का प्रावधान है। पर हकीकत ये है कि इसमें मृतक के परिवार को कुछ धनराशि देकर मामला रफा-दफा करने की खानापूर्ति की जाती है।

सफाई कर्मियों की सेप्टिक टैंक और सीवर में मौतें होती रहती हैं पर जरा ज़रा सी बात पर ट्वीट करने वाले हमारे प्रधानमंत्री चुप्पी साध लेते हैं। मौनव्रत धारण कर लेते हैं। आखिर इस मुद्दे पर क्यों नहीं तोड़ते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी चुप्पी?

वर्तमान समय में सरकार का बहुत ही निराशा जनक परिदृश्य है। देश में लोकतंत्र है। हमें किताबों में पढ़ाया गया कि लोकतंत्र में जनता की सरकार जनता के लिए जनता के द्वारा बनाई जाती है। पर अभी जो सरकार है वह ऐसा लगता है कि जनता की नहीं बल्कि पूंजीपतियों की सरकार है। क्योंकि वह अंबानी-अडानी जैसे पूंजीपतियों पर मेहरबान है और गरीब जनता के प्रति उदासीन है। यह सरकार जातिवादी भी है। कथित उच्च जाति के संत-महंत अपराधियों के समर्थन में खड़ी दिखती है पर सफाई कर्मियों और दलितों की हत्याओं और यौन उत्पीड़न की जघन्य घटनाओं पर भी चुप रहती है। इससे कथित उच्च जाति के अत्याचारियों-अपराधियों के हौसले और बुलंद होते हैं।

नहीं रुक रहा दलित महिलाओं और बच्चियों पर दुष्कर्मों का सिलसिला

हाल ही में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में जिस प्रकार दो दलित लड़कियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया और फिर उनकी हत्या कर पेड़ पर लटका दिया गया वह न केवल अमानवीय बल्कि भयावह है। और उत्तर प्रदेश में यह कोई पहली और आख़िरी घटना नहीं है। इससे पहले भी हाथरस, बलरामपुर और बदायूं में इस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जा चुका है।

आल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच की बीना पालिकल कहती हैं –“उत्तर प्रदेश देश का एक ऐसा राज्य है जहां दलितों पर सबसे अधिक अत्याचार होते हैं।“ दलित महिलाओं पर होने वाले बलात्कारों के बारे में प्रसिद्द कार्यकर्ता रुथ मनोरमा सही कहती हैं कि –“दलित महिलायों और लड़कियों पर होने वाले बलात्कार उनके शरीर और गरिमा के साथ युद्ध है।“ दलित महिलाएं और लड़कियां दलित होने के कारण यानी अपनी जाति के कारण, महिला होने के कारण और गरीब होने के कारण, अशिक्षित होने के कारण कथित उच्च जाति के लोगों का सॉफ्ट टारगेट होती हैं।

पुलिस प्रशासन की जातिवादी मानसिकता

दूसरी और दलित महिला और लडकियों से होने वाले बलात्कारों को पुलिस प्रशासन दर्ज करने से ही इनकार कर देते हैं। एक तो दलित लोग लोक-लाज के डर से और दबंग बलात्कारियों की जान से मारने की धमकी के कारण खुद की थाने में जाकर रिपोर्ट लिखाना नहीं चाहते जो हिम्मत करके जाते भी हैं उनके साथ पुलिस बेरहमी से पेश आती है। उनकी रिपोर्ट लिखना तो दूर उन्हें दुत्कार कर भगा दिया जाता है। पुलिस पर दबाव पड़ने पर केस दर्ज भी होता है तो उचित धाराएं नहीं लगाई जातीं। यही कारण है कि दलित मामलों में दोष सिद्धि बहुत कम हो पाती है।

सवाल है कि कानून के लम्बे हाथ अपराधियों-बलात्कारियों की गर्दन तक क्यों नहीं पहुँच पाते? कारण है : पुलिस प्रशासन की जातिवादी मानसिकता, कानून का सख्ती से पालन न करना, अपराधियों का कथित उच्च जाति का होना, दबंग होना और पैसे वाला होना, रसूखदार होना। इन्हीं वजहों से वे कानून के शिकंजे से बच जाते हैं। जिन्हें सलाखों के पीछे होना चाहिए था वे कानून का मजाक बनाते खुलेआम घूमते हैं।

लगातार बढ़ रहे हैं दलितों पर अत्याचार-बलात्कार के आंकड़े

हाल ही में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने वर्ष 2021 के आंकड़े जारी किए हैं।

