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हमारा समाज भिन्न-भिन्न स्तरों पर महिलाओं और दलितों के खिलाफ पूर्वागृह रखता है - एक नया अध्ययन

हालांकि कई लोग सोचते हैं कि अस्पृश्यता और घूंघट की प्रथा अतीत की चीजें हैं, लेकिन ज़मीन पर वास्तविकता अलग ही है।
dalits and women

भारत में महिलाओं और दलितों के विरुद्ध सामाजिक पूर्वाग्रहों को समझने के लिए एक अध्ययन आर्थिक और राजनीतिक साप्ताहिक (ईपीडब्ल्यू) में हाल ही में प्रकाशित हुआ है। यह अध्ययन दलितों के प्रति स्पष्ट पूर्वाग्रह की खोज में था - "विश्वास और व्यवहार में जिसे लोग खुलेआम और आसानी से स्वीकार करते हैं वह दलित समूहों में लोगों की निम्न सामाजिक स्थिति को स्पष्ट करते हैं।" इस अलग ढंग के अध्यन को डायना कोफी, पायल हाथी, निधि खुराना और अमित थोराट ने अंजाम दिया गया है जो रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ कोम्सिय्नेट इकोनिमिक्स (आर.आई.सी.ई.) से संबद्ध हैं।

शौधकर्ताओं ने इसके दस्तावेज़ीकरण करने में पाया जिस अस्पृश्यता की कुप्रथा को 1950 में भारतीय संविधान को अपनाने के साथ प्रतिबंधित कर दिया गया था वह समाज में न सिर्फ आज भी प्रचलित है और बाकायदा आम व्यवहार में है; महिलाओं द्वारा घूंघट डालने की प्रथा (साड़ी या दुपट्टा के साथ अपने सिर या चेहरे को कवर करने वाली महिलायें) अभी भी मौजूद है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि पचास प्रतिशत लोगों ने अपने घरों के बाहर काम करने वाली महिलाओं को अनुमति नहीं दी या उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी गयी,  खासकर उस स्थिति में जब पति पर्याप्त रूप से कमा रहा हो। इससे पता चलता है कि भारत ने अपने आपको आर्थिक रूप से तो विकसित किया है, लेकिन सामाजिक मोर्चे पर अभी वह बहुत पीछे है।

आंकड़ों को टेलीफ़ोनिक सर्वेक्षण के ज़रिए एकत्रित किया गया, जिसमें चार स्थान- दिल्ली, मुंबई, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल थे, इस सर्वेक्षण के लिए 8,065 लोगों का नमूना लिया गया। यह शोध उन लोगों के लिए एक आश्चर्य के रूप में उभरता है जो ये सोचते हैं कि जाति और लिंग भेदभाव अतीत की चीजें हैं और अब ऐसा कुछ नहीं हैं।

 

क्या महिलाओं को पुरुषों के समान दर्जा दिया जाता है?

साक्षात्कार में 50 प्रतिशत से अधिक लोगों ने कहा कि महिलाओं को अपने घरों के बाहर काम नहीं करना चाहिए। उत्तर प्रदेश को छोड़कर अन्य जगहों पर शहरी और ग्रामीण इलाकों की तुलना में कोई बड़ा अंतर नहीं पाया गया,  जहाँ 60 प्रतिशत से थोड़ा अधिक दर्ज़ किया गया।

अध्ययन में कहा गया है कि घूँघट करने वाली महिलाओं को खुद से संबंधित मामलों में उन्हें कुछ भी कहने का हक़ नहीं मिलता है। साक्षात्कार में लगभग सभी घरों में महिलाओं की ऐसी ही स्थिति है। 18 से 60 वर्ष की आयु में, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में, राजस्थान में घूंघट प्रथा निभाने वाली महिलाओं का सबसे अधिक प्रतिशत (98%) है। घूंघट प्रथा  निभाने वाली महिलाओं का प्रतिशत दिल्ली में कम था।

सबसे आम प्रथा जो युगों से नहीं बदली है और जिसका सीधे महिला के स्वास्थ्य पर असर पड़ रहा है वह है खाना। यह बताया गया कि 60 प्रतिशत महिलायें उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में और दिल्ली में लगभग 33 प्रतिशत महिलायें बाद में खाना खाती हैं।

