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मक़्तलों में तब्दील होते हिन्दी न्यूज़ चैनल!

यह टीवी अब हमें सशरीर खा रहा है। पहले दिमाग में ज़हर भरा गया। तर्क की बेरहमी से हत्या की गयी। विचार को चिल्लाहटों से रौंद दिया गया। और अब...
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : financial express

आज राजीव त्यागी की असमय मौत ने हमें यह सोचने पर विवश तो किया ही है कि हम कैसा परिवेश बना रहे हैं। टीवी चैनलों की निंदा करते करते देश के विवेकवान लोग थक चुके हैं। अब उनके लिए यह कोई विषय ही नहीं रहा क्योंकि इससे कुछ होना नहीं है।

राजीव त्यागी ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो इस तरह के सार्वजनिक अपमान से आहत हुए हैं। उनकी मृत्यु हृदयघात से हुई है। जरूर कुछ स्वास्थ्यगत वजहें हैं लेकिन हृदयघात जैसी स्थिति उत्पन्न होने में अगर किसी तात्कालिक घटना को आधार बनाया जा सकता है या उस घटना की कोई भूमिका सामान्य लग रहे किसी व्यक्ति का रक्तचाप अचानक बढ़ाने में देखी जाएगी तो इस डिबेट का ज़िक्र ज़रूर होगा जो उन्होंने अपनी मृत्यु से ठीक पहले ‘आज तक’ चैनल पर रोहित सरदाना के शो ‘दंगल’ में की थी और जिसमें भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने बार-बार उनकी निजी आस्था या हिन्दू होने और श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन माथे पर तिलक लगाने को लेकर अपमानित किया था। बार बार उन्हें जयचंद जयचंद कहा। जयचंद, इतिहास का वो चरित्र है जिसके नाम का इस्तेमाल किसी को अपनी कौम या अपने देश से गद्दारी करने वाले के लिए किया जाता है। जयचंद गद्दार था या नहीं अब यह जानने की ज़रूरत देश को नहीं है। वो एक गाली बन चुका है और उसे गाली की तरह बरता जाता है।

राजीव त्यागी अकेले नहीं है। चौबीसों घंटों चलने वाले ये न्यूज़ चैनल समझदार लोगों के लिए मक़्तल बन चुके हैं। एक घंटे तक कुतर्कों के खिलाफ लगातार किसी तरह अपनी बात कह पाने की कोशिश में एक सामान्य स्वस्थ आदमी भी बीमार हो जाए। देखने वाले तो बीमार हुए ही हैं।

जो इन डिबेट्स में बीमार नहीं होते वो हैं इसके एंकर्स, भाजपा के प्रवक्ता और संघ के जानकार नाम से बैठे लोग। वो भी बीमार नहीं होते जो केवल शो में बैठने की मोटी फीस वसूलकर अपमानित होने वाले किरदार में बैठे दिखाई देते हैं।

यह टीवी अब हमें सशरीर खा रहा है। पहले दिमाग में ज़हर भरा गया। तर्क की बेरहमी से हत्या की गयी। विचार को चिल्लाहटों से रौंद दिया गया। एक विचारधारा को छोड़ बाकी विचारधाराओं की छीछालेदार की गयी। समाज में ज्ञानियों की वैधता खत्म की गयी। संस्थाओं की मर्यादा भंग कर दी गयी। दिलों में बेइंतिहां नफ़रतें पैदा कर दी गईं अब अगला प्रोजेक्ट इनका यही है कि विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं को समूल निगलना है।

एक संवेदनशील इंसान कितनी देर इस तरह अपने लिए, अपने  समाज और अपने देश, देश के विचार और उसके अच्छे मूल्यों के प्रति हिकारत सहन कर सकता है। राजीव त्यागी जब तक कर सकते थे किया। कई बार उनको भी बदजुबानी से काम लेना पड़ा।

सोशल मीडिया पर बी एण्ड डी भी खूब चल रहा है जो उन्होंने अमिश देवगन के एक शो में अमिश के लिए कहा था जिसका मतलब था भड़ुआ और दलाल। उस डिबेट में उन्होने अपने कहे पर माफ़ी भी नहीं मांगी थी। लेकिन अगले ही रोज़ यह कहकर एक तरह से अपनी माफीनुमा सफाई दी थी कि मेरे संस्कार ऐसा कहने की इजाज़त नहीं देते लेकिन आपको सोचना होगा कि मुझे ऐसा क्यों कहना पड़ा? इस जवाब को अमिश ने उनकी तरफ से दी गयी माफ़ी और सफाई के तौर पर ले लिया था।

