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शहरों के लिए वित्त आयोग की सिफ़ारिशें बेहद नगण्य

15वें वित्त आयोग ने इस बिंदु को भुला दिया है कि वर्तमान में शहरों को जिस प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उनमें से किसी का भी निपटान करने के लिए 11% का हस्तांतरण बेहद मामूली है।
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चित्र मात्र प्रतिनिधित्व हेतु. | चित्र साभार: फ्लिकर

जैसा कि 15वें वित्त आयोग (XVFC) ने अगले पांच वर्षों के लिए राज्यों को कोष का हस्तांतरण करने की अनुशंसा की थी, उसका रोड मैप बनकर तैयार है। 15वें वित्त आयोग ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपनी बैठकें की हैं, और पिछला वर्ष कोविड महामारी का साल रहा है और प्राकृतिक परिणाम से सीख लेने की जरूरत है। हालाँकि, 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों ने राज्यों और लोगों की वाजिब हिस्सेदारी की गुंजाइश और आकांक्षाओं पर पानी फेर दिया है।

सिफारिशों की संरचना ने कोष के हस्तांतरण को जरूरत और समता के आधार पर समेट दिया है और केंद्र सरकार की विवेकाधीन शक्तियों के तहत एक बड़े हिस्से को छोड़ दिया है। इसने संघीय भावना पर आघात पहुँचाने का काम किया है, और रनिंग कमेन्ट्री के दौरान ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी ने राष्ट्रीय कार्यभार की खातिर संप्रभु-राज्यों की जिम्मेदारी का उल्लेख किया हो। “.....राज्य वित्तीय भारत के राजकोषीय ढाँचे की एक महत्वपूर्ण धुरी बन चुकी है। कुलमिलाकर जैसा कि एफआरबीएम अधिनियम, 2003 (जिसे 2018 में संशोधित किया गया) के अनुसार, हम मानते हैं कि राज्यों को ऋण के मध्यम-अवधि के सुद्रढीकरण की दिशा में केंद्र सरकार के साथ भागीदारी में जाने की जरूरत है, और मध्यम अवधि में स्थायी स्तर पर भारत के संप्रभु ऋण को सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में मजबूती से स्थापित करना चाहिए। उन्हें अपने निवासियों, अर्थव्यवस्था को समग्रता में देखने और भारत के वैश्विक जुड़ाव को समर्थन देने के लिए नए तौर-तरीकों को विकसित करने में केंद्र के साथ भागीदार के तौर पर काम करना चाहिए। इसलिए आम सरकार की परिकल्पना में ऋण एवं राजकोषीय घाटे का प्रक्षेपवक्र स्थाई स्तरों के माध्यम से वृहद-आर्थिक स्थिरीकरण की प्रमुख विशेषताओं को हासिल करने के लिए केंद्र और राज्यों दोनों को ही इस साझेदारी में शामिल होना चाहिए।” 

इसे राज्यों के हिस्से को प्रभावी रूप से हस्तगत करके भी किया जा सका है। जरूरत और समता के आधार पर निधियों का हस्तांतरण भी कुल संपत्ति के 92.5% से घटकर 75% रह गया है, जिसमें चौंका देने वाले 25% हिस्से का नुकसान “दक्षता”” और “प्रदर्शन” के आधार पर हस्तांतरण के लिए छोड़ दिया गया है।

इस पहलू पर पहले भी काफी कुछ लिखा जा चुका है। इसके बजाय मैं 15वें वित्त आयोग और शहरी क्षेत्र के लिए की गई सिफारिशों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहूँगा। शहरी आबादी कुल आबादी का तकरीबन 34% है और जीडीपी में इसका योगदान 67% है। लॉकडाउन के दौरान शहरों में श्रमिकों में बीच मौजूद असमानता के चलते रिवर्स माइग्रेशन के भयावह दृश्यों को देखने के बाद, उम्मीद की जा रही थी कि वित्त आयोग की सिफारिशें इस पहलू पर अधिक जोर देंगी। हालाँकि आयोग द्वारा इस पहलू की अनदेखी की गई है। ऐसे में आइए  देखें कि शहरी क्षेत्र के लिए क्या सिफारिशें की गई हैं।

लेकिन इस पर जाने से पहले यह भी ध्यान देना महत्वपूर्ण होगा कि आयोग द्वारा मुख्य रिपोर्ट की शुरुआत में जिन दो उद्धरणों को पेश किया गया है वे परस्पर विरोधाभासी हैं। इसमें से पहला महात्मा गाँधी का उद्धरण है जिसमें कहा गया है कि “भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम वर्तमान में क्या करते हैं।” पूरा ध्यान योजना पर है और इस वजह से वर्तमान कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। दूसरा उद्धरण रोमन दार्शनिक मार्कस आरिलियस से लिया गया है: “भविष्य से कभी भी खुद पर आँच न आने दो। आप उसे पा लोगे, यदि आपको, उन्हीं कारणों वाले शस्त्रों से जो आज आपके वर्तमान के खिलाफ खड़ी हैं।” जाहिर है, वित्त आयोग की रिपोर्ट भी उद्धरणों से से बेहद विरोधाभास में है। रनिंग कमेंट्री में इसने असामान्य दौर और कोविड द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों का उल्लेख किया है, जबकि प्रभावी हिस्से में यह वर्तमान चिंताओं को दूर करने के बजाय उलटी गंगा बहाने की सिफारिश करता है।

आइए देखते हैं कि शहरी सिफारिशों में इसे कैसे दर्शाया गया है। यद्यपि शहरी क्षेत्रों के लिए कुल लागत की मद 14वें वित्त आयोग से कहीं अधिक हैं, लेकिन वास्तविक अर्थों में यथास्थिति को बनाए रखा गया है।

