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आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की किसे ज़रूरत है?

जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा कभी नहीं लिया तथा जो जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्रीय आंदोलन के नायकों को अक्सर अपशब्द कहते हैं, एकाएक उनके अंदर स्वाधीनता संग्राम के बड़े नायक सुभाष चंद्र बोस के‌ प्रति प्रेम क्यों जाग गया?
Netaji Subhash Chandra Bose

8 सितंबर 2022 को दिल्ली में इंडिया गेट के निकट स्थित छतरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 फुट ऊंची नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा का अनावरण किया था। इससे पहले इस छतरी के नीचे सम्राट जॉर्ज पंचम की मूर्ति लगी थी जिसे आज़ादी के बाद वहां से हटा दिया गया था। लंबे समय तक वास्तुकारों तथा बौद्धिक जगत में यह बहस चलती रही कि इस स्थान पर किसकी मूर्ति लगाई जाए। एक समय में यहां महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की मूर्ति लगाने तक की चर्चा भी चली थी।

ज्ञातव्य है कि मूर्ति स्थापना के बाद इस जगह और लाल किले में ‌एक‌ बड़ा सांस्कृतिक आयोजन भी हुआ था, जिसे प्रधानमंत्री ने आज़ाद हिंद फौज की‌ ड्रेस पहनकर संबोधित भी किया था। 8 सितंबर नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित आज़ाद हिंद फौज का स्थापना दिवस भी है। इस अवसर पर विशेष डाक टिकट और सिक्के भी जारी किए गए। यहां पर महत्वपूर्ण बात यह है, कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा कभी नहीं लिया तथा जो जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्रीय आंदोलन के नायकों को अक्सर अपशब्द कहते हैं, एकाएक उनके अंदर स्वाधीनता संग्राम के बड़े नायक सुभाष चंद्र बोस के‌ प्रति प्रेम क्यों जाग गया?

इस प्रश्न के उत्तर की तलाश करने के लिए हमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन और स्वाधीनता संग्राम में उनकी भूमिका की पड़ताल करनी होगी।‌ निस्संदेह वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बड़े अग्रणी नेता थे। उनका जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में एक समृद्ध हिंदू कायस्थ परिवार में हुआ था, उनके पिता शहर के बड़े वकील थे। सुभाष चंद्र बोस बचपन से कुशाग्र बुद्धि के थे। 15 वर्ष की आयु में ही उन्होंने विवेकानंद का संपूर्ण साहित्य पढ़ लिया था। ऐसा भी कहा जाता है कि वे संन्यासी बनना चाहते थे, इसलिए बचपन में कई बार घर से भाग कर हिमालय गए, इससे यह सिद्ध होता है कि उन पर भारतीय आध्यात्मिकता गहरा प्रभाव था। 1919 में उन्होंने बीए ऑनर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और कोलकाता विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।

पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें, किंतु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से चौबीस घंचे का समय यह सोचने के लिये मांगा, ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अंतिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे, कि क्या किया जाये। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितंबर 1919 को इंग्लैंड चले गये। परीक्षा की तैयारी के लिये लंदन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर किसी तरह किट्स विलियम हॉल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु उन्हें प्रवेश मिल गया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हॉल में एडमीशन लेना तो बहाना था,असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था,सो उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर लिया। इसके बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचंद्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही, कि उनके दिलो-दिमाग पर तो तो महर्षि दयानंद सरस्वती और ‘महर्षि अरविंद घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रखा है, ऐसे में आईसीएस बनकर वे अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पायेंगे? 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई.एस. मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। एक पत्र ‘देशबंधु चित्तरंजन दास को लिखा, किंतु अपनी मां प्रभावती का यह पत्र मिलते ही कि "पिता,परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे, उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।" सुभाष जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आए।

