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हिंदी का थोपा जाना एक बुरा विचार क्यों है? यह विचार सबसे कमज़ोर लोगों पर ही प्रहार क्यों करता है?

हमने राष्ट्र, लोकतंत्र, संविधानवाद और क़ानून के शासन के अपने विचार अंग्रेज़ों से लिए हैं। सवाल है कि सिर्फ़ अंग्रेज़ी भाषा को ही क्यों ख़त्म किया जाना चाहिए, वह भी सरकार की चलायी जा रही शिक्षा व्यवस्था से ?
Hindi

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने जिस भारतीय राष्ट्रवाद को निर्मित किया है, उसकी भावनाओं की लहर पर सवार होकर ही वे सत्ता में आये। उनका राष्ट्रवाद का विचार न तो मूल रूप से भारतीय है और न ही हमारी प्राचीन सभ्यता पर आधारित है। संस्कृत या पाली में रचित भारतीय साहित्य से राष्ट्रवाद की अवधारणा की शुरुआत नहीं है। हमें ठीक-ठीक पता तो नहीं है कि हिंदी भाषा का संरचना कब हुआ, लेकिन एक बात तो तय है कि हिंदी की वर्णमाला, अक्षर और शब्द निर्माण प्रणाली से संकेत मिलता है कि इसकी उत्पत्ति संस्कृत भाषा से ही हुई है। इसकी शब्दावली, व्याकरण और संचार शैली भी आंतरिक रूप से संस्कृत से ही जुड़ी हुई हैं।

कई सूबों में हिंदी सबसे नज़दीकी भाषा लग सकती है, लेकिन यह सच नहीं है। भारत के वास्तविक हिंदी भाषी राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश हैं। दक्षिण भारतीय राज्यों, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, उत्तर पूर्व क्षेत्र, कश्मीर और उर्दू भाषी लोगों का हिंदी भाषा से कोई लेना-देना नहीं है। हालांकि, आरएसएस और बीजेपी चाहते हैं कि सभी केंद्रीय संस्थान हिंदी में ही पढ़ायें-इस तरह का कोई शासनादेश निजी संस्थानों को तो नहीं दिया जा रहा है,  जो केवल इसलिए पैसा कमाते हैं,  क्योंकि वे अंग्रेजी में शिक्षा देते हैं। हालांकि, आरएसएस-भाजपा की योजना के साथ ही हिंदी थोपने का ख़तरा हर ग़ैर-हिंदी भाषी राज्य तक भी पहुंच जायेगा।

हालांकि, राष्ट्रवाद के हमारे विचार अपने मौजूदा मायने के साथ ही विकसित हुए हैं, इसे लेकर धारणायें उन लोगों द्वारा या उनके बीच नहीं फैली थीं, जिन्होंने भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था। यह सच है कि अंग्रेज़ों ने कभी भी औपनिवेशिक भारत को अपने संपूर्ण अर्थों में एक राष्ट्र होने के योग्य नहीं माना, लेकिन यह भी सच है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक विद्वानों और शिक्षाविदों ने ही भारत में राष्ट्रवाद के विचार को पेश किया था। उन्होंने इस काम को भारतीय मूल के अंग्रेज़ी-शिक्षित अभिजात वर्ग के ज़रिए अंजाम दिया। इसलिए, शुरुआती भारतीय लेखक या नेता, जिन्होंने भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखना शुरू किया था,उनमें अंग्रेज़ी-शिक्षित विद्वान लोग थे,जिनमें राजा राम मोहन राय और दादाभाई नौरोजी जैसे शुरुआती नेता थे। हिन्दी के विद्वानों या लेखकों ने भारत के एक राष्ट्र के रूप में इस तरह के विचार की कभी कल्पना भी नहीं की थी।

जब हमने राष्ट्र, लोकतंत्र, संविधानवाद और क़ानून के शासन के अपने विचार अंग्रेज़ों से लिए, तो केवल अंग्रेज़ी भाषा को ही क्यों समाप्त किया जाना चाहिए ? वह भी हम सरकारी संस्थानों से ख़ासकर अंग्रेज़ी को ख़त्म करना चाहते हैं। अंग्रेज़ी भाषा ने राष्ट्रवाद और लोकतंत्र को लेकर पर्याप्त विचार दिए।यह विचार भारत में पहले अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल के 1817 में शुरू होने के बाद से 205 साल तक जीवित रहे हैं,लेकिन यह विचार केवल द्विज अभिजात वर्ग के बीच में रहा।मगर, आज इतने समय बाद हम देखते हैं कि अंग्रेज़ी भारतीय गांवों और मज़दूर जनता के घरों में दाखिल हो रही है।

आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और नागालैंड में सभी सरकारी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है। ग़रीब बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पढ़कर अमीर बनने की ख़्वाहिश पालते हैं। भाजपा नेताओं की तरह कुछ लोहियावादी अपने बच्चों को निजी अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में भेजते हैं, लेकिन अंग्रेज़ी को ख़त्म करने का उपदेश देते हैं। IIT, IIM और केंद्रीय विश्वविद्यालयों जैसे सरकारी संस्थानों से अंग्रेज़ी को हटाने की कोशिश बेहद मक्कारी से की जा रही है। इसका क्या मतलब है ? सवाल है कि क्या वे अशोका यूनिवर्सिटी, जिंदल यूनिवर्सिटी, एमिटी यूनिवर्सिटी आदि के लिए भी ऐसा ही कर सकते हैं ? सभी निजी अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों ने सर्वोच्च न्यायालय में छात्रों, उनके माता-पिता और अभिभावकों को पसंद की भाषा में पढ़ाने के कई मुकदमे जीते हैं। दरअस्ल, निजी क्षेत्र में आरक्षण की समस्या ही इस पहेली की कुंजी है।

निजी क्षेत्र में उच्च शिक्षा उन सभी के लिए अस्वीकार्य है, जिन्हें हिंदी या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा में नौकरी मिलने की उम्मीद है। यह तब भी नहीं बदलेगा, जब निजी संस्थान कुछ छात्रों को दाखिला देने के दौरान तरज़ीही हल प्रदान करते हैं।

भाजपा और लोहियावादी उन जगहों पर सरकार द्वारा संचालित संस्थानों से अंग्रेज़ी को बाहर निकालने का लक्ष्य बना रहे हैं, जहां सत्तारूढ़ दल के पास छात्रों और माता-पिता की पसंद के बावजूद किसी भी भाषा को थोपने की शक्ति है। इन जगहों पर हिंदी के थोपे जाने पर सबसे क्रूर प्रहार होता है। आंध्र प्रदेश सरकार ने भाजपा और तेलुगु देशम पार्टी के विरोध के बीच न्यायिक लड़ाई जीतने के बाद सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा शुरू कर दी है। तेलंगाना बिना किसी परेशानी के सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी माध्यम में स्थानांतरित इसलिए हो सकता है, क्योंकि आंध्र प्रदेश सरकार ने शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी को सफलतापूर्वक अपनाया था। इसने राज्य के सभी सरकारी और निजी स्कूलों में एक अनिवार्य तेलुगु विषय रखा है।

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना दोनों ही सरकारों ने कक्षा एक से दस तक के छात्रों के लिए मिलते-जुलते पाठ्यपुस्तकों को अपनाया है। इन पाठ्य पुस्तकों में एक पृष्ठ पर अंग्रेज़ी और मुख पृष्ठ पर तेलुगु में पाठ है। इस तरह, छात्र कम उम्र से ही अंग्रेज़ी सीखते हुए अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान तेलुगु के संपर्क में रहते हैं। भविष्य में और ज़्यादा शिक्षण और सीखने के नये-नये तरीक़े निस्संदेह सामने आयेंगे।

हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार धीरे-धीरे घड़ी की सूई को वापस घुमाने की कोशिश कर रही है। लोहियावादियों का एक वर्ग अब भी हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाने की उनकी नीति का समर्थन करता है। अतीत में भी शिक्षित लोहियावादी और गांधीवादी स्कूलों में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी के ख़िलाफ़ बोलते रहे थे। लेकिन, जब उनके ख़ुद के बच्चों की बात आयी, तो उन्होंने ठीक इसके उलटा किया। चूंकि लोहिया अविवाहित थे, इसलिए हम उन पर उस दोहरेपन का आरोप तो नहीं लगा सकते, लेकिन हम उनके अनुयायियों पर आरोप ज़रूर लगा सकते हैं। हम जानते हैं कि गांधी के पोते और परपोते केवल अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में ही पढ़े थे, और कई तो विदेशों में रहते हैं।

लोहियावादियों ने उत्तर प्रदेश और बिहार में आरक्षण और शूद्र/पिछड़े वर्ग की राजनीति में सकारात्मक भूमिका निभायी है। लेकिन, उन्होंने अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के लोगों की ऊपर की ओर गतिशीलता को रोकने के लिए एक दोधारी अंग्रेज़ी विरोधी खेल खेला। अब स्वराज अभियान के नये अवतार में इस संगठन के मुखिया योगेंद्र यादव भी यही कर रहे हैं।

