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क्यों एक राजनीतिक दल का चुनाव चिन्ह महज़ प्रतीकात्मक होने से कुछ ज़्यादा है

क़ानून के उन बड़े सवालों पर एक नज़र, जिन पर सुप्रीम कोर्ट को शिवसेना चुनाव चिन्ह मामले में फ़ैसला करना चाहिए।
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किसी भी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल का चुनाव चिन्ह, हालांकि सार में बहुत प्रतीकात्मक लग सकता है, लेकिन या तब महत्वपूर्ण हो गया जब हाल के दिनों में शिवसेना समूह के एक गुट को भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) ने अपने आदेश के तहत चुनाव चिन्ह दे दिया। महाराष्ट्र के पूर्व-मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग केंद्र का "गुलाम" है और उन "चोरों" को खत्म करने की कसम खाई है जिन्हें मूल शिवसेना का नाम और धनुष और तीर का चिन्ह दिया गया है।

इससे पहले, 2012 में, उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के दौरान चुनाव आयोग के फैसले की तीखी आलोचना हुई थी, जब उसने सार्वजनिक पार्कों में हाथियों की मूर्तियों को ढंकने का आदेश दिया था- हाथी बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिन्ह है। चिन्हों ने बड़े हिस्से की आलोचना और व्यंग्य को आकर्षित किया और अक्सर उन्हे राजनीतिक मुद्दों को नाटकीय बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में 1820 के दशक में, डेमोक्रेटिक पार्टी के चिन्ह गधे का इस्तेमाल, राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार एंड्रयू जैक्सन को संयुक्त राज्य अमेरिका के बैंक से फेडरल डीपोजिट को हटाने के लिए उनकी नीतियों पर व्यंग कसने के लिए "जैक-एस" के रूप में किया गया था। 

हालांकि राजनीतिक दल संसदीय लोकतंत्र का एक अभिन्न हिस्सा हैं, भारत के संविधान में दसवीं अनुसूची को छोड़कर उन राजनीतिक दलों के गठन और कामकाज के बारे में कुछ नहीं बताया गया है, जो पार्टियों के दल-बदल से संबंधित है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए) 1951 का भाग IV ए, ईसीआई द्वारा किसी पार्टी के पंजीकरण, धन उगाहने और खातों की रिपोर्टिंग से संबंधित है।

संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत अपनी पूर्ण शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए, ईसीआई ने चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 जारी किया, ताकि चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए चुनाव के दौरान उनके विशेष इस्तेमाल के लिए पंजीकृत राजनीतिक दलों को चिन्ह आवंटित किए जा सकें। इस अर्ध-न्यायिक आदेश के अनुसार, किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल में विभाजन की स्थिति में, चुनाव आयोग को यह निर्णय लेने की शक्ति हासिल है कि प्रतिद्वंद्वी वर्गों या समूहों में से कौन-सा या उनमें से कोई भी- मूल और मान्यता दल राजनीतिक दल उस चिन्ह को हासिल करेगा। 

इस प्रकार, किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के लिए चिन्ह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि यह चुनाव के दौरान अपने सभी उम्मीदवारों द्वारा इस्तेमाल किए जाने के लिए आरक्षित होता है। चिन्ह पार्टी के सभी पदाधिकारियों और समर्थकों को एकजुट करता है और इस प्रकार वह एक राजनीतिक दल का चिन्ह बनता है। राजनीतिक दल के चुनाव चिन्ह के बारे में आरपीए खामोश है। हालांकि यह सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए प्रतीकात्मक चीज़ है- जिसमें किसी पार्टी का चिन्ह उसे उसकी संपत्ति, बुनियादी ढांचे या कार्यालयों पर कोई अधिकार नहीं देता है – लेकिन विभाजन के मामले में यह महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ईसीआई का निर्णय एक गुट को मूल मान्यता प्राप्त पार्टी के रूप में एक तरह की वैधता देता है – और दूसरे को उससे वंचित करता है। 

चुनाव आयोग, किसी विवाद को हल करने में, यह तय नहीं करता है कि कौन सा समूह पार्टी का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन कौन सा समूह वह पार्टी है। इसका आदेश, अपनी अर्ध-न्यायिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए, न्यायसंगत है। इसलिए, पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने तत्काल सुनवाई के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश ने उद्धव ठाकरे की याचिका को लिया गया है।

