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समलैंगिक विवाह पर टिप्पणियां करने की जगह बार काउंसिल को अन्य ज़रूरी कामों पर ध्यान देना चाहिए

बीसीआई को अपने दायरे में आने वाले उन मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए, जहां वह कोई ख़ास फ़र्क़ ला सकती है।
Bar council of India

बीसीआई को अपने दायरे में आने वाले उन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जहां यह कोई बड़ा फ़र्क ला सकती है, जैसे कि यह इस बात को सुनिश्चित कर सकती है कि यह एक अधिक विविध और प्रतिनिधि संस्था बने, और कानूनी शिक्षा और वकीलों/अधिवक्ताओं की स्थिति में सुधार के लिए कदम उठाना उठाए, विशेष कर युवा अधिवक्ताओं पर इसे खास ध्यान देने की जरूरत है न की दूसरों के अधिकारों पर अनावश्यक टिप्पणी करे।

बार काउंसिल ऑफ इंडिया क्या है?

आम जानकार के लिए, बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) भारतीय कानूनी पेशे की सर्वोच्च रेगुलेटरी/नियामक संस्था है। इसमें विभिन्न राज्य की उन बार काउंसिलों से चुने गए 15 सदस्य होते हैं, जो कानूनी पेशे में रेगुलेशन की क्षेत्रीय इकाइयाँ हैं।

इसके सबसे महत्वपूर्ण कामों में वकीलों/अधिवक्ताओं को शामिल करने की रेगगुलेशन बनाना, उन्हें अनुशासित करना और भारत में कानूनी शिक्षा देने वाले संस्थानों को मान्यता देना शामिल है। इसे अखिल भारतीय स्तर पर ‘बार प्रवेश परीक्षा आयोजित करने का काम भी सौंपा गया है, जिसे पास किए बिना, कानूनी शिक्षा में पास स्नातक भारत में वकालत नहीं कर सकता/सकती है।

इस मामले में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए कि कानूनी पेशा खुद को रेगुलेट करने वाला पेशा बना रहे, यह जरूरी हो जाता है कि यह राजनीतिक नौटंकी में लिप्त न हो। जबकि बीसीआई अपने वकीलों से ऊंची नैतिकता बनाए रखने की अपेक्षा रखती है, बीसीआई ने समलैंगिक विवाह की मान्यता से संबंधित भारत के सर्वोच्च न्यायालय में चल रही कार्यवाही के बारे में कुछ दुर्भाग्यपूर्ण और अवांछित टिप्पणियां की हैं।

23 अप्रैल 2023 को, बीसीआई ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय से यह तय नहीं करने को कहा कि समलैंगिक विवाह को भारत में अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं, इस मुद्दे पर कानून बनाने का काम संसद पर छोड़ने देना चाहिए। इसने यह भी दावा किया, यद्यपि बिना किसी सत्यापित शोध के, कि देश के 99.9 प्रतिशत लोग समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के विरोध में हैं, समलैंगिक विवाह को बुरा करार देते हुए कहा कि इसकी इजाजत देने से देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचेगा।

इस लेख में, मैं तीन पुख्ता कारण बताउंगा कि क्यों बीसीआई को इस तरह के किसी अत्यंत संवेदनशील विषय पर इस तरह का गैरजिम्मेदार बयान नहीं देना चाहिए था। मुझे यकीन है ऐसे कई और भी लोग ह्ंगे, जो इन कारणों के बिना भी कहेंगे कि, बीसीआई को इस तरह का  बयान देने से बचना चाहिए था। पहला, बीसीआई के पास इस तरह के बयान देने के लिए प्रतिनिधि पूंजी नहीं है। दूसरा, जबकि बीसीआई का प्रस्ताव सर्वोच्च न्यायालय पर बाध्यकारी नहीं है, इसके निहितार्थ हैं जो भारत के लोगों के दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं, जिसमें बार के सदस्य भी शामिल हैं जो विषमलैंगिक के रूप में अपनी पहचान नहीं रखते हैं उन पर भी पड़ता है। तीसरा, बीसीआई को उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो उसके दायरे में अधिक आते हैं, जिसमें वकीलों/अधिवक्ताओं की बढ़ती संख्या के लिए एक नीति बनाना, बार के कनिष्ठ सदस्यों के शोषण को रोकने के लिए एक नीति बनाना और कानूनी शिक्षा के उच्च मानकों को सुनिश्चित करने के लिए एक नीति बनाना शामिल है। 

