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साल 2023: महिलाओं को और सशक्त बना सकते हैं सुप्रीम कोर्ट के ये पांच बड़े फ़ैसले

नए साल में सुप्रीम कोर्ट के सामने महिला अधिकारों से जुड़े कई मामले सुनवाई के लिए तैयार हैं। इसमें हिजाब विवाद से लेकर महिला आरक्षण बिल और अन्य कई अहम मुद्दों पर फ़ैसला आने की उम्मीद है।
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साल 2022 में देश की अदालतों ने कई बार अपने प्रगतिशील फैसलों से पितृसत्ता और मनुवादी सोच को झकझोरा, सरकार-प्रशासन को कड़ी फटकार लगाने के साथ ही महिलाओं को एक नई आशावादी बेहतर कल की उम्मीद भी दी। अब नए साल 2023 का आगाज़ हो गया है। ऐसे में इस नए साल में तमाम उठा-पठक के बीच देश की सर्वोच्च अदालत में महिला अधिकारों से जुड़े कई अहम मुद्दों पर सुनवाई और फैसला आने की उम्मीद है। एक नज़र ऐसे ही चर्चित मामलों पर, जिस पर फैसले का पूरे देश खासकर आधी आबादी को इंतज़ार है...

हिजाब विवाद

कर्नाटक हिजाब मामले में कई दिनों तक चली लंबी सुनवाई के बाद 13 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने विभाजित फैसला सुनाया था। जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ इस मामले पर एकमत नहीं हो पाई थी, जिसके चलते इसे बड़ी बेंच के पास भेजे जाने की सिफारिश हुई थी। फैसला सुनाते हुए जस्टिस गुप्ता ने कहा था कि हमारे अलग-अलग विचार हैं इसलिए ये मामला चीफ जस्टिस के पास भेजा जा रहा है ताकि वह बड़ी बेंच का गठन करें। फिलहाल मामले पर कोई ठोस फैसला ना आने के चलते कर्नाटक हाईकोर्ट का फ़ैसला जारी है।

बता दें कि हिजाब विवाद में कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। कर्नाटक सरकार ने इस साल पांच फरवरी को एक आदेश दिया था, जिसमें स्कूल-कॉलेजों में समानता, अखंडता और सार्वजनिक व्यवस्था में बाधा पहुंचाने वाले कपड़ों को पहनने पर बैन लगाया गया था। हाई कोर्ट ने शिक्षण संस्थानों में हिजाब पर बैन हटाने से इनकार करते हुए कर्नाटक सरकार के इस आदेश को कायम रखा था।

इस साल कर्नाटक से लेकर ईरान तक हर तरफ़ हिजाब-ए-इख़्तियारी का नारा बुलंद हुआ। इसका मतलब साफ था कि एक महिला की हिजाब को चुनने की पसंद और आज़ादी होनी चाहिए, फिर वो इसे पहनना चाहे या उतार कर फेंकना चाहे। ईरान में महिलाओं ने विरोध स्वरूप हिजाब जलाया, तो वहीं भारत में कई सामाजिक और नागरिक संगठन न चाहते हुए भी इसकी ओर कदम बढ़ाने लगे, वो इसके हिमायती नहीं थे लेकिन वो इसे जबरन उतरवाने के ख़िलाफ़ थे। उन्हें डर था कि इसके चलते कहीं मुस्लिम लड़कियां शिक्षा से दूर न हो जाएं और शायद यही वजह है कि विरोध में और ज़्यादा महिलाओं ने हिजाब की ओर कदम बढ़ा दिए हैं।

नए साल 2023 में सुप्रीम कोर्ट इस विवाद को लेकर फिर से सुनवाई कर सकती है, ऐसे में अदालत का जो भी फैसला हो उसका व्यापक असर देखने को मिलेगा क्योंकि ये मुद्दा अब धर्म और शिक्षा से काफी आगे चला गया है।

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मैरिटल रेप

इस साल दिल्ली हाई कोर्ट ने 11 मई को मैरिटल रेप को अपराध बनाने की अर्जी पर खंडित फैसला दिया था। दो जजों की बेंच में जस्टिस राजीव शकधर ने कहा था कि मैरिटल रेप समानता और जीवन के अधिकार का उल्लंघन करता है। इसलिए इसे अपराध की श्रेणी में रखा जाए। वहीं दूसरे जज जस्टिस सी हरिशंकर ने इसके विपरीत विचार रखते हुए कहा था कि यह संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था।

