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दिल्ली का दमकल

साढ़े चार करोड़ आबादी के बीच आग लगने से बचाने के लिए काम करने वाले सभी तरह के पदों पर तकरीबन 2,000 लोग काम करते हैं।
delhi fire services
Image Courtesy: India TV

दिल्ली फायर सर्विस कर्मचारी वेलफेयर एसोसिएशन  के जनरल सेक्रेटरी कप्तान सिंह कहते हैं कि “दिल्ली की आबादी तकरीबन साढ़े चार  करोड़ है। साढ़े चार करोड़ आबादी के बीच आग लगने से बचाने  के लिए काम करने वाले सभी तरह के पदों पर तकरीबन 2,000 लोग काम करते हैं। सारा भारत 8 घंटे काम और 16 घंटे आराम करता है। लेकिन दिल्ली फायर सर्विस का फायरमैन 24 घण्टे की शिफ्ट में काम करता है।1990 से पहले तो हालत और बुरी थी, हमें 72 घण्टें की करनी पड़ती थी। तमाम तरह की लड़ाई लड़ने के बाद भी आज हमें  24 घण्टें की शिफ्ट में काम करना पड़ता  है। इस तरह से आप यह समझिये कि दिल्ली को आग से बचाने के लिए प्रतिदिन केवल 1,000 लोग जगते हैं, जिसमें  से तकरीबन 400 लोग तो अधिकारी पदों से जुड़े हैं, यानि कि दिल्ली की तकरीबन 60 हज़ार वर्ग किलोमीटर की आबादी पर  आग से बचाने के लिए केवल 600 फायरमैन की फौज मौजूद रहती है। दिल्ली फायर सर्विस में स्टाफ की बहुत कमी है। इस कमी की वजह से हमें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है। साथ में कम स्टाफ होने की वजह से घटना स्थल पर जान-माल की तबाही भी बहुत अधिक हो जाती है। हम सभी ने आग लगने से मची तबाही देखी है। इस तबाही को कम करने वाले  'फायरमैन' भी हमारे आँखों के सामने से जरूर गुजरे होंगे। लेकिन हम में से बहुत कम लोगों ने ही  सरकार की 'फायर सर्विस' के बारे में कभी  सोचा होगा। हमारा ध्यान कभी सरकारी सिस्टम के फायर सर्विस पर नहीं जाता है। मैंने पिछले कुछ सालों में आग बुझाते समय अपने 5 साथियों को खोया है। मुझे लगता है कि अगर हमारे पास जरूरत के हिसाब से स्टाफ होता तो मैंने अपने 5 साथियों को नहीं खोया होता। हमारी समस्या गहरी होती जा रही है। मीडिया को हमारे तकलीफों से कोई लेना देना नहीं। मुझे अब भी भरोसा नहीं हो रहा कि फायर सर्विस की खस्ताहाली की जानकारी के लिए हमें ढूंढते हुए कोई मीडिया सदस्य हमारे पास आया है।'

दिल्ली के दमकल विभाग की हालत की जानकारी लेने के लिए, जब मैं दिल्ली के एक दमकल केंद्र पहुँचा तो दमकल विभाग के कामगारों से बात तो हुई लेकिन वह नहीं जान पाया जिसे जानने की चाहत में  एक पत्रकार शहर की गलियों में भटकता है। कामगार अपनी सरकारी नौकरी बचाने के डर से वह बताने में हिचकिचा रहे थे, जो वह बताने चाहते थे। लेकिन इशारों-इशारों में उन्होंने दिल्ली फायर सर्विस कर्मचारी कल्याण एसोसिएशन  के जनरल सेक्रेटरी कप्तान सिंह के बारें में बता दिया। दबी जुबान में उन्होंने यह भी बता दिया कि किसी भी सिस्टम, विभाग या संस्था में कामगरों  के संगठन की ज़रूरत क्यों है। कप्तान सिंह पिछले तीन साल से दिल्ली फायर सर्विस कर्मचारी वेलफेयर एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी हैं और पिछले 2 दशकों से अपने सिस्टम से फायर सर्विस की बेहतरी की लड़ाई लड़ रहे हैं। 