बीसीआई वास्तव में उस समुदाय का प्रतिनिधि नहीं है जिसका वह दावा करता है

बीसीआई लगभग छह दशकों से अधिक समय से काम कर रही है। इसका नेतृत्व कभी किसी महिला ने नहीं किया। शायद यही कारण है कि बीसीआई वेबसाइट लिंग-तटस्थ शब्द   'चेयरपर्सन' का इस्तेमाल करने की जहमत नहीं उठाती है, क्योंकि इसमें हमेशा इसका एक 'चेयरमैन' ही होता है। बीसीआई के 61 साल के अस्तित्व में कभी भी कोई मुस्लिम, सिख या ईसाई अध्यक्ष नहीं रहा है। इसका नेतृत्व हमेशा बार के एक हिंदू पुरुष सदस्य ने किया है।

बीसीआई संस्था जो आज हमारे समाने है, वह प्रतिनिधित्व में कमी के समान मुद्दे का सामना कर रही है। बीसीआई में कोई महिला, मुस्लिम, सिख या ईसाई सदस्य नहीं हैं। संस्था में विविधता बढ़ाने के लिए भी बीसीआई की कोई नीति नहीं है। एक स्व-नियामक निकाय के रूप में, यह अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण के संवैधानिक वादों से भी बंधा नहीं है। लेकिन क्या यह सही नहेने होगा कि कानूनी पेशे से जुड़ी कोई सर्वोच्च संस्था वास्तविक समानता के प्रति अधिक प्रतिबद्ध हो? फिर इस पेशे से जुड़े सदस्यों को दूसरों की समानता के लिए लड़ने के लिए कैसे भरोसा किया जा सकता है जब इसकी अपनी रेगुलेटरी/नियामक संस्था शायद सबसे समरूप निकाय है जिसमें विविधता बढ़ाने के लिए कोई हलचल नहीं है?

अपने रैंकों के भीतर विविधता की गंभीर कमी को देखते हुए, बीसीआई का सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह याचिकाओं का विरोध करना अच्छा नज़र नहीं आता है। इसके विपरीत, इसे यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाने चाहिए कि इसके सदस्य लिंग और यौन-अभिविन्यास विविधता के प्रति संवेदनशील हों और LGBTQIA+ के रूप में पहचान करने वालों को कलंकित या बदनाम न करें।

बीसीआई के प्रस्ताव के निहितार्थ शब्दों से परे हैं

सुप्रीम कोर्ट बेशक बार के प्रतिनिधियों द्वारा किए गए अनुरोधों पर विचार कर सकता है; हालाँकि, वे विचार न्यायालय पर बाध्य नहीं है। इसलिए, कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि यह तो बीसीआई का रुख है कि सर्वोच्च न्यायालय को समलैंगिक विवाह मामले की सुनवाई नहीं करनी चाहिए, और यदि प्रस्ताव बाध्यकारी नहीं है तो फिर यह कोई मायने नहीं रखता है?

लेकिन यह घटनाओं का सरलीकरण करना होगा। बीसीआई के प्रस्ताव की एक श्रृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया रही है। दिल्ली के सभी जिला बार एसोसिएशनों ने भी समलैंगिक विवाह मामले की सुनवाई कर रहे सर्वोच्च न्यायालय की निंदा करते हुए प्रस्ताव पारित किए हैं। यह जो कर रहा है वह बार में पहले से ही बदनाम समलैंगिक सदस्यों को कलंकित करता है। अपने कुछ सदस्यों की जीवन शैली की खुले तौर पर और सार्वजनिक रूप से निंदा करके, बार एसोसिएशन पहले से ही अत्यधिक प्रतिस्पर्धी पेशे में, सामाजिक और पेशेवर बहिष्कार के खतरे के साथ समलैंगिक सदस्यों के समाने खुद को समलैंगिक के रूप में पहचान करना कठिन बना दिया है।

बीसीआई की अप-टू-डेट स्थिति तब स्पष्ट हो जाती है जब बीसीआई की वेबसाइट पर सबसे अद्यतन विजन स्टेटमेंट 2011-13 देखने को मिलता है। वास्तव में यह वह समय है जब बीसीआई को अपने 'विजन’ को अद्यतन करना चाहिए। 

