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भारत में मरीज़ों के अधिकार: अपने हक़ों के प्रति जागरूक करने वाली ‘मार्गदर्शक’ किताब

यह पुस्तक मरीजों, तीमारदारी करने वालों, कार्यकर्ताओं और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों को मरीजों के अधिकारों को मानव अधिकारों के तौर पर स्थापित और लागू करने के लिए एक उपयोगी संसाधन के बतौर है।
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भारत में स्वास्थ्य का अधिकार न्यायसंगत नहीं है, हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा) के एक हिस्से के तौर पर व्याख्यायित किया गया है। ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट, 1940, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986, भारतीय चिकित्सा परिषद (पेशेवर आचरण, शिष्टाचार एवं नैतिकता) विनियमन, 2002 और नैदानिक प्रतिष्ठान अधिनियम, 2010 में शीर्ष अदालतों के फैसलों और क़ानूनी प्रावधानों ने रोगियों के अधिकारों के मामलों को मानवाधिकारों के हिस्से के तौर पर स्थापित करने में मदद की है। इन फैसलों और प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने रोगियों के अधिकारों के चार्टर का मसौदा तैयार किया और उसे अपनाया है।

अविवेकपूर्ण एवं अनैतिक इलाज के बढ़ते मामलों, अस्पतालों के द्वारा भारी दाम वसूलने और मरीजों के अधिकारों के अन्य उल्लंघनों को देखते हुए डॉ. मोहम्मद खादर मीरन द्वारा लिखित पुस्तक भारत में मरीजों के अधिकार, आज के दौर में बेहद माकूल समय पर सामने आई है।

रोगियों के अधिकारों पर एक संक्षेप-संग्रह के तौर पर यह एक तैयार सन्दर्भ पुस्तिका है जो उन्हें और इस क्षेत्र से जुड़े कार्यकर्ताओं को उनके क़ानूनी अधिकारों के बारे में जागरूक करेगी। लेखक के शब्दों में: “इस पुस्तक को इस इरादे से साथ लिखा गया है जिससे कि प्रत्येक आम नागरिक को चिकित्सा सेवा प्राप्त करने के लिए किसी भी अस्पताल में जाने के दौरान उनके कानूनी अधिकारों के बारे में शिक्षित किया जा सके।”

उदहारण के लिए, चार्टर के अनुसार हर रोगी को इस बात को जानने का पूरा अधिकार है कि वह अपने इलाज को लेकर संभावित खर्चों के बारे में जान सके, और अस्पताल प्रशासन को शुल्क और संभावित इलाज की लागत के साथ-साथ लगाये जा सकने वाले अतिरिक्त शुल्क के बारे में लिखित रूप से जानकारी प्रदान करनी चाहिए। मरीजों को अस्पताल प्रशासन से प्रश्न करने और बिलिंग के सन्दर्भ में यदि कोई त्रुटि/संदेह हो तो उसके लिए स्पष्टीकरण मांगने और उसे ठीक/दूर करने का भी अधिकार है। हालाँकि, अधिकाँश मामलों में अस्पतालों द्वारा ऐसी सूचनाओं को मुहैय्या नहीं कराया जाता है, जिसके चलते मरीजों से उनकी जानकारी के बिना अधिक शुल्क वसूल लिया जाता है।

कई मामलों में, डाक्टरों द्वारा मरीजों/तीमारदारों को बिना सूचित किये ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, ऐसे कई मामले हैं जिनमें महिलाओं की जानकारी के बिना ही उनके भीतर अंतर्गर्भाशयी उपकरणों को प्रविष्ठ करा दिया जाता है, उनसे सहमति लेने की तो बात ही छोड़ दीजिये। लेकिन चार्टर में ‘परीक्षण और सर्जरी के लिए रोगियों की रजामंदी’ को उल्लिखित कर चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों को इस तरह के किसी भी कार्यकलाप से दूर रहने के लिए सुझाया गया है।

यह पुस्तक विभिन्न क़ानूनी मामलों को संदर्भित करते हुए रोगियों के अधिकारों को एक रोचक प्रारूप में बताती है जिनके चलते अंततः विशिष्ट फैसलों को लेना पड़ा। विषयवस्तु समझने के लिए इसे बेहद आसान भाषा में लिखा गया है और यह पाठक को विभिन्न तकनीकी विवरणों के जरिये प्रशिक्षित करने का काम करती है।

चिकित्सा क्षेत्र अपनी प्रकृति में मूलतः पदानुक्रमित है जिसमें डाक्टर और विशेषज्ञ शीर्ष पायदान पर विराजमान हैं जबकि रोगियों को इसे भुगतना पड़ता है। मरीजों के पास चिकित्सा क्षेत्र की तकनीकी बारीकियां और इसमें शामिल प्रक्रियाओं के बारे में बेहद कम जानकारी उपलब्ध होती है। ऐसे में, डाक्टर-मरीज का रिश्ता स्वाभाविक रूप से असमानता का बना रहता है।

