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महामारी से नहीं ली सीख, दावों के विपरीत स्वास्थ्य बजट में कटौती नज़र आ रही है

इस बार स्वास्थ्य पर बजट में 86,200.65 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो पिछले वर्ष की तुलना में 16 प्रतिशत की वृद्धि है। हालांकि, अगर ध्यान दें तो यह 2021-22 के संशोधित बजट के मुकाबले सिर्फ 0.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी है। और यदि इसमें हम पिछले वर्ष के मुकाबले बढ़ी 4.8% की महंगाई दर को जोड़ लें, तो हमें स्वास्थ्य बजट में सीधे तौर पर कटौती नजर आएगी।
health budget
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कल से पूरे देश में लोकसभा में पेश हुए 2022-2023 बजट की चर्चा हो रही है। एक ओर बेरोज़गारी और गरीबी से त्रस्त देश की आम जनता की सारी उम्मीदें धराशायी हो गईं हैं, तो दूसरी ओर बजट में किए गए लंबे-चौड़े, पर खोखले वादों के जरिए सरकार वाहवाही बटोरने की कोशिश कर रही है। यह महामारी के बीच लगातार दूसरा बजट था। इस बार भी बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र संबंधित कई घोषणाएं की गईं हैं। इन घोषणाओं और योजनाओं पर हम बारीकी से चर्चा करेंगे।

पिछले दो वर्षों के बजट में हमें महामारी के असर की झलक देखने को मिलती है, क्योंकि दोनों ही वर्षों में स्वास्थ्य को बजट में, उसके भाषण में ही सही, अहम प्राथमिकता दी गई है। जहां 2020-2021 में स्वास्थ्य के लिए 67,484 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, वहीं पिछले साल यानी 2021-2022 में इस आवंटन को बढ़ा कर 73,931.77 करोड़ कर दिया गया था। इस वर्ष भी बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दावा किया गया कि, "हमारे टीकाकरण अभियान की गति और कवरेज ने महामारी से लड़ने में काफी मदद की है। मैं आश्‍वस्‍त हूं, कि सबके प्रयास से हम मजबूत वृद्धि की अपनी इस यात्रा को जारी रखेंगे।’’ अब सरकार के इन वृद्धियों के दावों पर नजर डालते हैं।

इस बार भी पिछले बजट की तरह, वित्त मंत्री ने दावा किया कि स्वास्थ्य बजट में 135 प्रतिशत का इजाफा किया गया है। पिछले वर्ष भी उन्होंने दावा किया था कि कोरोना महामारी के बीच सरकार ने 2021-22 के लिए स्वास्थ्य और कल्याण के क्षेत्र में पिछले वर्ष (2020-201) की तुलना में 137% की वृद्धि की थी। हालांकि, इस दावे की हवा निकलने में ज्यादा समय नहीं लगा। सरकार ने यह नहीं बताने की जहमत की कि बजट के इस खर्च में वह खर्च भी समायोजित हैं जिसका स्वास्थ्य क्षेत्र से सीधा संबंध नहीं हैं। इसमें पोषण, पानी और स्वच्छता के बड़े खर्च को भी जोड़ दिया गया, जिससे इजाफा 137% दिखने लगा। इसी में कोविड के टीके पर होने वाले एक बार के 35,000 करोड़ के खर्च को भी जोड़ा गया, जिसे नियमित स्वास्थ्य बजट के हिस्से के रूप में नहीं देखा जा सकता है। इस बार का इजाफा भी शायद कुछ इसी तर्ज पर है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि बजट में सरकारी खर्च पिछले दो वर्षों में बढ़ा है, लेकिन यह बढ़त महामारी के मद्देनजर की गई थी। इसके बावजूद, महामारी का दो वर्ष का अनुभव यह बताने के लिए काफी है कि यह खर्च उससे निबटने में बेहद अपर्याप्त था। इस बार स्वास्थ्य पर बजट में 86,200.65 करोड़ रुपये आवंटित किए  गए हैं, जो पिछले वर्ष की तुलना में 16 प्रतिशत की वृद्धि है। हालांकि, अगर ध्यान दें तो यह 2021-22 के संशोधित बजट के मुकाबले सिर्फ 0.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी है। और यदि इसमें हम पिछले वर्ष के मुकाबले औसतन बढ़ी 5% की महंगाई दर को जोड़ लें, तो हमें स्वास्थ्य बजट में सीधे तौर पर कटौती नजर आएगी।

इस 86,200.65 करोड़ रुपये में से 83,000 करोड़ रुपये स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग को आवंटित किए गए हैं, जबकि 3,200 करोड़ रुपये स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग को आवंटित किए गए हैं।