इस बहस का सार वह आधार है जिस पर चुनाव आयोग पार्टी के एक गुट को चिन्ह प्रदान करता है। आयोग ने अतीत में चिन्हों पर आदेश जारी किए हैं: कांग्रेस पार्टी के दो हिस्सों में बटने दौरान, जब पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले गुट ने चिन्ह पर दावा किया था; जब तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता के गुट ने एआईएडीएमके के चुनाव चिह्न पर दावा किया था; और जब उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव गुट ने समाजवादी पार्टी के चिन्ह पर दावा किया था, और चुनाव चिन्ह से संबंधित ऐसे हे मामले आयोग के सामने आते रहे हैं। आयोग के उक्त सब आदेश न्यायिक समीक्षा की कसौटी पर खरे उतरे हैं, जिसमें शीर्ष अदालत ने फैसला दिया कि बहुमत की जांच ही मार्गदर्शक सिद्धांत होना चाहिए।

अब, महाराष्ट्र मामले में बिना किसी पूर्वाग्रह के, प्रासंगिक सवाल यह उठता है कि क्या आयोग के पास यह पता लगाने का साधन है कि किसी पार्टी के बहुमत सदस्य किस गुट का समर्थन करते हैं या नहीं। किसी भी राजनीतिक दल में न केवल उसका एक विधायी विंग होता है - जिसके सदस्य पार्टी विधान सभा या संसद को भेजती है - बल्कि उसका संगठनात्मक विंग भी है, जो पार्टी के लक्ष्यों और उद्देश्यों को तय करता है और उन्हे आगे बढ़ाता है। यद्यपि निर्वाचित सदस्य विधायिका में एक राजनीतिक दल के सदस्यों के रूप में कार्य करते हैं, वे अपनी पार्टी व्हिप से बंधे होते हैं। अर्थात्, वे विधायिका में ऐसे किसी विचार को व्यक्त नहीं कर सकते हैं जो उनकी पार्टी के दृष्टिकोण के विपरीत है, जिसे कि पार्टी व्हिप के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।

एक राजनीतिक दल एक व्यापक संगठन होता है, जो एक संविधान के आधार पर गठित होता है और इसमें ऐसे सदस्य शामिल होते हैं जिनका प्रतिनिधित्व इसकी संगठन समितियों के माध्यम से किया जाता है, जिन्हें पार्टी सदस्यों द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए सदस्यों द्वारा भरा जाना कानूनी रूप से अनिवार्य है। यह स्थापित कानून है कि बहुमत की जांच को पार्टी की संगठन समितियों और विधायी विंग दोनों में संतुष्ट होना पड़ता है।

चुनाव आयोग के आदेश ने शिवसेना की संगठन समितियों में बहुमत की जांच को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इसकी संगठन समिति के सदस्य लोकतांत्रिक तरीके से नहीं चुने गए थे। जिस आधार पर इसने यह राय बनाई, वह यह है कि पार्टी ने 2018 में अपने संविधान में संशोधन करके अपनी संगठन समिति के सदस्यों को भरने का प्रावधान किया, न कि पारदर्शी चुनावों के माध्यम से ऐसा किया गया था। इसके अलावा, आरपीए के अनुसार, एक पंजीकृत पार्टी के लिए यह अनिवार्य है कि वह सभी परिवर्तनों और "किसी भी अन्य महत्वपूर्ण मामले" को बिना किसी देरी के आयोग को सूचित करे। शिवसेना के पार्टी संविधान में उक्त संशोधन की जानकारी आयोग को नहीं दी गई थी।

जो भी है, अब बुनियादी सवालों को अदालत को सुलझाना होगा। एक सवाल तो यह है कि क्या आयोग के पास किसी पार्टी की संगठन समितियों में बहुमत की जांच को इस आधार पर नजरअंदाज करने की शक्ति है कि उसके सदस्य लोकतांत्रिक तरीके से नहीं चुने गए थे। दूसरा सवाल यह है कि क्या एक गुट को चुनाव चिन्ह आवंटित करने के लिए चुनाव आयोग का पूरी तरह से और विशेष रूप से पार्टी के विधायी विंग में बहुमत की जांच पर निर्भर रहने का निर्णय कानून के अनुसार है। इसके अलावा, यदि पार्टी ने अपने संविधान में परिवर्तनों की सूचना न देकर आरपीए का उल्लंघन किया, तो क्या आयोग के पास उसकी मान्यता वापस लेने जैसे कोई अन्य उपाय थे? या जब चुनाव आयोग ने पार्टी के एक गुट के पक्ष में पार्टी का चिन्ह आवंटित करने का फैसला किया तो क्या ईसीआई ने अपनी शक्ति का उचित और सही इस्तेमाल किया है? कानून के ये व्यापक प्रश्न हैं जिनका निर्णय सर्वोच्च न्यायालय को करना चाहिए।

(लेखक, सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं, चुनाव आयोग के पूर्व महानिदेशक रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Symbol of a Political Party is More Than Symbolic

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