इसके बाद की उनके राजनीतिक जीवन की यात्रा बहुत ही प्रभावशाली और आकर्षक है। पहले वे कांग्रेस में रहे, बाद में उन्होंने ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ नामक अपना एक अलग राजनीतिक दल बनाया। अपनी राजनीतिक गतिविधियों के कारण वे जब कोलकाता में घर में नज़रबंद थे, तब 16 जनवरी 1941 में वे पुलिस को चकमा देकर निकल गए तथा पठान का वेश धरकर पेशावर होते हुए काबुल पहुंचे,वहां से रूस में मास्को से होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंच गए। बर्लिन में वे अनेक नेताओं के साथ-साथ वहां के सर्वोच्च नेता हिटलर से मिले। जर्मनी में उन्होंने ‘भारतीय स्वतंत्रता संगठन’ और ‘आज़ाद हिंद रेडियो’ की स्थापना की। उस समय द्वितीय महायुद्ध की शुरूआत हो चुकी थी। जर्मनी के नेता हिटलर, इटली के मुसोलिनी तथा जापान के तोजो का एक सैन्य गठबंधन था, दूसरी ओर इंग्लैंड, रूस तथा अन्य राष्ट्रों का संगठन था, जिन्हें ‘मित्र राष्ट्रों का संगठन’ कहा गया तथा हिटलर के नेतृत्व वाले संगठनों को ‘धुरी राष्ट्र संगठन’ कहा गया। नेताजी सुभाषचंद्र बोस इन्हीं धुरी राष्ट्रों के संगठन को साथ लेकर भारत को आज़ाद कराना चाहते थे, क्योंकि ये राष्ट्र अंग्रेजों के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ रहे थे। इसके बाद की कहानी सर्वविदित है, कि किस तरह उन्होंने जापान में ‘आज़ाद हिंद फौज’ का गठन किया तथा जापानी फ़ौजों के साथ वे कोहिमा तथा मणिपुर तक पहुंच गए थे, परंतु द्वितीय महायुद्ध में जापान और धुरी राष्ट्रों की भारी पराजय हुई, तब नेताजी ने नया रास्ता ढूंढना‌ ज़रूरी समझा तथा रूस से सहायता मांगने का निश्चय किया। 18 अगस्त 1945 को वे हवाई जहाज से मंचूरिया की ओर जा रहे थे। ऐसा माना जाता है कि उसी दिन ताइवान के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया तथा उनकी मौत भी हो गई।‌ भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैन्य अस्पताल में रात 9 बजे हो गई।

निश्चित रूप से विदेश में जाकर एक सेना का गठन करके अपने देश को आज़ाद कराने का यह उपक्रम विश्व इतिहास में अनूठा और बिल्कुल अकेला है, जिसका भारतीय स्वाधीनता आंदोलन पर बाद में भी गहरा प्रभाव पड़ा, परंतु कुछ प्रश्न ऐसे हैंं, जिस पर हमें इस प्रतिभा की चकाचौंध से अलग रहकर विचार करना चाहिए। नेताजी का भारत को आज़ाद कराने के लिए हिटलर, मुसोलिनी या तोजो जैसे फासीवादी और नाजीवादी शासकों से सहायता लेना क्या एक रणनीतिक भूल नहीं थी या फ़िर उस हिटलर से सहायता लेना, जिसके हाथ ख़ुद ही लाखों यहूदियों के ख़ून से रंगे थे? क्या तोजो, मुसोलिनी और हिटलर दुनिया भर में एक भयानक नस्लवादी शासन की स्थापना नहीं करना चाहते थे? क्या ‌इसका आभास नेताजी को नहीं था? दूसरा प्रश्न यह है कि नेताजी बार-बार भारतीय पुरातन संस्कृति और सभ्यता की प्रशंसा अपने लेखों और भाषणों में करते थे तथा वे अरविंद घोष, स्वामी दयानंद सरस्वती और विवेकानंद के विचारों से गहराई से प्रभावित थे तथा उन्हीं के आदर्शों के अनुसार देश भी बनाना चाहते थे। सैन्यवाद और हिंदू कट्टर धार्मिक आध्यात्मिकता संघ परिवार की विचारधारा से काफ़ी हद तक मिलती-जुलती है, इन्हीं कारणों से जवाहरलाल नेहरू के मुकाबले संघ परिवार को आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस लुभा रहे हैं, हालांकि नेताजी को भी इस बात की कल्पना नहीं होगी कि उनके विचारों का प्रयोग इस प्रकार होगा?

