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पंजाब की सियासत में महिलाएं आहिस्ता-आहिस्ता अपनी जगह बना रही हैं 

जानकारों का मानना है कि अगर राजनीतिक दल महिला उम्मीदवारों को टिकट भी देते हैं, तो वे अपने परिवारों और समुदायों के समर्थन की कमी के कारण पीछे हट जाती हैं।
women in politics
छवि सौजन्य: इंडिया टाइम्स.कॉम 

पंजाब में पहला विधानसभा 1952 में चुनाव हुआ था। तब से, लेकर आज सात दशकों से भी अधिक समय बीत जाने के बावजूद हम राज्य विधानसभा में महिलाओं का कोई महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं देखते हैं। यहां सवाल उठता है: सदन से महिलाएं गायब क्यों हैं, और उन्हें यहां आने से क्या रोक रहा है? 

पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर डॉ पोम्पा मुखर्जी कहती हैं, "इसका जवाब पाने के लिए पहले हमें राज्य के सामाजिक ताने-बाने को समझना होगा। पंजाब में, भारत के अन्य राज्यों की तरह, अभी भी पितृसत्तात्मक और सामंती दृष्टिकोणों का प्रभुत्व बना हुआ है। यहां जाति व्यवस्था और भूमि-स्वामित्व सत्ता की गतिशीलता पर और राजनीतिक-सामाजिक निर्णय लेने वालों पर,उनके नेतृत्व के रास्ते पर हावी है। दुर्भाग्य से, महिलाओं के पास न तो जमीन है और न ही संपत्ति और न ही उन्हें सत्ता में भागीदार बनाने के तरीके से लालन-पालन किया गया है। उन्हें राजनीतिक या सामाजिक रूप से भी कोई उचित स्थान नहीं मिलता है।" हालांकि, वे आगे कहती हैं कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और नेताओं के रूप में राजनीति में उनके प्रतिनिधित्व के बीच अंतर करना महत्त्वपूर्ण है। 

पंजाब में महिलाएं राजनीतिक प्रतिभागियों के रूप में उल्लेखनीय रूप से अच्छा प्रदर्शन करती हैं।​ 2018​ के ​उस कानून को शुक्रिया कहिए जिससे कि पंजाब में पंचायतों और शहरों के स्थानीय निकायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के लिए 50 फीसदी आरक्षण को अनिवार्य किया गया। इसकी वजह से ही आज पंजाब में पंचायती राज संस्थाओं (पीआरआइ) के कुल निर्वाचित 10,0312 सदस्यों में महिला प्रतिनिधियों की तादाद 41,912 हो गई है। स्थानीय निकायों में महिला भागीदारी की यह संख्या कुल प्रतिनिधित्व की 40 फीसदी से अधिक ठहरती है। 
हालांकि, यह मानना भोलापन होगा कि पंजाब में स्थानीय स्तर पर महिलाओं की बढ़ती भागीदारी का मतलब है कि वे घर और बाहर के सभी मामलों में निर्णय ले रही हैं और विधायकों के रूप में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ गया है, या अब राज्य के पुरुष नेतृत्व की भूमिकाओं में महिलाओं को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं।

भारतीय किसान यूनियन एकता उग्राहन की महिला नेता हरिंदर बिंदू का मानना है कि इन पदों पर महिलाओं की भूमिका सिर्फ एक व्यक्ति की होती है, निर्णय लेने वाली नेता की नहीं होती। उनके शब्दों में: "भले ही वे बड़ी संख्या में चुन कर विधानसभा में पहुंच जाएं पर वे एक स्वतंत्र निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होंगी"। दुर्भाग्य से, ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं पर पुरुषों, विशेष रूप से जमींदार समुदाय या 'अभिजात वर्ग' का वर्चस्व और प्रभाव जारी है। 

पिछले विधानसभा चुनावों में, महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों की तुलना में अधिक था, वह ​78 फीसदी से लेकर ​79 फीसदी तक था।​ ​प्रो मुखर्जी इस ट्रेंड को विधानसभा में प्रतिनिधियों के चुनाव में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के एक मजबूत संकेतक के रूप में देखती हैं। हालाँकि, राजनीतिक दल इस वृद्धि को बढ़ते हुए वोट बैंक के रूप में देखते हैं, और इसलिए, वे अपने वादों, योजनाओं और कार्यक्रमों के जरिए महिला-मतादाताओं को लुभाने के लिए दौड़ पड़ते हैं। प्रो. मुखर्जी आगे कहती हैं कि राजनीतिक दल खुद पितृसत्तात्मक मानसिकता में इस कदर गहरे तक धंसे हुए हैं कि वे शायद महिला उम्मीदवारों को 'विजेता' के रूप में नहीं देख पाते हैं और उन महिलाओं को टिकट नहीं देते, जो चुनाव लड़ना चाहती हैं। 

