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यूरोप धीरे धीरे एक और विश्व युद्ध की तरफ बढ़ रहा है
अगर हम ग़ैर-यूरोपीय चश्मे से देखें, तो आज यूरोप और अमेरिका घमंड में पूरी तरह अकेले खड़े नज़र आते हैं, शायद वे एक लड़ाई जीतने में भी सक्षम हों, लेकिन वे जंग के इतिहास में एक निश्चित हार की तरफ़ बढ़ रहे हैं।
बोअवेंचुरा डे साउसा सैंटोस
06 Apr 2022
यूरोप धीरे धीरे एक और विश्व युद्ध की तरफ बढ़ रहा है

पहले विश्वयुद्ध के 100 से ज़्यादा साल बीत जाने के बाद, यूरोप के नेता एक बार फिर नए विश्वयुद्ध की तरफ बढ़ रहे हैं। 1914 में यूरोपीय सरकारें इस विश्वास में थीं कि युद्ध तीन हफ़्ते ही चलेगा; लेकिन यह चार साल चला और इसमें 2 करोड़ से ज़्यादा मौतें हुईं। यूक्रेन में युद्ध के साथ ही इसी तरीके की बेपरवाही दिखाई दे रही है। प्रबल विचार यह है कि आक्रमणकारी को तबाह और अपमानित कर ही छोड़ना है। तब हारी हुई शक्ति जर्मनी था। तब भी जॉन मेनार्ड केनेस जैसी कुछ असहमति की आवाज़ों ने कहा भी था कि जर्मनी को अपमानित करना त्रासदी साबित होगा। लेकिन उन चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया गया। 

21 साल बाद यूरोप फिर से युद्ध में खड़ा था, जो 6 साल तक चला और जिसमें 7 करोड़ लोगों की मौत हुई। इतिहास ना तो खुद को दोहराता है और ना ही हमें कुछ समझाता है। बस यह कुछ समानताएं और असमानताएं प्रदर्शित करता है। 

1914 के पहले के सौ सालों ने यूरोप को तुलनात्मक तौर पर शांति प्रदान की थी। जो भी युद्ध हुए, वे छोटी प्रवृत्ति के थे। इसकी वज़ह विएना कांग्रेस (1814-15) थी, जिसने शांति स्थापित करने के लिए विजेताओं और नेपोलियनाई युद्ध से बर्बाद हुई शक्तियों को साथ लाने का काम किया। उस सम्मेलन की अध्यक्षता क्लेमन्स वॉन मैटरनिख ने की, जिसने यह तय किया कि हारी हुई शक्ति (फ्रांस) अपने कारनामों के लिए अपनी ज़मीन गंवाए, लेकिन वह इंग्लैंड, प्रूशिया और रूस के साथ सम्मान से शांति स्थापित करने के लिए संधि भी करे। 

बातचीत या संपूर्ण हार

जहां नेपोलियनाई युद्ध यूरोपीय शक्तियों के बीच हुए थे, वहीं आज युद्ध एक यूरोपीय (रूस) और एक गैर-यूरोपीय (अमेरिका) शक्ति के बीच है। यह एक छद्म युद्ध है, जहां दोनों देश अपने भूरणनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए एक तीसरे देश (यूक्रेन) का इस्तेमाल करते हैं। जबकि यह लक्ष्य, संबंधित देश और महाद्वीप से भी परे जाते हैं। रूस यूक्रेन के साथ युद्ध लड़ रहा है, क्योंकि वह अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो के साथ युद्ध में है। नाटो, अमेरिका के भूरणनीतिक हितों की सेवा में लगा संगठन है।  

एक समय रूस लोगों के आत्म-पहचान के अधिकार का पुरोधा हुआ करता था, अब वो अपनी सुरक्षा चिंताओं का दबाव बनाने के लिए, जिन्हें वह शांतिपूर्ण तरीकों से समझाने में नाकामयाब रहा है, अवैधानिक ढंग से एक साम्राज्यवादी खुमार में इन सिद्धांतों का त्याग कर रहा है।