कप्तान सिंह बताते हैं कि हमारी सबसे बड़ी समस्या स्टाफ की कमी और लगातार 24 घंटे काम करना है। कैग की रिपोर्ट ने भी माना है कि दिल्ली फायर सर्विस में तकरीबन 45 फीसदी स्टाफ की कमी है। नियम है कि आग लगने की किसी घटना स्थल पर 6 फायर फाइटर जाएंगे। लेकिन हालत इतनी बुरी है कि औसतन 2 या 3 लोग ही जाते हैं, जिसमें से एक ड्राइवर होता है। ऐसे में अगर आग बुझाते समय किसी और जगह पर आग लग गयी तो संभालना मुश्किल हो जाता है। दूसरे फायर स्टेशन से लोगों को बुलाना पड़ता है, जिनके आते-आते जान माल की बहुत अधिक बर्बादी हो चुकी होती है। इनकी एक शिफ्ट में काम करने की अवधि 24 घण्टें होती है। इन्हें 24 घंटे अपना यूनिफार्म पहनें हुए इस डर में जगे रहना पड़ता है कि कब कहाँ पर कोई दुर्घटना घट जाए और जल्दी से वहाँ पहुँचना पड़े। इस अन्याय के खिलाफ इन्होंने अपनी आवाज़ न्यायालय तक पहुँचाई। दिल्ली उच्च न्यायलय द्वारा cwp /1324 /1978 के आदेश दिनांक 10.10.1995  के आधार पर आठ घंटे की शिफ्ट ड्यूटी लागू  करने का आदेश दिया गया।  लेकिन अभी तक इसे लागू  नहीं किया गया है। 

पूरी दिल्ली में तकरीबन 65 फायर स्टेशन है। हर फायर स्टेशन पर परिस्थिति की प्रकृति के  हिसाब से सामना करने के लिए 4 किस्म की गाड़ियों की तैनाती करने का प्रावधान है। लेकिन सभी स्टेशनों पर यह ज़रूरत अभी तक पूरी नहीं हुई है। हाइड्रोलिक फायर गाड़ी की जरूरत ऊँची इमारतों में लगी आग को बुझाने के लिए होती है।  नियमतः हर फायर स्टेशन पर एक हाइड्रोलिक गाड़ी होनी चाहिए। लेकिन इस नियम का पालन आधे  से अधिक फायर स्टेशनों पर नहीं किया गया है। इन गाड़ियों की जरूरी सर्विसिंग साल में केवल एक बार होती है। 6 फायरफाइटर प्रति गाड़ी के हिसाब से हर फायर स्टेशन पर 24 लोगों की ज़रूरत होती है। स्टाफ की कमी की वजह से हर स्टेशन  पर औसतन पर 12 लोग ही मौजूद हैं। स्टाफ की इस कमी के साथ के साथ इस आँकड़े को भी समझिये कि  हर साल दिल्ली दमकल विभाग के पास आगजनी के 27 हजार फोन कॉल आते हैं। यानि कि हर दिन आगजनी के तकरीबन 70 मामलों से दमकल विभाग का सामना होता है। गर्मियों के दिनों में इनकी संख्या और बढ़ जाती है। एक अनुमान के मुताबिक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के जंगलों में हर साल आग लगने की 5-6 घटनाएँ घटती हैं। 

किसी फायर स्टेशन से दुर्घटना स्थल तक पहुँचने में तकरीबन 10-15 मिनट  का समय लगना चाहिए। लेकिन ऐसा कभी कभार ही होता है कि फायर सर्विस दुर्घटना स्थल पर इतने कम समय में पहुँच जाए। फायर स्टेशन के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र बहुत बड़ा होता है। उसके साथ ट्रैफिक जाम की हालत भी गंभीर होती है इन दोनों के गठजोड़ को पार करते-करते दुर्घटना स्थल पर पहुँचने में आधे से 1 घंटा लग जाता है। सड़कों पर ज़िंदगी की रोज़ाना लड़ाई लड़ते हुए लोग फायर सर्विस की गाड़ियों के सायरन की आवाज़ पर  उस तरह से ध्यान नहीं देते हैं जिस तरह से उन्हें देना चाहिए। अंततः ट्रैफिक जाम की स्थिति बनी रहती है और दुर्घटना स्थल तक पहुँचने में लम्बा समय लग जाता है। स्थिति तब और बुरी हो जाती है, जब एक फायर स्टेशन के कर्मचारियों को दूसरी फायर स्टेशन के भीतर आने वाले क्षेत्रों में भी जाने की मजबूरी आन पड़ती है। नेहरू प्लेस से आयानगर घिटोरनी की दूरी तकरीबन 35 किलोमीटर है। इस लिहाज से नेहरू प्लेस फायर स्टेशन से चलने वाली गाड़ी अगर आयानगर पर हुए किसी दुर्घटना स्थल पर जाना चाहेगी तो उसे 1 घंटे तो लग ही जाएंगे। और 1 घंटे में एक भीषण आगजनी की घटना कितनी तबाही मचा सकती है, यह तो हम समझ ही सकते हैं।

