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नए भारत के विचार को सिर्फ़ जंग चाहिए!

भाजपा यह अच्छी तरह से जानती है कि भारत का विचार, जबरन लागू की जा रही एकरूपता, आक्रामक विलक्षणता और एक अखंड भविष्य की योजना के माध्यम से ही जीवित और विकसित हो सकता है।
नए भारत के विचार को सिर्फ़ जंग चाहिए!

भारत क्या है? हमें इसके बारे में थोड़ा अधिक बताएँ' - भारत में और यूरोप में एक सामाजिक वैज्ञानिक होने के नाते, मुझसे अक्सर यह सवाल पूछा जाता है। मेरा मानना ​​है कि मेरे कई सहयोगियों के भी इसी तरह के अनुभव हैं। भारत के बारे में बात करते हुए, मैं चकित रह जाती हूँ - वास्तव में भारत है क्या? क्या यह भूभाग है? क्या यह एक संस्कृति है? क्या ये लोग हैं? क्या भारत में कोई ऐसे विलक्षणता है जो सभी स्थानों में फैली हुई है? परिभाषा के अनुसार (हालांकि 'परिभाषाओं' की बाध्यकारी प्रवृति की कभी भी बड़ी प्रशंसक नहीं रही), हर राष्ट्र उसकी सामान्य संस्कृति/धर्म/भाषा आदि से बनकर निकलते हैं। इस उदाहरण  का समर्थन करने के लिए बहुत से तथ्य मौजूद हैं जैसे- बांग्लादेश, पाकिस्तान, इज़राइल और इसी तरह के अन्य देश इसी आधार पर बने और जन्मे। अन्य मामलों में भी, राष्ट्र सामान्य राजनीतिक लक्ष्यों के माध्यम से भी उभरते हैं - एक बाहरी दुश्मन के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए। हमारे यहाँ हमारा देश जिसका नाम भारत है, वह औपनिवेशिक संघर्ष से निकलकर सामने आया। कहने की ज़रूरत नहीं है कि भारत एक औपनिवेशिक का निर्माण है। नतीजतन, यहाँ विशेष रूप से भाषा पर आधारित आंतरिक संघर्ष और पहचान के दावे कभी बंद नहीं हुए हैं। अनेकता में एकता एक मिथक है, एक ऐसा मिथक है जो राष्ट्र की कल्पना को एक साथ रखता है।

वर्तमान हालात के संदर्भ में जब हिंदू राष्ट्र के विचार के तहत भारत का संघवाद दांव पर लगा है, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत केवल तभी एक भूभाग के रूप में बच सकता है, यदि डैश कि संघीय संरचना को बरक़रार रखा जाता है। इस दृष्टि से, हमारा लक्ष्य विविधता नहीं बल्कि एकता होना चाहिए। नहीं तो राज्यों का पलायन जारी रहेगा और एक दिन ऐसा आएगा जब सब कुछ होगा लेकिन वास्तव में भारत नहीं होगा। हालांकि, संघवाद का जश्न देश की वर्तमान राजनीतिक संस्कृति के तहत होने की संभावना नहीं है, जो कि संस्कृतियों, भाषाओं और पहचानों के समरूपीकरण की दिशा में एक आक्रामक अभियान से कम नहीं है। यदि भारत ख़ुद को फिर से संगठित करता है और भारत एक संयुक्त राज्य के रूप में उभरता है तो संघवाद को हासिल किया जा सकता है। अन्यथा, राष्ट्र-निर्माण की दिशा में उठा हर क़दम एक दबाव की तरह लगता है।

हालांकि, राष्ट्र को एक रखने में, स्वाभाविक रूप से बहुत सी चीज़ों का अभाव है, यह मोदी के तहत भारतीय जनता पार्टी का एक मास्टर स्ट्रोक है जो लगातार एक बाहरी आम दुश्मन के इर्द-गिर्द घूमती कथाओं को बुनता रहता है। एक दूसरे के साथ संघर्ष में लोग केवल एक बाहरी ख़तरे की वजह से ही एक साथ रह सकते हैं - चाहे वह ख़तरा वास्तविक हो या गढ़ा गया हो। इस बाहरी दुश्मन का मुक़ाबला करने के लिए यानी राष्ट्रवाद का विचार, जो सबसे बड़ा यानी लोगों से भी बड़ा हो गया है, इसके लिए सबको खड़ा होना चाहिए, और इस विचार को ज़िंदा रखने के लिए हमें बाहरी दुश्मन बनाने की ज़रूरत है – इस मामले में पाकिस्तान एक स्थाई दुश्मन है जबकि चीन नया प्रवेश है। आख़िरकार, पाकिस्तान के प्रति एक आम द्वेष के अलावा मराठी और ओड़िया का इससे जुड़ने के लिए का क्या रखा है – वह कि पाकिस्तान भारत का दुश्मन है! भाजपा एक दूरदर्शी दल है, वे इसे बहुत अच्छी तरह से देख सकते हैं - कि भारत का विचार अब केवल जबरन समरूपता, आक्रामक विलक्षणता और एक अखंड भविष्य की योजना के माध्यम से ही जीवित रह सकता है।

नतीजतन, समय की ज़रूरत न केवल अनैतिहासिक होने की है, बल्कि इतिहास विरोधी होने की भी है। बिंदु सरल है - विविधता को ख़ारिज करना और किसी भी क़ीमत पर एकरुपता की एकता को लागू करना है। जब अमित शाह कहते हैं कि देशद्रोहियों को पाकिस्तान जाना चाहिए, तो उनका मतलब है कि हमारे साथ मिलकर पाकिस्तानियों से नफ़रत करने में हमारा साथ दो। जब सरकार हिंसक भीड़ जुटा कर ‘दूसरों’ को क़त्ल करने की अनुमति देती है, तो यह विविधता को पीछे धकेल कर एकता के अपने मिशन के लिए हिंसा को प्रोत्साहित करती है। यहाँ, यह भी याद रखना होगा कि राष्ट्रवाद का विचार क्षेत्रीयता के इर्द-गिर्द तैयार हुआ है, न कि लोगों के बारे में। इसलिए, यह कश्मीर है जिसके बारे में भारत इतनी इच्छा रखता है, कश्मीरियों की नहीं। यह पूर्वोत्तर है जिसे भारत हाथ से नहीं जाने देना चाहेगा, लेकिन वहाँ के लोगों को सम्मान के साथ नहीं बुलाएगा।

भारतीय राज्य के प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के अपने दूसरे कार्यकाल के तहत असंतोष की आवाज़ के ख़िलाफ़ जारी हिंसा के मद्देनज़र, भाजपा सरकार ने भारत के गले के ठीक नीचे एकता लाने के लिए किस हद तक जाने की योजना बनाई है। संयोग से, कोई भी आश्चर्य जता सकता है – कि क्या भारत कभी भी सच्चे अर्थों में संघवाद राष्ट्र बन सकता है? अन्यथा, क्या हमें वास्तव में ऐसी बलपुर्वक लागू व्यवस्था को आत्मसात करने की आवश्यकता है; अधिक महत्वपूर्ण बात तह है कि आख़िर किस क़ीमत पर? आख़िरकार, इसे रोकने से पहले हमें कितनी ओर ज़िंदगियों का बलिदान देना होगा? जवाब हवा में उड़ रहा है, लेकिन सुनने के लिए कौन तैयार है?

लेखिका कोलोन विश्वविद्यालय में इंडो-जर्मन प्रवास पर एक शोधकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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