रूस का सोचना है कि शीत युद्ध के खात्मे के बाद, अमेरिका रूस की हार के जख़्म को गहरा करता जा रहा है, यह ऐसी हार थी, जो दुश्मन के हावी होने के बजाए, ज़्यादातर खुद से खुद के ऊपर थोपी गई थी। 

नाटो के नज़रिए से, यूक्रेन में युद्ध का लक्ष्य रूस पर एक बेशर्त हार थोपना है, प्राथमिकता ऐसी हार की रहेगी जो मॉस्को में सत्ता परिवर्तन करवाए। जंग का वक़्त इसी लक्ष्य पर निर्भर करेगा। आखिर रूस को युद्ध रोकने के लिए प्रेरित करने वाला प्रेरक कहां है, जब खुद ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉ़नसन कहते हैं कि रूस के खिलाफ़ प्रतिबंध जारी रहेंगे, भले ही रूस की स्थिति आज कैसी भी हो? क्या इतना पर्याप्त होगा कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन सत्ता से हट जाएं (जैसा नेपोलियन के साथ 1815 में हुआ था) या सत्य यह है कि नाटो शक्तियां रूस को ही हटाने में लगी हैं, ताकि चीन का विस्तार रोका जा सके?

1918 में अपमानित जर्मनी में भी सत्ता परिवर्तन हुआ था, लेकिन उसके बाद हिटलर आया था, फिर और भी तबाही वाली जंगें हुई थीं। 

यूक्रेनी राष्ट्रपति वोल्दिमिर जेलेंस्की की राजनीतिक महानता दो तरीके से बनाई जा सकती है। या तो उन्हें साहसी देशभक्त के तौर पर पेश किया जाएगा, जिसने आक्रमणकारी से खून के आखिरी कतरे तक मुकाबला किया, या फिर ऐसा देशभक्त, जिसके सामने इतने सारे निर्दोषों की मौत थी और जिसके सामने बेहद बड़ी सैन्य शक्ति थी, इसके बावजूद उसने अपने मित्र देशों को एक सम्मानजनक शांति के लिए तेज-तर्रार ढंग से मोलभाव करने के लिए खड़ा किया। 

यूरोप कहां है?

20 वीं सदी के दो विश्व युद्धों के दौरान, यूरोप स्वघोषित ढंग से दुनिया का केंद्र था। इसलिए हम दो युद्धों को दो विश्व युद्ध कहते हैं। बल्कि यूरोप के चालीस लाख सैनिक अफ्रीकी और एशियाई थे। इसमें शामिल देशों के बहुत दूर स्थित उपनिवेशों में रहने वाले लोगों ने कई हज़ार जानों की कीमत इन युद्धों में चुकाई। यह ऐसे युद्ध थे, जिनसे उनका कोई लेना-देना नहीं था। 

अब यूरोप दुनिया का एक कोना है, जहां यूक्रेन का युद्ध तो और भी छोटा है। कई शताब्दियों तक यूरोप सिर्फ़ यूरेशिया की पश्चिमी नोक भर था, यूरेशिया, ज़मीन का एक बहुत बड़ा भू-भाग है, जो चीन से लेकर आइबेरियन प्रायद्वीप तक फैला है। इस ज़मीन के भू-भाग में बड़े पैमाने पर ज्ञान, उत्पादों, वैज्ञानिक नवोन्मेष और संस्कृतियों का आदान-प्रदान हुआ। इनमें से बहुत सारी चीजों को बाद में यूरोपीय उत्कृष्टता (16वीं शताब्दी की वैज्ञानिक क्रांति से 19वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति तक) का हिस्सा बताया गया, जो समझ से परे है। जबकि शताब्दियों पुराने ज्ञान और संस्कृतियों के आदान-प्रदान के बिना इस कथित यूरोपीय उत्कृष्टता का कभी आगमन ही नहीं हुआ होता। 