दिल्ली फायर सर्विस केंद्र से दिल्ली की हर बिल्डिंग को नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट हासिल करना होता है ताकि यह माना जा सके कि बिल्डिंग ने आगजनी की दुर्घटना से बचने के लिए जरूरी उपाय किए हैं। इस noc को जारी करने का हक एडिशनल डिविशनल ऑफिसर को होता है। कहने वाले दबी जुबान में कहते हैं  कि इस noc को  जारी करने में बहुत धांधली होती है। 2 -5 लाख रूपये के बीच में इसका रेट फिक्स है। जो यह पैसे दे देता है, उसे noc मिल जाती है, जो नहीं देता है उसे परेशानी झेलनी पड़ती है। सरकारी साहेब की लालफीताशाही से जन्में भ्रष्टाचारर पर सरकार कुछ नहीं करती। इसके साथ दिल्ली की दमकल गाड़ियाँ प्राइवेट लोगों के समारोह पर भी खड़ी की जाती है। जबकि ऐसा करने का कोई कानूनी  हक नहीं है। यह सब पैसे के दम पर होता है। 5 से 6 हजार प्रति 6 घण्टें का भुगतान कीजिये और दिल्ली दमकल विभाग की गाड़ी आपके दरवाजे पर खड़ा हो जाएगी। इस तरह की हरकतों से हुआ यह है कि प्रतिदिन  दिल्ली दमकल की बहुत सारी गाड़ियाँ निजी लोगों के दरवाज़ों पर खड़ी रहती हैं। कभी-कभार तो यह होता है कि किसी क्षेत्र के फायर स्टेशन की सारी गाड़ियाँ किसी के दरवाज़े पर खड़ी होती हैं और उस क्षेत्र में आग लगने पर किसी दूसरे स्टेशन से गाड़ी मँगवानी पड़ती है। 

इसके साथ दमकल विभाग में वैसी परेशानियाँ तो मौजूद ही हैं जो किसी भी सरकारी विभाग की पहचान होती है। दिल्ली सरकार को लिखे दिल्ली फायर सर्विस वेल्फयर  एसोसिएशन के निवेदन पत्र के मुताबिक फायर सर्विस के कर्मचारियों को मिलने वाले यूनिफार्म, हेलमेट, गमबूट, दस्ताने, मास्क, सेफ्टीबेल्ट, फर्स्ट एड किट थर्मल इमेजिंग कैमरे आदि सभी तरह के सुरक्षा उपकरणों में परेशानी है। पत्र में लिखा है कि ‘फायर कॉल पर जाने के लिए पहनने  वाली ड्रेस बिल्कुल  सही नहीं है। वह न तो फायर से हमें बचाने का काम करती है  और न ही रेस्क्यू पर हमें बचाने का काम करती है। हेलमेट बहुत घटिया किस्म के हैं। जिसमें न तो आगे शीशा लगा है और ना ही लाइट। फायर के समय पहने जाने वाले जूते बहुत घटिया किस्म के हैं, वह जरा-सी गर्मी से गर्म हो जाते हैं और वे किसी कील या टूटे हुए शीशे से भी बचाने में कारगर नहीं होते हैं।‘

ऐसी तमाम तरह की समस्याएँ सुरक्षा उपकरणों से जुड़ी हैं। जिनका सामना दमकल विभाग के कर्मचारी हमेशा करते हैं। दमकल विभाग की सुरक्षा उपकरणों से जुड़ी सारी परेशानियों का संज्ञान दिल्ली सरकार ने लिया है और जल्द से जल्द इन परेशानियों को कम करने का भरोसा दिलाया है। 

अंत में चलते-चलते कप्तान सिंह कहतें है कि “मुझे यह काम करते हुए  तकरीबन 28 साल हो गए। शुरुआत में दुर्घटना स्थल पर पहुँचते ही मुझे डर लगने लगता था। धीरे-धीरे यह डर गुम हो गया। मैं बड़ी जिम्मेदारी के साथ अपना काम करता हूँ। इसलिए शायद अब तक किसी भयावह दुर्घटना से मेरा पाला नहीं पड़ा है। मैं अपनी जिंदगी से बहुत संतुष्ट हूँ, मुझे लगता है कि मैं  किसी की जिंदगी और किसी की उम्र भर की कमाई बचाने  का काम करता हूँ। इसकी वजह से मुझे अच्छी नींद आती है। इसलिए शायद मैं दमकल विभाग में मौजूद परेशानियों के खिलाफ लड़ पा रहा हूँ।” 

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