दलितों पर वर्ष 2020 की तुलना में वर्ष 2021 में होने वाले अत्याचार 1.2 प्रतिशत बढ़े हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति पर सर्वाधिक 13,146 अत्याचार के मामले दर्ज किए गए हैं। राजस्थान में 7524 और मध्य प्रदेश में 7214 मामले हुए। इसी प्रकार बिहार में 5842 और ओडिशा में 2327 अत्याचार की घटनाएं हुईं। इन पांच राज्यों में 70.8 प्रतिशत अत्याचार की घटनाएं अनुसूचित जाति के साथ हुईं। हाल ही में उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में अनुसूचित जाति पर हुई हिंसा की घटनाएं जाति की कठोर सच्चाई को बयान करती हैं।

वर्ष 2021 में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की कुल 3893 घटनाएं हुई जिनमें 2585 महिलाएं और 1285 नाबालिग बच्चियों के साथ इन घटनाओं को अंजाम दिया गया।

वर्ष 2021 के अंत में पिछली सालों के मामलों को मिलाकर कुल अनुसूचित जाति के 70818 मामले लंबित थे।

इन मामलों में तारीख पर तारीख मिलने से मामलों के निपटान में बहुत देर हो जाती है और फिर न्याय नहीं मिल पाता।

इसके लिए नेशनल दलित मूवमेंट फॉर जस्टिस (एनडीएमजे) ने कुछ मांग केंद्र सरकार, राज्य सरकार, जन प्रतिनिधियों और राजनैतिक दलों से इस संबंध में पहल करने की मांग की है।

त्वरित अदालतों (फास्ट ट्रैक कोर्ट) की स्थापना की जाए।

इस संगठन का कहना है कि अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 (संशोधित 2015) सख्ती से पालन किया जाए।

दलितों पर अत्याचार करने वाले दबंग जातियों के अपराधियों के खिलाफ तेज कार्रवाई की जाए।

एससी/एसटी एक्ट 1989 (अमेंडमेंट 2015) के तहत पारदर्शी जांच की जाए। इसमें यदि पुलिस कर्मी अपराधियों की मदद या पक्षपात करते पाए जाएं तो उनके खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई की जाए।

अनुसूचित जाति पर अत्याचार और बलात्कार के अलावा छुआछूत, शिक्षा , स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में भेदभाव की घटनाएँ बढ़ी हैं।

ऐसी जाति का क्या फायदा?

जाति के भेदभाव अशिक्षित, अज्ञानी लोग ही करते हों ऐसा नहीं है पढ़े लिखे उच्च शिक्षित लोग भी जातिगत भेदभाव करते हैं। यहां तक कि राजस्थान के स्कूल के शिक्षक भी इंद्र मेघवाल नाम के सातवीं क्लास के बच्चे की इसलिए पीट-पीट कर जान ले लेते हैं कि उसने उनके मटके से अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी ले लिया था। यह तो अमानवीयता की हदें पर करना हो गया है। यदि जाति हमें इतना अमानवीय बनाती है तो फिर ऐसी जाति का क्या फायदा? और यदि हम शिक्षित होकर भी ऐसी हरकत करें तो शिक्षित होने का भी क्या फायदा?

ऐसे गुज़र होगी नहीं

दलितों का एक वर्ग सफाई के कार्यों में सेप्टिक टैंक और सीवर साफ़ करते हुए जहरीली गैस से अपनी जान गवां रहा है। सरकार पर कोई असर नहीं पड़ रहा। दलित महिलाओं- बच्चियों से सामूहिक बलात्कार जैसी हैवानियत हो रही है, सरकार कोई नोटिस नहीं ले रही है। वह मूक दर्शक बनी हुई है। जैसे इन लोगों की जान और मान-सम्मान की कोई कीमत न हो। जैसे ये इस देश के नागरिक न हों। जैसे इनका परिवार न हो। एक सफाई कर्मी की मौत से सिर्फ एक सफाई कर्मी ही नहीं मरता बल्कि पूरे परिवार की मौत होती है। इस बात की कल्पना करें कि घर का एक मात्र कमाने वाले इन्सान इस दुनिया से चला जाए तो उस परिवार पर क्या बीतती होगी।

सफाई कर्मचारी आंदोलन के कार्यकर्ता “हमें मारना बंद करो” (Stop Killing Us) का अभियान पिछले 134 दिनों से चला रहे हैं। पर सरकार इस पर कोई सकारात्मक कदम उठाने की बजाय कुछ ऐसे उपेक्षा कर रही है जैसे ये कोई मुद्दा ही न हो। ऐसे में हमें भी राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा कदम उठाने यानी अभियान को बड़े स्तर पर करने की जरूरत है। सरकारी उपेक्षा के मद्देनजर दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आ रहा है :

पक गईं हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं,

कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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