1957 से लेकर 2017 तक केवल 507 महिलाएं ही चुनाव मैदान में रही थीं और उनमें भी मात्र 86 उम्मीदवार चुनाव जीत सकी थीं। इस बारे में उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक 2012 में, प्रदेश के 67 विधानसभा क्षेंत्रों में 93 महिलाएं उम्मीदवार थीं, जिनमें 14 प्रत्याशी ही विजयी रही थीं। फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनावों में, विभिन्न राजनीतिक दलों की तरफ से मात्र 28 महिला चुनाव मैदान में अपनी किस्मत आजमा रही हैं (आम आदमी पार्टी ने 117 में 12 महिलाओं को, कांग्रेस ने 109 में से 11 को, संयुक्त समाज मोर्चा या एसएसएम ने 110 में से 2 को, भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों ने 106 में 8 को तथा शिरोमणि अकाली दल ने 117 सीटों में से 5 महिलाओं को ही टिकट दिए हैं)। 

इस परिदृश्य को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि महिलाओं को राजनीति में अपनी उपस्थिति और स्थान के लिए लंबी लड़ाई लड़नी होगी। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर राजनीतिक पार्टियां उन्हें टिकट देती हैं तो भी वे अपने परिवार एवं समुदाय का समर्थन न मिलने की वजह से चुनाव हार जाती हैं। 

बरनाला जिले के एसडी कॉलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफेसर शोएब जफर कहते हैं: "मतदाताओं के रूप में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में बहुत ही धीमा एवं क्रमशः बदलाव आया है।" 

वे आगे कहते हैं: "हाल के किसान आंदोलन ने महिलाओं को उन मामलों के बारे में अधिक जागरूक किया है, जो उन्हें चिंतित करती हैं और वे उन मसलों के बारे में सवाल पूछने लगी हैं। लिहाजा, इस बार जब वे वोट देंगी, तो उनके मन में पहला सवाल होगा कि वे खुद किसे वोट देना चाहती हैं, न कि वे इस पर गौर करेंगी उन्हें किसे वोट देने के लिए कहा गया है।" 

पितृसत्ता से अलग होने और पुरुष के समान के समाज-व्यवस्था में महिलाओं को अपना सही स्थान पाने में समय लगेगा। लेकिन, पंजाब में महिलाएं बदलाव की ओर बढ़ रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के एसजीटीबी खालसा कॉलेज में सहायक प्रोफेसर अनूप कौर संधू  पंजाब में नई शुरू की गई एसएसएम पार्टी की उम्मीदवार हैं, जो अभी भी एक चुनाव चिह्न पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, उनको लगता है कि वे पहले से ही एक विजेता हैं क्योंकि वे उन नेताओं को चुनौती देने के लिए सामने आई हैं, जो राजनीति और सत्ता में लंबे समय से हैं तथा स्थापित एवं समृद्ध राजनीतिक दलों से आते हैं। 

संधू स्वयं के बाहर आने और चुनाव लड़ने के निर्णय को अन्य महिलाओं के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करने के रूप में देखती हैं। वे इस बात को रेखांकित करती हैं कि राजनीति केवल करोड़पतियों के बारे में नहीं है बल्कि यह आम पुरुषों और महिलाओं के बारे है या दूसरे शब्दों में कहें तो यह समूची जनता की शक्ति के बारे में है। 

प्रोफ़ेसर ज़फ़र आशान्वित महसूस करते हैं कि निकट भविष्य में पंजाब में स्थानीय स्तर पर और साथ ही निर्णय लेने के अन्य स्तरों पर महिलाओं की अधिक भागीदारी देखी जाएगी। 

पंजाब में परिवर्तन हो तो रहा है, पर धीरे-धीरे। राज्य में महिलाएं एक मूक क्रांति की शुरुआत कर रही हैं। वे तेजी से सीख रही हैं, अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हो रही हैं, अपनी पसंद के नेताओं को चुनने के लिए मतदान कर रही हैं और प्रतिनिधि भूमिकाओं के लिए अपनी तत्परता प्रदर्शित करने के लिए चुनाव लड़ रही हैं। महिलाएं साझा जमीन को फिर से हासिल करने के लिए किसान आंदोलन में भाग लेकर एक दबाव समूह भी बन गई हैं, लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण बात उनका अपने अधिकारों पर दावा जताना है। 

अंग्रेजी में लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें 

Women Few and Far Between in Punjab Politics, But Slowly Making Inroads

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