मंगलेश डबराल नहीं रहे
अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त देश के प्रतिष्ठित कवि मंगलेश डबराल नहीं रहे। आज बुधवार रात दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में उन्होंने आख़िरी सांस ली। वे पिछले दिनों कोरोना से संक्रमित हो गए थे। पहले उनका ग़ाज़ियाबाद के एक अस्पताल में इलाज चला। सुधार न होने पर उन्हें दिल्ली के एम्स लाया गया। यहां वे वेंटिलेटर पर रखे गए।
उनके निधन की ख़बर सुनते ही देश में शोक की लहर दौड़ गई है। मंगलेश जी न केवल एक संवेदनशील कवि-लेखक थे, बल्कि वे कला के भी पारखी थे और पत्रकार भी।
16 मई 1948 को टिहरी गढ़वाल में जन्में मंगलेश डबराल पूरे जीवन में वे एक वाम लोकतांत्रिक व्यापक विचार पर अडिग रहे और अपने लेखन में जनवाद की हिमायत करते रहे। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित इस कवि ने अपने विचार और व्यापक जनहित में अपना पुरस्कार भी वापस करने से गुरेज नहीं किया और इसके लिए दक्षिणपंथी नेताओं और ट्रोल आर्मी के तीखे हमले भी झेले।
मंगलेश जी ने वर्ष 2015 में देश में बढ़ती असहिष्णुता और कन्नड़ के प्रख्यात साहित्यकार एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया था।
उनके लेखन के तेवर और तासीर आप इन चंद पंक्तियों से लगा सकते हैं। ‘तानाशाह’ शीर्षक की कविता में वह कहते हैं-
तानाशाह सुन्दर दिखने की कोशिश करते हैं,
आकर्षक कपड़े पहनते हैं,
बार-बार सज-धज बदलते हैं,
लेकिन यह सब अन्तत: तानाशाहों का मेकअप बनकर रह जाता है।
इतिहास में कई बार तानाशाहों का अन्त हो चुका है,
लेकिन इससे उन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता
क्योंकि उन्हें लगता है वे पहली बार हुए हैं।
इस 72 साल के जीवन में मंगलेश जी के कई कविता संकलन आए। पहाड़ पर लालटेन (1981), घर का रास्ता (1988), हम जो देखते हैं (1995), आवाज़ भी एक जगह है और सबसे नया कविता संग्रह रहा- नए युग में शत्रु। ‘हम जो देखते हैं’ के लिए ही उन्हें वर्ष 2000 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला।
मंगलेश जी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था जन संस्कृति मंच (जसम) से लंबे समय से जुड़े थे और वर्तमान में उसके राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे।
न केवल भारतीय भाषाओं में मंगलेश जी की कविताओं का अनुवाद हुआ बल्कि अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, डच, फ्रांसीसी, स्पानी, इतालवी, पुर्तगाली, बल्गारी, पोल्स्की आदि विदेशी भाषाओं के कई संकलनों और पत्र-पत्रिकाओं में मंगलेश डबराल की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित हुए।
अपने नए कविता संग्रह- नए युग में शत्रु में वे इसी नाम से कविता में लिखते हैं-
अंततः हमारा शत्रु भी एक नए युग में प्रवेश करता है
अपने जूतों कपड़ों और मोबाइलों के साथ
वह एक सदी का दरवाज़ा खटखटाता है
और उसके तहख़ाने में चला जाता है
जो इस सदी और सहस्राब्दी के भविष्य की ही तरह अज्ञात है
वह जीत कर आया है और जानता है कि अभी पूरी तरह नहीं जीता है
उसकी लड़ाइयाँ बची हुई हैं
हमारा शत्रु किसी एक जगह नहीं रहता
लेकिन हम जहाँ भी जाते हैं पता चलता है वह और कहीं रह रहा है
अपनी पहचान को उसने हर जगह अधिक घुला-मिला दिया है
जो लोग ऊँची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उसके कारिंन्दे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है ताकि हम उसे खोजने की कोशिश न करें
वह अपने को कम्प्यूटरों, टेलीविजनों, मोबाइलों
आइपैडों की जटिल आँतों के भीतर फैला देता है
किसी महँगी गाड़ी के भीतर उसकी छाया नज़र आती है
लेकिन वहाँ पहुँचने पर दिखता है वह वहाँ नहीं है
बल्कि किसी दूसरी और ज़्यादा नई गाड़ी में बैठ कर चल दिया है
कभी लगता है वह किसी फ़ैशन परेड में शिरक़त कर रहा है
लेकिन वहाँ सिर्फ़ बनियानों और जाँघियों का ढेर दिखाई देता है
हम सोचते हैं शायद वह किसी ग़रीब के घर पर हमला करने चला गया है
लेकिन वह वहाँ से भी जा चुका है
वहां एक परिवार अपनी ग़रीबी में से झाँकता हुआ टेलीविजन देख रहा
जिस पर एक रंगीन कार्यक्रम आ रहा है
हमारे शत्रु के पास बहुत से फ़ोन नंबर हैं, ढेरों मोबाइल
वह लोगों को सूचना देता है आप जीत गए हैं
एक विशाल प्रतियोगिता में आपका नाम निकल आया है
आप बहुत सारा कर्ज़ ले सकते हैं, बहुत-सा सामान ख़रीद सकते हैं
एक अकल्पनीय उपहार आपका इन्तज़ार कर रहा है
लेकिन पलट कर फ़ोन करने पर कुछ नहीं सुनाई देता
हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालाँकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है
हम सब एक दूसरे के मित्र हैं
आपसी मतभेद भुलाकर
आइए, हम एक ही थाली में खाएँ एक ही प्याले से पिएँ
वसुधैव कुटुम्बकम् हमारा विश्वास है
धन्यवाद और शुभरात्रि ।
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