दलितों के खिलाफ भेदभाव

इस शोध में, शौधकर्ताओं ने दलितों के खिलाफ स्पष्ट पूर्वाग्रह के दो रूपों पर निशानदेही की है। एक, अस्पृश्यता का आमतौर पर दलितों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है;  दो, गैर-दलितों द्वारा एक दलित परिवार में विवाह की पूर्ण अस्वीकृति थी और बाद में उन्होंने यह भी मांग की कि ऐसे विवाहों को होने से रोकने के लिए सरकार को कानून बनाना चाहिए।

न्यूज़क्लिक के साथ बात करते हुए अमित थोरात ने कहा कि यह विचार अस्पृश्यता पर पहले के अध्ययन से आया है। "हम अस्पृश्यता सहित अन्य कई चीजों की लोगों की धारणाएं जानना चाहते थे ... जब हमने पहले अध्ययन किया था,  हमने सोचा था कि अस्पृश्यता के अभ्यास के लिए केवल 27 प्रतिशत लोग सहमत हैं," उन्होंने कहा।

इस अध्ययन में पाया गया कि दलितों के खिलाफ अस्पृश्यता को प्रतिवादी या उनके परिवार के सदस्यों ने माना था। महिला उत्तरदाताओं ने साक्षात्कार में कहा था कि अस्पृश्यता का उनके परिवार में 39 से 66 प्रतिशत के बीच अभ्यास किया जाता है और पुरुष उत्तरदाताओं ने कहा कि यह उनके परिवारों में 21 से 50 प्रतिशत के बीच की सीमा पर है।

अंतरजातीय विवाह के मुद्दे पर, अमित ने कहा, "हमारे पिछले अध्ययन में हमने देखा कि विवाह में केवल पांच प्रतिशत लोग एक समुदाय के बाहर के थे। हम यह जानना चाहते थे कि लोगों ने अंतरजातीय विवाह के बारे में क्या सोचा था, इसलिए हमने इस सवाल को पूछा कि क्या वे ऐसे विवाहों को रोकने के लिए कानून बनाना चाहते हैं। "

यह अध्ययन उपयोगी अंतर्दृष्टि देता है कि समाज बहुमत के महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों पर कैसे सोचता है और कैसे हम सामाजिक मामलों में एक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण लाने में सक्षम नहीं हुए हैं। डॉ अमित थोरात कहते हैं, "जाति और लिंग से संबंधित पारंपरिक विचारों में कमी की जानी चाहिए क्योंकि देश में जिस तरह की प्रगति होती है वह हमारे मन में विकास का विचार के बारे में गलत धारणा है या हम विकास को सिर्फ भौतिक लाभ और समृद्धि के समानरूप देखते हैं, लेकिन जैसा कि हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकास के बारे पता लगाते हैं तो उसके तीन स्तंभ हैं - आर्थिक, सामाजिक और माहौल। हम माहौल को सुधारने के पहलुओं पर तो ध्यान नहीं दे रहे हैं, भले ही हम आर्थिक रूप से आगे बढ़ने की पुरजोर कोशिश में हो, ऐसा लगता है कि सामाजिक रूप से हमने प्रगति नहीं की है।"

केंद्र सरकार में "पारंपरिक" और हिंदुत्व का समर्थन करने वाली सरकार के बारे में डॉ. थोरट कहते हैं कि, "कुछ लोग अंतर जाति, अंतर-धार्मिक असंतोष को बढ़ावा दे रहे हैं। हम सार्वजनिक हिंसा के बढ़ने की घटनाओं को देख रहे हैं और अपराधी गर्व से खुले घूम रहे हैं और वे हाशिए के समुदायों पर हिंसा और अपमान करने से डरते नहीं हैं। यह माहौल बेहद जहरीला और सांप्रदायिक है और सरकार उन्हें नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रही है।"

थोरट ने कहा कि हमारा समाज एक ऐसा समाज है जो आसानी से लोकतंत्र के आदर्शों, समानता और भाईचारे को हासिल करने के लिए हमारे संविधान के सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है। तो यह लंबी उम्मीद या चाहत होगी कि अस्पृश्यता की प्रथा पर प्रतिबंध लगाने और अंतर जाति विवाहों का समर्थन करने वाले कानूनों को लागू किया जाए और उनके वांछित परिणाम प्राप्त करने की इच्छा दिल में हो।

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