भगत सिंह ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू की तुलना करते हुए पंजाबी पत्रिका ‘किरती’ में एक लेख में लिखा था, जिससे हमें यह बात और भली प्रकार से समझ में आती है। जुलाई 1928 में प्रकाशित लेख ‘नये नेताओं के अलग-अलग विचार’ में इन दोनों नेताओं की एक तुलनात्मक समीक्षा की है:-

“इस समय जो नेता आगे आए हैं वे हैं-बंगाल के पूजनीय श्री सुभाष चंद्र बोस और माननीय पंडित श्री जवाहरलाल नेहरू। यही दो नेता हिंदुस्तान में उभरते नजर आ रहे हैं और युवाओं के आंदोलनों में विशेष रूप से भाग ले रहे हैं। दोनों ही हिंदुस्तान की आज़ादी के कट्टर समर्थक हैं। दोनों ही समझदार और सच्चे देश भक्त हैंं, लेकिन फिर भी इनके विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। एक को भारत की प्राचीन संस्कृति का उपासक कहा जाता है, तो दूसरे को पक्का पश्चिम का शिष्य। एक को कोमल हृदय वाला भावुक कहा जाता है और दूसरे को पक्का युगांताकारी। हम इस लेख में उनके अलग-अलग विचारों को जनता के समक्ष रखेंगे, ताकि जनता स्वयं उनके अंतर को समझ सके और स्वयं भी विचार कर सके।

अब हम श्री सुभाष चंद्र बोस और श्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर आ रहे हैं। दो-तीन महीनों से आप बहुत-सी कॉन्फ्रेंसों के अध्यक्ष बनाए गए और आपने अपने-अपने विचार लोगों के सामने रखे। सुभाष बाबू को सरकार तख्तापलट गिरोह का सदस्य समझती है और इसीलिए उन्हें बंगाल अध्यादेश के अंतर्गत कैद कर रखा था। आप रिहा हुए और गर्म दल के नेता बनाए गए। आप भारत का आदर्श पूर्ण स्वराज्य मानते हैं और महाराष्ट्र कॉन्फ्रेंस में अध्यक्षीय भाषण में अपने इसी प्रस्ताव का प्रचार किया।

पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वराज पार्टी के नेता मोतीलाल नेहरू ही के सुपुत्र हैं। बैरिस्टरी पास हैं। आप बहुत बड़े विद्वान हैं। आप रूस आदि का दौरा कर आए हैं। आप भी गर्म दल के नेता हैं और मद्रास कॉन्फ्रेंस में आपके और आपके साथियों के प्रयासों से ही पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव स्वीकृत हो सका था। आपने अमृतसर कॉन्फ्रेंस के भाषण में भी इसी बात पर जोर दिया, लेकिन फिर भी इन दोनों सज्जनों के विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। अमृतसर और महाराष्ट्र कॉन्फ्रेंसों के इन दोनों अध्यक्षों के भाषण पढ़कर ही हमें इनके विचारों का अंतर स्पष्ट हुआ था, लेकिन बाद में बंबई के एक भाषण में यह बात स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ गई। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस जनसभा की अध्यक्षता कर रहे थे और सुभाष चंद्र बोस ने भाषण दिया। वह एक बहुत भावुक बंगाली हैं। उन्होंने भाषण आरंभ किया कि हिंदुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष संदेश है। वह दुनिया को आध्यात्मिक शिक्षा देगा। खैर…. आगे वे दीवाने की तरह कहना आरंभ कर देते हैं—चांदनी रात में ताजमहल को देखो और जिस दिल की यह सूझ का परिणाम था, उसकी महानता की कल्पना करो। सोचो एक बंगाली उपन्यासकार ने लिखा है कि हममें यह हमारे आंसू ही जमकर पत्थर बन गए हैं। वह भी वापस वेदों की ओर ही लौट चलने का आह्वान करते हैं। आपने अपने पूना वाले भाषण में ‘राष्ट्रवादिता’ के संबंध में कहा है कि अंतर्राष्ट्रीयतावादी, राष्ट्रीयतावाद को एक संकीर्ण दायरे वाली विचारधारा बताते हैं, लेकिन यह भूल है। हिंदुस्तानी राष्ट्रीयता का विचार ऐसा नहीं है। वह न संकीर्ण है, न निजी स्वार्थ से प्रेरित है और न उत्पीड़नकारी है, क्योंकि इसकी जड़ या मूल तो ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ है अर्थात् सच, कल्याणकारी और सुंदर।’