ये न्यूज़ चैनल लंबे समय से इसी तरह की उत्तेजना और सनसनी के पीछे सारी पेशेवर नैतिकता खो चुके हैं। सुधीर चौधरी नाम के एक एंकर ने तो अपनी स्वतंत्र पहचान ही एक शिक्षिका के चरित्र हनन के लाइव टेलीकास्ट से की थी। वो महिला अभी कहाँ हैं, क्या उनसे कभी सुधीर चौधरी ने माफ़ी मांगी ये जानकारी इनके दर्शकों के लिए ज़रूरी नहीं है।

निरंतर झूठ परोसने के आरोपी सुधीर चौधरी अब प्राय; डिबेट शो नहीं करते बल्कि हर दिन की ख़बरों का डीएनए करते हैं। एक आपराधिक मामले में तिहाड़ जा चुके एंकर के लिए पेशेवर होना अब भले ही की बुनियादी शर्त न हो लेकिन जिस तरह से उसकी दी गयी सूचनाएँ चाहे वो 2000 के नए नोट में जीपीएस चिप का लगा होना हो, जेएनयू में देशविरोधी नारे का अपुष्ट वीडियो चलाना हो, अभी हाल  में एक ख़बर दिल्ली दंगों के मास्टरमाइंड का पता लगा लेना की हो, जो अभी साबित नहीं हो पायी है। न ही उनसे किसी का भला हुआ न ही सूचनाओं से हमारा नागरिक बोध विकसित हुआ तब सवाल सुधीर चौधरी जैसे एंकरों से नहीं बल्कि देश के आवाम से है कि वह फिर भी इन्हें क्यों देखता है?

जानकार मानते हैं कि यह एक लत है, व्यसन है और ड्रग्स की खुराक जैसा है। जो लोग इसकी गिरफ़्त में आ जाते हैं उन्हें हर रोज़ ठीक उसी समय पर इसकी डोज़ चाहिए अन्यथा उनका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। अगर ऐसा है तो हमें सोचना होगा कि वाकई इस टीवी डिबेट और भ्रामक सूचनाओं, चरित्र हनन के इन मक़तलों ने हमें क्या बना दिया है।

रोहित सरदाना की ख्याति भी जेएनयू कांड के दौरान बढ़ी। उस समय यह भी जी न्यूज़ में थे। सुधीर चौधरी के साथ एक ही स्पेल में बॉलिंग करते थे। दोनों सिरों से आक्रामक होना क्रिकेट की एक रणनीति है जिसका पालन ये दोनों मिलकर करते थे। बहरहाल।

आज देश में किसी भी इज़्ज़तदार और स्वाभिमानी व्यक्ति को पुलिस की तुलना में मीडिया से ज़्यादा डर लगता है। ऐसा निरंकुश और गैर-पेशेवर मीडिया हमने बनाया है या बनने दिया है?

दिल्ली की सिविल सोसायटी और देश में जाने पहचाने सामाजिक कार्यकर्ता खुर्शीद अनवर इसी मीडिया ट्रायल के शिकार हुए थे। उन पर एक महिला के साथ बदसुलूकी का आरोप था। वो आरोप का सामना कर रहे थे। पुलिस को जांच में सहयोग कर रहे थे लेकिन जैसे ही ये ख़बर अपने अंदाज़ में इंडिया टीवी ने चलाना शुरू की और बार- बार उन्हें जिन शब्दों से नवाज़ा गया उन्होंने आत्महत्या करना उचित समझा और वो मामला भी हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। अगर यह मामला सही था तो एक महिला को इंसाफ से वंचित होना पड़ा। कानून का सम्मान करने वाले एक खुद्दार इंसान के लिए यह ज़्यादा आसान रास्ता था शायद। उन्हें जानने वाले लोग बताते हैं कि संभव था जांच में ये निर्दोष साबित होते।