सुप्रीम कोर्ट ने 16 सितंबर को सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था। अब इस मामले में अगली सुनवाई फरवरी 2023 में होनी है। देश में मैरिटल रेप को अपराध मानने की मांग लंबे समय से है। ऐसे में अब समाज से वैवाहिक बलात्कार जैसी बुराई को हटाने के लिए सर्वोच्च अदालत ही अब एकमात्र उम्मीद नज़र आती है।

मालूम हो कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में बलात्कार की परिभाषा बताई गई है और उसे अपराध माना गया है। कोर्ट में दाखिल याचिकाओं में इस धारा के अपवाद 2 पर आपत्ति जताई गई है। ये अपवाद कहता है कि अगर एक शादी में कोई पुरुष अपनी पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाता है, जिसकी उम्र 15 साल या उससे ऊपर है तो वो बलात्कार नहीं कहलाएगा, भले ही उसने वो संबंध पत्नी की सहमति के बगैर बनाए हों। हालांकि साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने महिला की आयु 18 साल कर दी थी। लेकिन सवाल अभी भी बरकरार है कि क्या शादी के बाद पति को पत्नी का शारीरिक शोषण करने का लाइसेंस मिल जाता है।

इससे पहले साल 2017 में केंद्र सरकार ने अपने हलफ़नामे में कहा था कि मैरिटल रेप को अपराध करार नहीं दिया जा सकता है और अगर ऐसा होता है तो इससे शादी जैसी पवित्र संस्था अस्थिर हो जाएगी। इसी तरह सरकार ने यह तर्क भी दिया था कि इसे अपराध की श्रेणी में लेने से महिलाओं को अपने पतियों को सताने के लिए एक आसान हथियार मिल जाएगा। इसके बाद हाई कोर्ट ने इसकी समीक्षा के लिए एमिकस क्यूरी यानी न्याय मित्र नियुक्त किए थे, जिन्होंने आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 को हटाने की बात कही थी।

ध्यान रहे कि निर्भया कांड के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि असहमति से बनाए गए शारीरिक संबंध को बलात्कार की परिभाषा में शामिल किया जाना चाहिए। इस रिपोर्ट में मैरिटल रेप के लिए अलग से क़ानून बनाने की मांग की थी। उनकी दलील थी कि शादी के बाद सेक्स में भी सहमति और असहमति को परिभाषित करना चाहिए।

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संसद और राज्य विधानसभाओं में 33% महिला आरक्षण

नवंबर, 2022 में गैर सरकारी संगठन नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वूमेन द्वारा दायर महिला आरक्षण की एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया था। इस याचिका में लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण सुरक्षित करने के लिए महिला आरक्षण विधेयक, 2008 को फिर से पेश करने की मांग की गई है।

इस मामले पर सुनवाई के दौरान जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस जे के माहेश्वरी की पीठ ने कहा था कि ये 'काफी महत्व का मुद्दा उठाया गया।' पीठ ने केंद्र से छह सप्ताह की अवधि के भीतर अपना जवाब दाखिल करने का आदेश देते हुए एनजीओ को अपना प्रत्युत्तर हलफनामा दाखिल करने के लिए तीन सप्ताह का और समय दिया था। अब इस मामले को मार्च 2023 के महीने में आगे की सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है।

बता दें कि साल 1996 में महिला आरक्षण बिल को पहली बार एच.डी. देवगौड़ा में नेतृत्व वाली सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया था। लेकिन देवगौड़ा की सरकार बहुमत से अल्पमत में आ गई जिस कारण यह विधेयक पास नहीं कराया जा सका। फिर साल 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने लोकसभा में फिर से यह विधेयक पेश किया। लेकिन गठबंधन की सरकार में अलग अलग विचारधाराओं की बहुलता के चलते इस विधेयक को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। साल 1999, 2002 और 2003 में इस विधेयक को दोबारा लाया गया लेकिन रूढ़िवादी नतीजा टस से मस नहीं हुआ।

साल 2008 में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 फ़ीसद महिला आरक्षण से जुड़ा 108वां संविधान संशोधन विधेयक संसद के उच्च सदन राज्यसभा में पेश किया जिसके दो साल बाद साल 2010 में तमाम तरह के विरोधों के बावजूद यह विधेयक राज्यसभा में पारित करा दिया गया। लेकिन लोकसभा में सरकार के पास बहुमत होने के बावजूद यह पारित न हो सका। तब से लेकर अब तक यह विधेयक सरकारी पन्नों में कहीं खो गया है जिसकी जरूरत पुरुषप्रधान राजनीति में महसूस नहीं की गई।

महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किए जाने के कारण यह विधेयक अभी भी जीवित है जिसमें अभी की केंद्र सरकार चाहे तो बहुत ही आसानी से इसे पास करा सकती है। वैसे राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने की बातें बढ़-चढ़ कर की जाती हैं लेकिन सच्चाई यह है कि विधानसभाओं और पंचायती राज संस्थाओं में उनकी हिस्सेदारी बढ़ने की बजाय घट रही है।

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विवाह के लिए एक समान न्यूनतम आयु सीमा

9 दिसंबर, 2022 को धार्मिक नियमों का हवाला देकर नाबालिग मुस्लिम लड़कियों के निकाह को वैध करार देने वाले विभिन्न हाईकोर्ट के फैसलों को चुनौती देने वाली राष्ट्रीय महिला आयोग की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगा है। मामले की अगली सुनवाई आठ जनवरी 2023 को होगी। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ इस मामले में सर्वोच्च अदालत में सुनवाई कर रही है।

महिला आयोग की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कर्नाटक और पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट सहित कई और हाई कोर्ट द्वारा दिए गए फैसलों पर रोक लगाने की मांग करते हुए इसके लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी करने का भी आग्रह किया है। इन फैसलों में पर्सनल लॉ का हवाला देते हुए मुस्लिम लड़कियों की शादी उनके मासिक धर्म शुरू होने के बाद कभी भी किए जाने को जायज ठहराया गया था।

याचिका में आयोग का कहना है कि इन फैसलों से पॉक्सो एक्ट के प्रावधानों का उल्लंघन होगा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट का निर्देश भी है कि 18 वर्ष से कम की आयु की महिला के साथ शारीरिक संबंध रेप है। ऐसे में आयोग ने विवाह के लिए एक समान न्यूनतम आयु सीमा 18 वर्ष तय करने की गुहार लगाई है।

सबरीमाला विवाद

सुप्रीम कोर्ट में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के फ़ैसले के ख़िलाफ़ दाख़िल की गई पुनर्विचार याचिका का मामला बीते लंबे समय से लंबित पड़ा है। नवंबर 2019 में इस पुनर्विचार याचिका को पांच जजों की बेंच ने बड़ी बेंच के पास भेज दिया था। तब से इस मामले में फैसले का इंतज़ार सभी को है। हालांकि महिलाओं के मंदिर में प्रवेश को लेकर अभी भी अदालत का पुराना फैसला ही बरकरार है लेकिन इसका समय-समय पर भारी विरोध देखने को मिलता रहा है। ऐसे में इस साल इस मामले में भी सुनवाई की उम्मीद है।

बता दें कि 28 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने 10 साल से 50 साल की उम्र की महिलाओं को सबरीमाला के भगवान अयप्पा के मंदिर में प्रवेश पर लगी पाबंदी हटा दी थी। यही नहीं अदालत ने मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक की परंपरा को असंवैधानिक भी बताया था। देश के मौजूदा चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने तब अपने फैसले में कहा था कि इस रोक ने महिलाओं की स्वायत्तता, स्वतंत्रता और गरिमा को नष्ट कर दिया है। विशिष्ट रूप से, उन्होंने माना कि इस प्रथा से अनुच्छेद 17 का भी उल्लंघन हुआ है, जो छुआछूत को प्रतिबंधित करता है, क्योंकि इसके तहत महिलाओं को अशुद्धता की अवधारणा से देखा जाता है। इस संबंध में कई याचिकाएं इस फैसले के खिलाफ दाखिल की गई थीं। केरल सरकार ने पुनर्विचार याचिका का विरोध करते हुए कोर्ट में कहा था कि महिलाओं को रोकना हिन्दू धर्म में अनिवार्य नहीं है।

गौरतलब है कि देश के 50वें मुख्य न्यायधीश पद की शपथ लेने के बाद जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के समक्ष न्यायिक पक्ष पर नए साल में सुनवाई के लिए कई हाई-प्रोफाइल मामले हैं। सुप्रीम कोर्ट में पिछले 6 वर्षों में, जस्टिस चंद्रचूड़ ने जितने ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं उनसे जनता को एक सकारात्मक उम्मीद बंधी है और इसलिए कई लोगों खासकर महिला अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वालों की नज़र में वो एक उम्मीद की किरण भी हैं। अबतक के उनके फैसले फिर चाहे वो किसी पहलू से सहमत हों या फिर असहमति जताएं, दोनों ही सूरत में गहरी दिलचस्पी जगाते हैं।

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