हालांकि, अब भी यह जीडीपीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 0.4% खर्च ही है, जो पिछले वर्ष (0.34%) के मुकाबले एक मामूली वृद्धि है। यह स्वयं सरकार द्वारा तैयार की गयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (NHP) 2017 के स्वास्थ्य पर खर्च को 2025 तक जीडीपी के 2.5% तक बढ़ाने के सुझाव से भी कोसों दूर है। एक तरफ कई देश स्वास्थ्य पर जीडीपी का 10 फीसदी खर्च कर रहे हैं, उदाहरण के तौर पर लातिन अमेरिका का छोटा से देश क्यूबा स्वास्थ्य पर जीडीपी का 11 प्रतिशत खर्च करता है, तो वहीं भारत को अभी तक 1 प्रतिशत के लक्ष्य को छूने में भी मशक्कत करनी पड़ रही है। यही वजह है कि कोरोना की दूसरी लहर में, सरकार के दावों के विपरीत, देश की स्वास्थ्य व्ययस्था पूरी तरह से बैठ गई थी।  

स्वास्थ्य पर ज्यादा खर्च बढ़ता हुए दिखे और जीडीपी में उसके प्रतिशत में भी वृद्धि दिखाई दे, इसके लिए पिछले साल ही वित्त मंत्री ने 2021 के अपने बजट भाषण में स्वास्थ्य की  पारंपरिक परिभाषा का विस्तार कर जल, स्वच्छता, पोषण, प्रदूषण नियंत्रण आदि के खर्च को इसमें जोड़ दिया था। इस बार के बजट से पहले जारी किए गए आर्थिक सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि स्वास्थ्य पर खर्च पिछले दो वर्षों में 0.4% की वार्षिक वृद्धि के साथ जीडीपी के 2.1% तक पहुंच गया है और इसी के साथ हम 2025 तक सरकार के 2.5% के लक्ष्य तक पहुंचने की राह पर हैं। हालांकि यह एक झूठा दावा है क्योंकि इस 2.1% का एक बहद बड़ा हिस्सा जल, पोषण और स्वच्छता का है, जिससे पारंपरिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च (सरकार के दावे से उलट) काफी कम मालूम होता है।

महामारी के भयंकर प्रकोप के बीच सरकार की प्राथमिकता कहीं भटकती हुई सी नजर आती है। एक ओर, केंन्द्र सरकार ने आयुष में 14.5% की वृद्धि की है, वहीं दूसरी ओर स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग में महज 3.9% की वृद्धि देखने को मिलती है। जहां लगातार कोरोनावायरस के बदलते वेरिअन्ट के बीच हमें लगातार अपने टीके और बूस्टर शॉट्स को बदलने और बेहतर बनाने की आवश्यकता होगी, वहीं पर यह पारंपरिक, प्राकृतिक और गैर-एलोपैथिक स्वास्थ्य पर इतना बड़ा खर्च और विशाल वृद्धि हास्यास्पद है।

एक और चौंकाने वाला तथ्य, जो सरकार की महामारी के प्रति आपराधिक अनदेखी जाहिर करता है, वह यह है कि आने वाले वित्त वर्ष में चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सरकार के प्रस्तावित खर्च में 2021-22 के संशोधित बजट के मुकाबले 45 प्रतिशत से अधिक की भारी गिरावट देखने को मिल रही है। केंद्र ने 2022-23 में चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर एक ओर जहां 41,011 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रस्ताव रखा है, तो वहीं दूसरी ओर यह मौजूदा वित्त वर्ष में खर्च 74,820 रुपये है। दस्तावेज़ में इसका कारण COVID टीकाकरण की कम आवश्यकता बताया गया है। ऐसा लगता है कि सरकार ने परिकल्पना कर ली है कि मौजूदा टीके कोविड के सभी वरिएंट्स के खिलाफ़ बराबर असरदार होंगे।

सरकार ने आयुष्मान भारत योजना का विस्तार इस बार भी जारी रखा है, जबकि प्राथमिक और माध्यमिक स्वास्थ्य सेवा और अस्पताल के बुनियादी ढांचे पर सरकार ने इस बार भी कोई रुचि नहीं दिखाई है। टियर 2, टियर-3 शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में बिना स्वास्थ्य सेवाओं और पर्याप्त हेल्थकेयर वर्करों के आयुष्मान भारत योजना एक विफल कार्यक्रम साबित होगी।