यूक्रेन युद्ध से यूरोपी की एक ऐतिहासिक ताकत रूस के यूरोप और बाकी दुनिया, खासतौर पर चीन से अलग थलग पड़ जाने का ख़तरा है। यूरोपियाई या उत्तरी अमेरिकी लेंस से जितनी दिखाई देती है, दुनिया उससे कहीं ज़्यादा बड़ी है।  

आप यूरोपीय और अमेरिकी चश्मे से जितनी दुनिया देखते हैं, यह उससे कहीं ज़्यादा बड़ी है। इन चश्मों से देखने वाले यूरोपीय लोगों को कभी इतना ताकतवर महसूस नहीं हुआ, जब अपने सबसे बड़े साझेदार के बेहद नज़दीक खड़े रहते हुए उन्हें इतिहास के सही पक्ष में खड़े होने की निश्चित्ता का अहसास हो रहा है, जब पूरी दुनिया उदारवादी तंत्र के नियमों के हिसाब से चल रही है, ऐसी दुनिया जो आखिरकार आगे बढ़कर चीन के मुख्य साझेदार रूस को नष्ट करने या कम से कम उसकी चुनौती को तटस्थ करने के लिए मजबूत महसूस कर रही है। 

दूसरी तरफ गैर-यूरोपीय चश्मे से देखने पर आज अमेरिका और यूरोप अकेले नज़र आते हैं। शायद वे एक लड़ाई जीतने में कामयाब भी रहें, लेकिन जंग के इतिहास में वे निश्चित हार की तरफ़ बढ़ रहे हैं।

दुनिया की आधी से ज़्यादा आबादी उन देशों में रहती है, जिन्होंने रूस के खिलाफ़ लगाए जाने वाले प्रतिबंधों में शामिल होने का फ़ैसला किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के कई देशों ने कहा है कि उन्होंने यूक्रेन पर अवैधानिक हमले के खिलाफ़ अपने ऊपर हुए हमलों के अनुभव के चलते वोट दिया है। यह हमले रूस ने नहीं किए थे, बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस या इज़रायल जैसे देशों ने किए थे। इन देशों का फ़ैसला अज्ञानता से नहीं, बल्कि सावधानी से प्रेरित है।

यह लोग ऐसे देशों पर कैसे यकीन कर सकते हैं, जिन्होंने राजनीतिक हस्तक्षेप से आर्थिक लेन-देन तंत्र को सुरक्षित रखने के लिए SWIFT नाम का संगठन बनाया, फिर राजनीतिक आधार पर ही एक देश को इससे निकाल दिया। ऐसे देश जो खुद को अफ़गानिस्तान, वेनेजुएला और रूस जैसे देशों के वित्तीय और स्वर्ण भंडार को जब्त करने की ताकत देते हैं।

यह देश जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सार्वभौमिक पवित्र मूल्य मानते हैं, लेकिन जब इनका खुद खुलासा होने लगता है, तो ये सेंसरशिप का सहारा लेने लगते हैं। ऐसे देश जो लोकतंत्र का जश्न मनाते हैं, लेकिन जब भी कोई चुनाव इनके हितों के खिलाफ़ जाता है, तो इन्हें तख़्ता पलट करवाने में भी कोई दिक्कत नहीं होती। यही वह देश हैं, जिनकी नज़रों में “तानाशाह” निकोलस मादुरो सिर्फ़ इसलिए व्यापारिक साझेदार बन जाता है, क्योंकि स्थितियां बदल गई होती हैं।

अगर दुनिया कभी मासूमों की थी भी, तो अब यह कतई मासूमों के लिए नहीं है।

बोअवेंचुरा डे साउसा सैंटोस पुर्तगाल में कोइमब्रा यूनिवर्सिटी में मानद प्रोफ़ेसर हैं। उनकी हालिया किताब “डिकॉलोनाइजिंग द यूनिवर्सिटी: द चैलेंज ऑफ़ डीप कोगनिटिव जस्टिस” है।

स्त्रोत्: यह लेख ग्लोबट्रॉटर ने प्रकाशित किया है। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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