यह भी वही छायावाद है। कोरी भावुकता है। साथ ही उन्हें भी अपने पुरातन युग पर बहुत विश्वास है। वह प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं। पंचायती राज का ढंग उनके विचार में कोई नया नहीं। ‘पंचायती राज और जनता के राज' वे कहते हैं कि हिंदुस्तान में बहुत पुराना है। वे तो यहां तक कहते हैं कि साम्यवाद भी हिंदुस्तान के लिए नई चीज नहीं है। खैर, उन्होंने सबसे ज्यादा उस दिन के भाषण में जोर किस बात पर दिया था कि हिंदुस्तान का दुनिया के लिए एक विशेष संदेश है। पंडित जवाहरलाल आदि के विचार इसके बिल्कुल विपरीत हैं। वे कहते हैं —

* “जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया के लिए एक विशेष संदेश है। इंग्लैंड दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनता है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यकीन है।”

* “प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक,आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलां बात कुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए।”

यह एक युगांतारकारी के विचार हैं और सुभाष के एक राज-परिवर्तनकारी के विचार हैं। एक के विचार में हमारी पुरानी चीजें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए। एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगान्तरकारी और विद्रोही। पंडित जी एक स्थान पर कहते हैं —

* “जो अब भी कुरान के जमाने के अर्थात् 1300 बरस पीछे के अरब की स्थितियां पैदा करना चाहते हैं, जो पीछे वेदों के जमाने की ओर देख रहे हैं उनसे मेरा यह कहना है कि यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि वह युग वापस लौट आएगा, वास्तविक दुनिया पीछे नहीं लौट सकती, काल्पनिक दुनिया को चाहे कुछ दिन यहीं स्थिर रखो। और इसीलिए वे विद्रोह की आवश्यकता महसूस करते हैं।”

सुभाष बाबू पूर्ण स्वराज के समर्थन में हैं क्योंकि वे कहते हैं कि अंग्रेज पश्चिम के वासी हैं। हम पूर्व के। पंडित जी कहते हैं, हमें अपना राज कायम करके सारी सामाजिक व्यवस्था बदलनी चाहिए। उसके लिए पूरी-पूरी स्वतंत्रता प्राप्त करने की आवश्यकता है। सुभाष बाबू मजदूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। पंडित जी एक क्रांति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं। सुभाष भावुक हैं — दिल के लिए। नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए। दूसरा युगांतरकारी है जो कि दिल के साथ-साथ दिमाग को भी बहुत कुछ दे रहा है।

* “हमारा समाजवादी सिद्धांतों के अनुसार पूर्ण स्वराज होना चाहिए, जो कि युगांतरकारी तरीकों के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। केवल सुधार और मौजूदा सरकार की मशीनरी की धीमी-धीमी की गई मरम्मत जनता के लिए वास्तविक स्वराज्य नहीं ला सकती।”

यह उनके विचारों का ठीक-ठाक अक्स है। सुभाष बाबू राष्ट्रीय राजनीति की ओर उतने समय तक ही ध्यान देना आवश्यक समझते हैं, जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिंदुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है, परंतु पंडित जी राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं।

अब सवाल यह है कि हमारे सामने दोनों विचार आ गए हैं। हमें किस ओर झुकना चाहिए। एक पंजाबी समाचारपत्र ने सुभाष की तारीफ़ के पुल बांधकर पंडित जी आदि के बारे में कहा था कि ऐसे विद्रोही पत्थरों से सिर मार-मारकर मर जाते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि पंजाब पहले ही बहुत भावुक प्रांत है। लोग जल्द ही जोश में आ जाते हैं और जल्द ही झाग की तरह बैठ जाते हैं।

सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे हैं। अब आवश्यकता इस बात की है, कि पंजाब के नौजवानों को इन युगांतरकारी विचारों को खूब सोच-विचार कर पक्का कर लेना चाहिए। इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है और यह पंडित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अंधे पैरोकार बन जाना चाहिए, लेकिन जहां तक विचारों का संबंध है, वहां तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इंकलाब के वास्तविक अर्थ, हिंदुस्तान के इंकलाब की आवश्यकता और दुनिया में इंकलाब का स्थान क्या है? इन सब चीजों के बारे में जान सकें। सोच-विचार के साथ नौजवान अपने विचारों को स्थिर करें, ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले खड़े होकर दुनिया से मुकाबले में डटे रह सकें। इसी तरह जनता इंकलाब के ध्येय को पूरा कर सकती है।

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