बीसीआई के लिए कुछ बातें

अंत में, ऐसा बहुत कुछ है जो बीसीआई कर सकता है, लेकिन नहीं कर रहा है, इसे राजनीतिक इच्छाशक्ति या कानून के अभाव में, इस बता पर ध्यान देना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय  लोगों को एक गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार दे पाए, वे लोग जिनके साथ बीसीआई के वर्तमान सदस्य संबंधित या उनके साथ अपने को मिला कर नहीं देखते हैं। 

कानूनी शिक्षा की स्थिति के लिए बेहतर प्रशासन की जरूरत है। बीसीआई ने भारत में कानून के स्कूलों की बढ़ती संख्या को अस्थायी रूप से रोक दिया था, लेकिन घटिया कानूनी शिक्षा संस्थानों को बंद करने के मामले में कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं मिली है। इसके बजाय, अस्थायी स्थगन को हटाने के बाद, बड़ी हड़बड़ी में ही गोवा में बीसीआई लॉ स्कूल की घोषणा की।

बीसीआई को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कानूनी पेशे में प्रवेश करने की लागत आम भारतीय के लिए सस्ती हो और राज्यों में एक समान हो। राज्य बार काउंसिल में नामांकन कराने पर दिल्ली में 14,000 रुपए से लेकर ओडिशा में 40,000 रुपए तक का खर्च आता है। इस मामले में बीसीआई हस्तक्षेप करे और यह सुनिश्चित करे कि कोई भी लॉं ग्रेजुएट लॉं  क्लर्क (मुंशी) बनने पर मजबूर न हो या वकालत करने से हतोत्साहित न हो। इसके लिए बीसीआई को राज्य में लोगों के जीवन स्तर के अनुरूप, पेशे से जुड़े वरिष्ठ वकीलों द्वारा जूनियर वकीलों को एक निश्चित राशि का भुगतान करने के लिए एक आधिकारिक परामर्श नीति जारी करने की जरूरत है। 

हाल के इतिहास में, बीसीआई ने वकीलों/अधिवक्ताओं को विशेष सुरक्षा प्रदान करने के  अधिनियम को छोड़कर विधायिका को कोई खास सिफारिश नहीं की है। बीसीआई के पास कोई नामी रिसर्च/अनुसंधान विंग नहीं है, कोई शोध आउटपुट/नतीजे नहीं है, कोई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित या उद्धृत पत्रिका नहीं है, न ही कोई सम्मेलन हुए है जिनकी अक्सर मांग रही है, और वकील के रूप में नामांकन करने वाले आम व्यक्ति से इसका कोई सीधा संबंध भी नहीं है। इसे ये सभी का उपाय करने की जरूरत है।

निष्कर्ष 

बीसीआई को काफी हद तक भारत में नामांकित वकीलों/अधिवक्ताओं द्वारा वित्त पोषित किया जाता है। इनमें से अधिकांश वकील/अधिवक्ता जूनियर हैं जिनका शोषण सीनियर वकील करते हैं। एक बड़ा अनुपात उन लोगों का है जो नहीं जानते हैं कि अपने करियर में बीसीआई की कितनी सटीक भूमिका है। इसलिए, यह निराशाजनक है कि बीसीआई उन लोगों को न्याय नहीं देने के लिए सुप्रीम कोर्ट को धमकाने के लिए नीच रणनीति का सहारा लेगा, जिसके साथ इसकी सदस्यता की पहचान नहीं हो सकती है। समान-लिंग विवाह, यदि मान्यता प्राप्त है, तो केवल उस वर्ग को अधिकार देगा जिसके पास यह नहीं है, नागरिकता के उस वर्ग से कोई अधिकार नहीं छीनेगा जिसके पास ये हैं। बीसीआई को इस तरह के प्रस्ताव को पारित करने से पहले इसकी संरचना, इसकी प्रतिष्ठित स्थिति और इसकी प्रभावशाली मिसाल के प्रति जागरूक होना चाहिए था। इसलिए बार और बार काउंसिल ऑफ इंडिया के सदस्यों को संवेदनशील बनाना जरूरी है। 

साहिबनूर सिंह सिद्धू जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल में कानून पढ़ाते हैं और जेजीएलएस में संवैधानिक क़ानून अध्ययन केंद्र में जूनियर फेलो हैं।

सौजन्यद लीफ़लेट

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