हैरानी की बात यह है कि इस योजना के लिए 2021-22 का बजट अनुमान 6,400 करोड़ रुपये था। हालांकि, आवंटन मौजूदा वित्त वर्ष के दौरान संशोधित कर आधा यानी केवल 3,199 करोड़ रुपये कर दिया गया था। इसका मतलब साफ है कि योजना अपने निर्धारित स्तर से काफी खराब प्रदर्शन कर रही है क्योंकि सरकार इस योजना के तहत आवंटित पैसे खर्च करने में नाकाम रही थी। इसके बावजूद सरकार ने इस बार भी इसका आवंटन मामूली बढ़त के साथ 6,412 करोड़ पर बरकरार रखा है।

दूसरी ओर, एनएचएम (NHM), जो एक प्रमुख स्वास्थ्य कार्यक्रम है, उसमें वास्तविक रूप से (यदि महंगाई दर को ध्यान में रखा जाए) गिरावट देखने को मिली है, 2020-21 में जहां उसे 37,478 करोड़ रुपये आवंटित किया गया था, वहीं उसे इस बार  37,800 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया।

महामारी के बीच जहां सरकार की प्राथमिकता गुणवत्तापूर्ण बुनियादी स्वास्थ्य ढांचे पर अधिक से अधिक खर्च की होनी चाहिए थी, वहीं सरकार ने अपना सारा ध्यान, स्वास्थ्य डिजिटल सेवाओं पर केंद्रित किया हुआ है, चाहे फिर वो नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन (एनडीएचएम) हो या फिर इस बार बजट में लॉन्च की गई टेलीमेंटल हेल्थ की योजना हो। इस बार, नैशनल डिजिटल हेल्थ मिशन, जो हर नागरिक के स्वास्थ्य के लेखा-जोखा को हेल्थ आइडी के जरिए डिजिटलीकरण करने का काम कर रही है, उसका बजट पिछले वर्ष के मुकाबले 75 करोड़ रुपये से बढ़ा कर 200 करोड़ रुपये कर दिया गया है।

हालांकि, इस बजट की जिस एक बात पर थोड़ी सरहाना हो रही है, उनमें से एक चीज राष्‍ट्रीय टेली मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम है। केन्‍द्रीय वित्‍त मंत्री ने अपने बजट के भाषण में माना कि महामारी ने लोगों में मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य की समस्‍याएं पैदा की हैं, जिससे निपटने की ज़रूरत है। इसके गुणवत्‍तापूर्ण उपचार और मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य काउंसलिंग की सभी लोगों तक बहतर पहुँच बनाने के लिए उन्होंने ‘राष्‍ट्रीय टेली मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम’ की घोषणा की। इस कार्यक्रम के तहत 23 टेली-मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य उत्‍कृष्‍टता केन्‍द्रों का एक नेटवर्क शामिल होगा, जिसमें निमहंस नोडल केन्‍द्र के रूप में काम करेगा तथा अंतरराष्‍ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्‍थान, बेंगलुरू (आईआईआईटीबी) इसके लिए तकनीकी सहायता प्रदान करेगा।    

मानसिक बीमारियों के उपचार के लिए दूरसंचार या वीडियोकांफ्रेंसिंग तकनीक के जरिए काउंसलिंग को टेलीमेंटल हेल्थ कहा जाता है। कोविड के दौरान जब मानसिक समस्या खुद एक महामारी बन के उभरी है, ऐसे समय में  इस सर्विस का महत्व कहीं अधिक बढ़ गया है। लेकिन, देखने वाली बात यह होगी कि ग्रामीण क्षेत्रों में मानसिक तनाव और समस्याओं से जूझ रहे लोगों तक इसकी पहुँच कैसे सुनिश्चित की जाएगी।

इस बजट में वित्त मंत्री ने 5 नए राष्ट्रीय संस्थान के स्थापना की भी घोषणा की है, जिनमें 4 नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वाइरोलॉजी और एक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वर्ल्ड हेल्थ शामिल हैं।

1946 में घटित भोरे कमिटी ने यह सुझाव दिया था कि स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे को देश की आबादी के अनुकूल विकसित करने के लिए देश को जीडीपी का 12 प्रतिशत स्वास्थ्य प्रणाली के निर्माण पर खर्च करना होगा। इन सुझावों के आज 75 से ज्यादा वर्ष बाद भी हम इस लक्ष्य के आधे रस्ते भी नहीं पहुँच सके हैं। पिछले एक दशक के रुझानों के अनुसार ऐसा ही प्रतीत होता है कि हम इस लक्ष्य को शायद इस सदी में भी न छूँ पाएँ, चाहे फिर कोरोना जैसी कितनी ही आपदा एक साथ हमें अपनी चपेट में ले ले।

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