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मिश्नरीज़ ऑफ चैरिटी के FCRA रजिस्ट्रेशन के नवीनीकरण का आवेदन क्यों ख़ारिज हुआ?

मिशनरीज ऑफ चैरिटी क्या है? यह क्या काम करता है कि इसका एफसीआरए रजिस्ट्रेशन के नवीनीकरण का आवेदन ख़ारिज किया गया। 
Missionaries of Charity's
Image Courtesy : National Herald

क्रिसमस के दिन अचानक सरकार ने मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी को टार्गेट किया। गृह मंत्रालय की तरफ से खबर आई कि इस संस्था के एफसीआरए रजिस्ट्रेशन के नवीनीकरण के आवेदन को खारिज कर दिया गया है। अपने स्टेटमेंट में गृह मंत्रालय ने यह भी कहा कि उन्होंने केवल एफसीआरए रजिस्ट्रेशन के नवीनीकरण के आवेदन को खारिज किया संस्था के अकाउंट को फ्रीज नहीं किया। संस्था के अकाउंट को फ्रीज करने का निवेदन संस्था की तरफ से ही दिया गया था। इसमें गृह मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं है। जबकि नाम ना बताने की शर्त पर इस संस्था में काम करने वाले एक अंदरूनी व्यक्ति ने बताया है कि भीतर खाने मामला दूसरा है। बस सामने इस तरह से प्रस्तुत किया गया है कि गृह मंत्रालय पर सीधे आरोप ना लगे।

कौन नहीं जानता कि इस संस्था की स्थापना नोबल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा ने किया था। इस संस्था ने लगातार 1950 से वर्षों से समाज के सबसे अधिक वंचित लोगों की सेवा की-बेघर लोगों की, बीमार व अनाथ बच्चों की, मरने का इन्तेज़ार कर रहे बूढ़ों की और उन लोगों की जिन्हें जीने के लिए दो जून की रोटी नहीं मिलती। भारत में इस संगठन के द्वारा 244 आश्रय गृह चलाए जा रहे हैं। बताया जाता है कि उन्हें 107 करोड़ का फंड मिला है, जो इस काम के लिए इस्तेमाल हाता है।

बंगलुरु के सम्मनित इसाई पादरी फादर मनोहर चन्द्र प्रसाद से बात करने पर उन्होंने कहा, ‘‘अभिप्रेरणा स्पष्ट है। यह आरएसएस के हिन्दुत्व ऐजेंडा का हिस्सा है। कई मीडिया कर्मियों का कहना है कि ऐसा अक्सर चुनाव के समय होता है, ताकि वोटरों को साम्प्रदायिक आधार पर धुवीकृत किया जा सके। पर यहां मामला कुछ आगे बढ़ा हुआ है। अक्टूबर माह विजयदशमी के समय आरएसएस प्रधान मोहन भागवत ने हिंदुओं के कन्वज़र्न के चलते डेमोग्राफिक खतरे की बात कही थी। मदर टेरेसा ईसाई धर्म के समर्पण, बलिदान और समाज सेवा की प्रतीक बनकर आई थीं। वह, या मिशनरीज ऑफ चौरिटी, का इवैंजलिज़्म यानि इसाई मत के प्रचार से कोई लेना-देना नहीं था। वे केवल चौरिटी का काम करते रहे हैं। जब तक वह जीवित थी, मदर टेरेसा अनाथों की देखभाल, सड़क पर रहने वाले बच्चों और परित्यक्त महिलाओं के लिए आश्रय व रात के स्कूल चलाने, गरीब बच्चों को रात का भोजन देने और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करके सबसे वंचित बेसहारा लोगों के लिए केवल मानवीय राहत कार्य कर रही थी। अत्यंत गरीब, विशेष रूप से वे जो मानसिक रूप से बीमार हैं, उनके लिए भी। गैर-ईसाइयों के बीच इस संगठन की लोकप्रियता को सहन न कर पाने के चलते दक्षिणपंथी शासन इसकी छवि को धूमिल करना चाहता है।’’

धर्म परिवर्तन का हव्वा क्यों खड़ा किया गया?