वह भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ चलने और अन्य राज्यों और उच्च शिक्षण संस्थानों और निचली अदालतों पर हिंदी थोपने के केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता वाली समिति के फ़ैसले के साथ चलने का मज़ेदार खेल खेल रहे हैं। इस प्रकार, बड़े पैमाने पर नौजवानों की ऊर्ध्वगामी गतिशीलता को बाधित किया जा रहा है।

दक्षिण भारत ने पहले ही दिखा दिया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा अच्छी तरह से काम कर सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल दक्षिण के ज़्यादतर परिवारों में पश्चिम देशों में नौकरी या काम करने वाला कोई न कोई व्यक्ति है, जिसमें अंग्रेज़ी पसंदीदा भाषा है। यह मंडल के बाद की घटना है, जब सामान्य रूप से शिक्षा और अंग्रेज़ी शिक्षण और सीखने को लेकर एक नयी चेतना ग्रामीण जनता में फैल गयी।

गांव के हिंदी माध्यम के स्कूलों और वहां अंग्रेज़ी को सिर्फ़ एक विषय के रूप में पढ़ने का सिद्धांत फ़र्ज़ी है। जब तक सरकारी और निजी स्कूलों और ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में शिक्षा का एक आम माध्यम नहीं होगा, तब तक सबके लिए समान अवसर नहीं मिल सकता। 21वीं सदी के वैश्वीकृत भारत में अंग्रेज़ी को ख़त्म करना तो दूर की बात है,इसे पाठ्यक्रम से दूर भी नहीं किया जा सकता। ऐसा करने का प्रयास कोई बुद्धिमान तरीक़ा भी नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पहली पीढ़ी के अंग्रेज़ी सीखने वालों के लिए समस्यायें हो सकती हैं। लेकिन, यह साबित हो गया है कि ऐसे छात्र अगर एक क्षेत्रीय भाषा में पढ़ते हैं और बाद में अंग्रेज़ी सीख लेते हैं,तो वे अपनी इन समस्याओं को जल्द ही दूर कर लेते हैं।

मसलन, पिछड़े ग्रामीण तेलंगाना के वारंगल ज़िले के मेरे गांव पपैयापेट में 2002 में स्थापित अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में सिर्फ़ मज़दूर के बच्चे पढ़ते हैं। फिर भी यह देखा गया है कि जो छात्र इन स्कूलों में पढ़ते हैं,उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक कम वेतन पर काम करते हैं, लेकिन तेलुगु माध्यम के स्कूलों में शिक्षित छात्रों की तुलना में ये छात्र बेहतर प्रदर्शन करते हैं। इस स्कूल से पास होने वाले कई छात्रों ने आईटी, मेडिसिन और इसी तरह के दूसरे प्रतिष्ठित संस्थानों में जगह बनायी है। उनकी प्रतिस्पर्धा का स्तर हैदराबाद के पब्लिक स्कूलों से पास होने वालों से कम नहीं है।

सभी बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम में दी जाने वाली शिक्षा राष्ट्रवाद और देशभक्ति के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को बाधित नहीं कर पायेगी। आरएसएस, बीजेपी और लोहियावादी मुख्य रूप से ग़रीबों की शिक्षा के सिलसिले में अंग्रेज़ी विरोधी हैं। उत्तर के राज्यों में इनके अंग्रेज़ी विरोध ने पहले ही निजी अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में शिक्षित छात्रों और हिंदी माध्यम के स्कूलों में शिक्षित छात्रों के बीच शैक्षिक उपलब्धि के लिहाज़ से भारी खाई पैदा कर दी है। वहीं दक्षिण भारत में यह सामाजिक खाई कहीं ज़्यादा संकरी है।

उम्मीद है कि कई राज्य आरएसएस-भाजपा सरकार और उसकी विचारधारा के मानने वालों के सरकारी-शिक्षा मॉडल पर इस नयी रणनीति का विरोध करेंगे कि निजी स्कूलों में शिक्षा का अंग्रेज़ी माध्यम और सरकारी स्कूलों में हिंदी माध्यम अपनाया जाए। अंग्रेज़ी भाषा भारतीय है, और हर बच्चे को कम उम्र से ही इस भाषा में पढ़ने का अधिकार होना चाहिए।

लेखक एक राजनीतिक सिद्धांतकार, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं। वह 30 साल से सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा को लेकर प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why Hindi Imposition is a Bad Idea and Hurts the Poorest Most

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