इन दिनों का सबसे सनसनीखेज़ मामला सुशांत सिंह की मौत है जिसे लेकर दो दो महिलाओं का सरेराह शिकार किया जा रहा है। एक जो मर चुकी है यानी सुशांत की सेक्रेटरी और दूसरी सुशांत की लिव इन पार्टनर। जिस तरह उनका चरित्र हनन किया जा रहा है वह उनके लिए, उनके परिवार के लिए किस कदर दर्दनाक होगा हम शायद इसकी कल्पना करना भी भूल गए हैं।

आरुषी मर्डर केस हो या उसके जैसे तमाम मामले जो इन दस-पंद्रह सालों में मीडिया की भेंट चढ़े उन्हें देखना चाहिए कि कैसे न्याय की सुसंगत प्रकिया में अमर्यादित हस्तक्षेप किया गया। और इससे न्याय की अवधारणा को किस कदर आघात पहुंचा।

मीडिया से जुड़ी जो संस्थाएं हैं उनके बारे में कुछ भी कहना अल्फ़ाज़ की बर्बादी इसलिए भी है क्योंकि वो दंतहीन तो थीं हीं अब नेत्रविहीन भी हो चुकी हैं।

राजीव त्यागी और इनके जैसे अन्य लोगों की असमय मौतों को लेकर भले ही कोई कानूनी कार्यवाही नहीं होगी लेकिन समाज और देश के आवाम को सोचना होगा कि इन मौतों में उनकी भूमिका क्या है? हम जो ऐसी उत्तेजना, सनसनी, फर्जी और भ्रामक सूचनाओं के ग्राहक हैं अपरोक्ष रूप से इनकी हिंसक मंशाओं में बराबर के भागीदार हैं।

ये चैनल्स अफ़सोस तो ख़ैर क्या मनाएंगे, सुधार तो करने से रहे लेकिन कम से कम इस तरह की हिंसक सांप्रदायिक डिबेट्स का फार्मेट तो बदल सकते हैं जो 2014 के बाद अपना लिया गया है। कभी एकाध सवाल सत्ता पक्ष के प्रवक्ताओं से भी किया जा सकता है। संघ के जानकार के तौर पर ही जब एक निरपेक्ष व्यक्ति को बैठाने का ढोंग करना है तो कभी उन्हें भी आमंत्रित करें जो संघ के आलोचक भी हैं। जानकार होना और उसके ही पक्ष में होना एक बात नहीं है। जो फार्मेट अभी इन्होंने अपनी सहूलियत के लिए बनाया है वो असल में विपक्षी दलों का शिकार करने की रणनीति से ही बनाया है। एक एंकर, एक सत्ता पक्ष का प्रवक्ता,एक संघ का जानकार (संघ का प्रतिनिधि), एक प्रतिनिधि लोजपा से, एक जद  (यू) से। तो इस तरह पाँच खिलाड़ी एक तरफ जो दूसरी तरफ एक कांग्रेस का प्रवक्ता की मज़म्मत करने बैठे हैं। सवाल कांग्रेस से, आरोप कांग्रेस पर, जवाब भी कांग्रेस से और पूरी बहस में हिन्दू-मुसलमान। मुद्दा कोई भी हो। कांग्रेस के नेताओं पर निजी घिनौने हमले। ज़रूरत हुई तो कुछ आर्मी के रिटायर्ड लोग। जो माँ-बहिन की गाली दें।

असल में यह टीवी हमें बीमार, बहुत बीमार बना चुका है। अभी जो लोग इसे टीआरपी का खेल समझ रहे हैं वो शायद चूक रहे हैं कि ये ‘न्यू इंडिया’ है। यहाँ नए भारत को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। ये तमाम चैनल सत्ता में बराबर के भागीदार हैं। इन्हें अब टीआरपी की चिंता नहीं है। विज्ञापनों का भी शायद नहीं है बल्कि ये उस सत्ता के लिए सत्ता के साथ काम कर रहे हैं जो निजी तौर पर भी इन तमाम शिकारी एंकरों के मन मुताबिक है। इन्हें इनके मालिक ऐसा करने को कहते भी हों पर इनके अंदर खुद इतना जहर भरा हुआ है कि ये यही कहना और करना भी चाहते हैं।

इस घटना से सबक लेते हुए तमाम विपक्षी दलों को अपने प्रवक्ता अब इन मक़तलों पर भेजना बंद करना चाहिए। और हम आवाम को इन्हें देखना बंद करना चाहिए।

 

(लेखक सत्यम श्रीवास्तव पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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