बहुत सी ऐसी बातें गृह मंत्रालय की ओर से आती हैं, जिनके लिए कोई सबूत नहीं प्रस्तुत किये जाते। केंद्रीय गृह मंत्रालय का तर्क है कि इस संस्था ने राजस्थान में किसी व्यक्ति का धर्म परिवर्तन किया। तो उस व्यक्ति का नाम बताएं! यह ता हास्यास्पद है कि नाम ही नहीं पता पर आरोप के तहत कार्यवाही हो गई। जबकि मिश्नरीज़ ऑफ चैरिटी के कोलकाता स्थित भवन में 22,000 लोग निवास कर रहे हैं, और देश भर में 1 लाख से अधिक लोगों को अपने घरों में सेवा उपलब्ध कराई गई है, गृह मंत्रालय को मात्र 1 धर्म परिवर्तन का केस मिला, वह भी बिना साक्ष्य के। एक और आरोप है कि लड़कियों से इसाई धर्म संबंधित हिम्स या धार्मिक गीत गवाए गए। फिर उन लड़कियों के शिकायत पत्र को सार्वजनिक क्यों नहीें किया जाता?

धर्मिक भेदभाव से परे

जहां तक लोगों की जानकारी है मदर टेरेसा मानवतावाद की जीती-जागती प्रतिमूर्ति थीं जिन्होंने वंचितों की सेवा करते हुए कभी उनका धर्म नहीं पूछा। साम्प्रदायिक, राजनीतिक या जातीय झगड़ों में जो घायल हुए दोनों ओर के लोगों का उपचार उन्होंने समान रूप से किया। यहां तक कि भाजपा के नेता व पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने उनके बारे में कहा था, ‘‘ऐसे समय में जब मानव जाति स्वार्थी उद्देश्यों से प्रेरित है, उन्होंनेे निस्वार्थ भाव से उन लोगों को दिया, जिन्हें समाज ने त्याग दिया और भुला भी दिया। निराशावाद और अविश्वास के युग में वह विश्वास को समझने के लिए एक प्रतीक हैं।’’ आज तक मदर टेरेसा के विरुद्ध धर्म परिवर्तन का एक भी मामला संघ के किसी संगठन को नहीं मिला है।

कार्यवाही के पीछे की मंशा को भांपते हुए फादर प्रसाद कहते हैं, ‘‘दरअसल संघ परिवार के संगठन मदर टेरेसा की सेवा का मुकाबला नहीं कर पाए। आरएसएस के सेवा संगठन या उससे जुड़े किसी भी शख़्सियत को हर धर्म के लोगों के बीच वैसी लोकप्रियता व सम्मन नहीं मिला था जो मदर टेरेसा को मिला, यहां तक कि हिंदुओ से भी! इसलिए वे इस संस्था से इतने ख़फ़ा थे कि ईसा के जन्मदिन को कार्यवाही के लिए चुना लिया। बेहतर होता कि संघ परिवार सेवा के मामले में मदर से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा में उतर जाता।’’

एक मानव अधिकार कार्यकर्ता, जो पहले एक फंडिंग एजेंसी के चीफ थे, ने बताया कि मीडिया में काफी हल्ला होने के बाद ही गृह मंत्रालय के नौकरशाह अब कह रहे हैं कि लाइसेंस रद्द करने के पीछे कारण था आवेदन पत्र में कुछ तकनीकी त्रुटि। यदि यह सच है, तो भी प्रश्न उठता है कि वर्तमान महामारी के दौर में जब मदर टेरेसा का संगठन अनुकरणीय कार्य कर रहा है, क्या एक छोटी तकनीकी गलती के चलते उसका काम रोक दिया जाएगा? क्या गृह मंत्रालय उन्हें गलती सुधारने का मौका नहीं दे सकता था?’’