पुस्तक की अपनी प्रस्तावना में डॉ. अनंत भान (वैश्विक स्वास्थ्य, जैव-नैतिकता एवं स्वास्थ्य नीति शोधकर्ता) लिखते हैं, “स्वास्थ्य सेवाओं तक अपनी पहुँच को बनाने में रोगियों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसमें साक्ष्य-आधारित चिकित्सकीय पद्धति की कमी के बारे में चिंताएं,‘मिश्रित-उपचार’, सेवा प्रदाताओं की विविधता, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रावधानों के कई तत्वों में गिरावट जैसे कई महत्वपूर्ण कारक हैं जो भारत में रोगियों के अधिकारों को परिभाषित करने के बारे में हमारी ओर से ठोस प्रयासों की जरूरत के बारे में महत्वपूर्ण स्मरण-पत्र के तौर पर काम करते हैं।”

इसके अलावा, जैसा कि लेखक ने पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि रोगियों के अधिकारों को “मेडिकल एजुकेशन के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया है। इसलिए, डाक्टरों को मरीजों के अधिकारों के बारे में किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा या प्रशिक्षण नहीं मिल पाता है।”

ऐसी स्थिति में किसी डॉक्टर द्वारा मरीजों के अधिकारों पर एक किताब लिखना बेहद उल्लेखनीय है। जैसा कि इंडियन जर्नल ऑफ़ मेडिकल एथिक्स के संपादक डॉ. अमर जेसानी ने पुस्तक परिचय में लिखा है: “एक डॉक्टर के द्वारा इस पुस्तक को लिखा जाना भी इस बात का प्रमाण है कि स्वास्थ्य सेवा से जुड़े पेशेवरों की अधिकाधिक संख्या खुद को लोगों के हितों और अधिकारों से जोड़कर देखने लगी है और वे खुद को स्वास्थ्य सेवाओं की दिशा में सकारात्मक बदलाव के संघर्ष के प्रति खुद को प्रतिबद्ध कर रहे हैं।”

चार्टर में निहित अधिकारों पर चर्चा के अतिरिक्त लेखक ने विभिन्न सार्वजनिक तौर पर वित्तपोषित स्वास्थ्य-बीमा योजनाओं के प्रारूप की भी चर्चा की है। इनमें महाराष्ट्र और तमिलनाडु में राज्य स्तरीय योजनाओं के साथ-साथ प्रधानमंत्री जन-आरोग्य योजना भी शामिल हैं। यह पाठक को इन योजनाओं के बारे में चरण-दर-चरण प्रक्रिया के माध्यम से ले जाता है कि योजनाओं में क्या-क्या चीजें शामिल हैं और उन्हें कैसे हासिल किया जा सकता है।

वर्तमान में जारी अभूतपूर्व महामारी के दौरान स्वाथ्य के अधिकार और मरीजों के अधिकारों का मुद्दा बेहद जोरदार ढंग से सामने आया है। कोविड-19 महामारी के दौरान ‘मरीजों’ के अधिकारों पर चर्चा को शामिल करने को लेकर लेखक पूरी तरह से सचेत नजर आते हैं। इस बारे में एनएचआरसी ने अपनी ओर से रचनात्मक भूमिका निभाते हुए एक विशेषज्ञ समिति का गठन कर एक सलाहकारी दस्तावेज को विकसित करने का काम किया है।सबंधित अध्याय में एनएचआरसी द्वारा प्रकाशित कोविड-19 के सन्दर्भ में स्वास्थ्य के अधिकार पर मानवाधिकार परामर्श से जुड़े प्रमुख बिंदुओं को शामिल किया गया है।

टीकाकरण के पश्चात होने वाली प्रतिकूल घटनाओं (एईएफआई) के मुद्दे अक्सर सुर्ख़ियों में रहते हैं। इस अवधारणा और एईएफआई-निगरानी और प्रतिक्रिया परिचालन दिशानिर्देश 2015 में सूचीबद्ध करने के बारे में बताने के लिए एक अध्याय को समर्पित किया गया है।

मरीजों के अधिकारों को सूचीबद्ध करने के साथ-साथ यह पुस्तक मरीजों के कर्तव्यों एवं अन्य सामान्य दिशा-निर्देशों को भी सूचीबद्ध करने का काम करती है, जिनका उन्हें पालन करना चाहिए। ये मरीजों और उनकी देखभाल करने वालों के लिए मदद पहुंचाने वाली सूचियाँ हैं जो उन्हें चिकित्सा प्रक्रियाओं और दस्तावेजीकरण की भूल-भुलैय्या से गुजरने की प्रक्रिया के बजाय कहीं बेहतर व्यवस्थित और अवगत रूप से तैयार करने मदद करने का इरादा रखती हैं।

चार्टर को सरकार द्वारा 2018 में अपना लिया गया था। हालाँकि, अधिकांश मामलों में पीड़ित रोगियों सेवा प्रदाताओं के पास राहत का कोई उपाय नहीं होने के कारण रोगियों के अधिकारों का उल्लंघन हर तरफ व्याप्त है। ऐसे में जब तक चिकित्सा बिरादरी, रोगी समूहों, कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज संगठनों के द्वारा सामूहिक रूप से निरंतर प्रयासों को जारी नहीं रखा जाता है, तब तक मरीजों के अधिकारों को मानवाधिकारों के तौर पर स्थापित कर पाना बेहद कठिन कार्य होगा। यह पुस्तक इस दिशा में सामर्थ्यवान बनाने वाला एक कदम है।

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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