आगे वे कहते हैं कि “विडंबना यह है कि नए एफसीआरए नियम 2020 स्वयं-विरोधाभासी हैं। एक ओर, ये नए नियम निर्धारित करते हैं कि स्थापना शुल्क कुल व्यय के 20% से अधिक नहीं होना चाहिए। लेकिन जब वह वंचित लोगों की गहन देखभाल काम में शामिल है, तो यह एक ऐसे ढांचे की मांग करता है जिसमें स्वास्थ्य सेवा करने वाले स्वयंसेवकों और परामर्श विशेषज्ञ सहित बड़ी संख्या में अन्य स्वयंसेवक हों। काम को जारी रखने के लिए इन लोगों को उचित वेतन भुगतान करना होगा। दूसरी ओर, अतिरिक्त आवश्यकताओं को जोड़ा जाय - जैसे मंत्रालय के लिए सभी गतिविधियों की एक अलग दोहराव ऑडिट रिपोर्ट तैयार करना होता है जबकि एफसीआरए फंडों का आरबीआई द्वारा पहले ही ऑडिट किया जाता है - लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए इस तरह का काम ओवरहेड्स को बढ़ाती है और उनकी अनुपालन लागत भी बढ़ती है।”

नागरिक समाज के खिलाफ बड़ी साजिश

दक्षिणी राज्य के एक और पादरी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा,‘‘मिश्नरीज़ ऑफ चैरिटी के विरुद्ध कार्यवाही एक बड़ी योजना का हिस्सा है, जो नागरिक समाज संगठनों यानि स्वयंसेवी संगठनों के खिलाफ है।’’

दरअसल एनजीओ ही राहत और पुनर्वास कार्य के प्रमुख वाहक बन कर उभरे थे और मोदी सरकार द्वारा उनपर एफसीआरए के तहत कार्यवाही शुरू हुई, उसके चलते कोविड-19 संबंधी राहत कार्य रुक गया है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भाजपा की कार्यवाही की वजह से कोविड राहत कार्य में एनजीओज़ को लगने ही नहीं दिया गया। जिन स्वयंसेवी संगठनों को सुनामी राहत के लिए दूसरे देशों से भारी फंड मिले थे, मोदी जी की अदूरदर्शिता के चलते कोविड के दौर में उनके पर काट दिये गए। इसके चलते 2020 में देश के गरीबों को कम से कम 10,000 करोड़ रु के राहत से वंचित कर दिया गया। मस्लन कासा संस्था-चर्चेस ऑक्सिलियरी फॉर सोशल ऐक्शन के 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में शाखाएं हैं और उन्होंने कोविड के दोनों लहरों के दौरान बहुत काम किया था-बीमारों को भर्ती कराना, खाना पहुंचाना, प्रवासी मज़दूरों की मदद करना, ऑक्सिजन और दवाएं पहुंचाना आदि। संगठन के श्री जयंत ने कहा कि अब हमने अपनी शाखाओं को हिदायत दे दी है कि जनवरी से काम रोक दें, तो ओमिक्रॉन के दौर में यदि हमपर प्रतिबंध लग जाएंगे, देश की जनता को भारी नुकसान पहुंचेगा।

नागरिक समाज पर हमलों का सिलसिला

गरीबों और मजलूमों को राहत पहुंचाना या उनका पुनर्वास करना तबतक संभव नहीं होगा जबतक हम उनके अधिकारों की बात न करें। इसलिए स्वयंसेवी संगठन मानवाधिकार के मुद्दे को भी लगातार उठाते हैं, जांच रिपोर्टें जारी करते हैं और गरीबों को कानूनी सहायता दिलाते हैं। पर वे और उनको फंड मुहय्या कराने वाली एजेंसियां संसदीय या चुनावी राजनीति के मामले में पूरी तरह गैर-राजनीतिक हैं।

क्या कारण है कि मोदी सरकार इनसे इतनी अधिक डरी हुई है? क्यों छोटे-से-छोटे एनजीओ भी उनको भयाक्रान्त कर रहे हैं? शायद इसका प्रमुख कारण है कि वे जनता के बुनियादी मुद्दों पर काम कर रहे हैं जहां मोदी सरकार बुरी तरह विफल साबित हुई है।

इसलिए पहले सत्र में मोदी सरकार ने एनजीओ कार्यकर्ताओं के विरुद्ध विचहंट शुरू किया और कइयों को जेल भेज दिया। फिर 2020 में उन पर दोबारा गाज गिरी जब गृह मंत्रालय ने नए एफसीआरए संशोधन कानून के तहत नये एफसी संशोधन नियम 2020 की नोटिफिकेशन की। इनके तहत कई बिना मतलब के बाध्यकारी प्रावधान बने हैंः

1.देेश भर के एनजीओज़ को दिल्ली के एक खास एसबीआई शाखा में खाता खोलने को कहा गया, जिसमें विदेशी अनुदान आएंगे। 

तमिल नाडु विमेंस कलेक्टिव की शीलू फ्रांसिस ने हमें बताया कि ‘‘छोटे स्वयंसेवी संगठनों को भारी नुकसान हो रहा है। वे कैसे इतने कागज़ात तैयार करेंगे और दिल्ली भागते रहेंगे? उनका पूरा काम ठप्प पड़ा है।’’

2. पहले तो बड़े एनजीओ, जिन्हें काफी बड़ी मात्रा में विदेशी फंड मिलता था, छोटे स्वयंसेवी संगठनों को अनुदान देकर उन्हें ग्रासरूट स्तर पर काम करने की जिम्मेदारी देते थे। नए नियम के तहत वे एफसीआरए के तहत आने वाले छोटे समूहों को तक पैसा नहीं दे सकते।

3. नए नियम के अनुसार जो संगठन विदेशों से अनुदान प्राप्त कर रहे हैं उन्हें राजनीतिक संगठन माना जाएगा यदि ‘‘वे सक्रिय राजनीति में या दलीय राजनीति में हिस्सा लेते हैं’’ और ऐसे में उनके उनके एफसीआरए लाइसेंस रद्द किये जा सकते हैं।

4. एक और नियम कहता है कि किसी एनजीओ को यदि 1 करोड़ रु से अधिक विदेशी फंड मिलता है, मंत्रालय इसे किश्तों में देगी और किश्त की रकम सरकार तय करेगी। पहली किश्त के बाद एनजीओ को गृह मंत्रालय के पास इस बाबत रिपोर्ट भेजनी होगी कि कितना पैसे कैसे खर्च हुए। उसकी जांच से संतुष्ट होने पर मंत्रालय अगली किश्त देगा। यह तो एनजीओ की गतिविधियों की ‘पुलीसिंग’ हुई।

5. पहले एक बार पंजीकरण होता था और वह संगठन के जीवन पर्यन्त चलता था। अब एफसीआरए लाईसेंस का सालाना नवीनीकरण करना होगा। यही नहीं, नवीनिकरण के लिए आवेदन के साथ समस्त पदाधिकारियों, कार्यकताओं व सदस्यों को ऐफिडेविट व पैन तथा आधार नेबर देने होंगे। यह तो एनजीओ की कड़ी निगरानी हुई।

6. एनजीओज़ के सालाना रिटर्न की निगरानी के बाद मंत्रालय तय करेगा कि नवीनीकरण होगा या नहीं। वे बिना कारण नवीनिकरण रोक भी सकते हैं। 

इस पादरी ने बताया कि ऐसा भी पता चला कि गृह मंत्रालय ने अनौपचारिक तौर पर कुछ फंडिंग एजेंसियों से पूछा कि वे क्यों केवल चर्च के संगठनों को अनुदान दे रहे हैं और आरएसएस के तहत काम करने वाले सेवा संगठन को नहीं। तो हम समझ सकते हैं कैसे चर्च के विरुद्ध सचेत रूप से काम हो रहा है। आरएसएस के सेवा भारती के संगठनों के एफसीआरए लाइसेंस कभी भी रद्द नहीं किये जाते, जैसा कि उनकी कार्यवाही रिपोर्ट से पता चलता है।

आरएसएस ने भारतीय राज्य पर कब्जा जमा लिया है और अब सिविल सोसाइटी को नियंत्रित करने के फेर में है। सामाजिक कार्यकर्ता रवि हिमाद्रि का कहना है कि यह एक सोची समझी साजिश के तहत हो रहा है। ऐसी कार्यवाही के चलते ढेर सारे एनजीओ कार्यकर्ता बेरोज़गार होंगे और जनता के बीच सेवा का काम बंद हो जाएगा। एफसीआरए विभाग एकमात्र ऐसा विभाग है जो किसी सवाल का जवाब नहीं देता। तो 30 लाख से अधिक पंजीकृत एनजीओज़ का भविष्य अधर में लटका हुआ है।  

(लेखिका सामाजिक कार्यों से जुड़ी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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