14वें वित्त आयोग द्वारा कुल परिव्यय 84,144 करोड़ रुपयों का था, लेकिन इसका 15% हिस्सा रिलीज़ नहीं किया गया था। इसके चलते वास्तविक राशि 74,529 करोड़ रूपये ही थी। 2021-26 की अवधि के लिए शहरी स्थानीय निकायों का कुल परिव्यय 1,21,055 करोड़ रुपये का है। हालाँकि 2021 के लिए कुल परिव्यय 2020 की तुलना में कम है। यह 25,098 करोड़ रुपये से घटकर 22,144 करोड़ रुपये का होने के साथ 11.71% की गिरावट को दर्शाता है। 

स्थानीय निकायों को दिए जाने वाले अनुदान का मानदंड यह बनाया गया है कि इसे राज्यों के बीच में जनसंख्या और क्षेत्रफल के आधार पर क्रमशः 90% और 10% के वेटेज के अनुसार वितरित किया जायेगा। इन अनुदानों को हासिल करने के लिए दो शर्ते रखी गई हैं: सबसे पहले, स्थानीय निकायों को अपने अंतरिम एवं ऑडिटेड एकाउंट्स को प्रकाशित करना होगा; दूसरा, राज्यों द्वारा संपत्ति करों की न्यूनतम फ्लोर रेट्स का निर्धारण और संपत्ति करों को वसूलने में सुधार लाना होगा। यदि राज्य ने अपने यहाँ राज्य वित्त आयोग का गठन नहीं किया और उसकी सिफारिशों के आधार पर काम नहीं किया तो मार्च 2024 के बाद से स्थानीय निकायों को अनुदान आवंटित नहीं किया जायेगा। 

15वें वित्त आयोग ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि “हम संपत्ति कर के फ्लोर रेट को नोटिफाई करने के लिए एक-वर्ष की मियाद के प्रावधान की सिफारिश कर रहे हैं; यह 2022-23 से दो चरणों में उत्प्रेरक होगा। पहले चरण में राज्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे वे फ्लोर दरों को अधिसूचित कर देंगे और इस व्यवस्था को 2021-22 में संचालन में ले आयेंगे। अनुदानों को हासिल करने की पात्रता के लिए 2022-23 से संपत्ति करों के फ्लोर रेट्स को अधिसूचित करने की शर्त लागू होगी। एक बार जब फ्लोर को अधिसूचित कर दिया जाता है तो संपत्ति कर में वसूली की रकम को कम से कम राज्य की अपनी जीएसडीपी के हाल के पांच वर्षों से आँका जाएगा और इसे 2023-24 के बाद के वर्षों में इसे ध्यान में रखा जाएगा।”

एक अन्य मद जिसे ‘चुनौती फण्ड’ नाम दिया गया है, को दस-लाख से ज्यादा वाली आबादी के शहरों के लिए खोला गया है। इसे इन शहरों की वायु गुणवत्ता में सुधार और सेवा के स्तर के निर्धारित मानदंडों, शहरी पेयजल आपूर्ति, स्वच्छता एवं ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में प्रदर्शन से जोड़ा जाएगा। इस मद के अंतर्गत पांच वर्षों के लिए कुल फण्ड 26,057 करोड़ रुपये का बनाया गया है। 

मूल से चूका 15वां वित्त आयोग  

कोष हस्तांतरण के मामले में 15वां वित्त आयोग उसके मूल तत्व से चूक गया है। जैसा कि लेख के शुरुआत में ही कहा गया है, शहरों में मौजूद विशाल अनौपचारिक क्षेत्र को, जो कि लगभग 93% तक है, के समता के मुद्दे और रूपांतरण को संबोधित करना एक महत्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है। कुछ छूट गए बिंदु इस प्रकार से हैं:

सबसे पहले, मात्र 11% हस्तांतरण करने से शहरों को आज जिस प्रकार की चुनौतियों से निपटना पड़ रहा है, के लिए बेहद कम है। 2011 में शहरी विकास मंत्रालय द्वारा गठित एक हाई-पॉवर समिति के अनुसार 2013 में शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर में वार्षिक निवेश की जरूरत को 50,000 करोड़ रूपये आँका गया था, जिसके 2032 तक 4 लाख करोड़ रूपये होने का अनुमान है। ये आँकड़े 2012-13 में जीडीपी के हिसाब से करीब 0.75% और 2032 के लिए 1.5% बैठते हैं। वर्तमान में इस तरह के निवेश के लिए 15वें वित्त आयोग और केन्द्रीय बजट से कुल परिव्यय मात्र 0.19% का निर्धारित किया गया है। जबकि शहरी अनुदान सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.07% ही है। काफी समय से देश में शहरी स्थानीय निकायों के संयुक्त खर्चों में संकुचन का क्रम बना हुआ है। 1990 में जीडीपी के 1.74% से लगातार घटकर 2011 में यह तकरीबन 1% के आसपास हो चुका था।

केन्द्रीय आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय की ओर से 15वें वित्त आयोग को सौंपे गए ज्ञापन में नगरपालिकाओं की जरूरतों का उल्लेख किया गया है: “नगरपालिकाओं के संसाधन अंतर को भरने के लिए अनुदानों में पर्याप्त बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है, जो कि 2021-22 से 2025-26 की अवधि के लिए 12.27 लाख करोड़ रूपये से अधिक की है। 14वें वित्त आयोग में अवार्ड किये गए मद की तुलना में नगरपालिकाओं में हस्तांतरण को कम से कम चार गुना (3,48,575 करोड़ रूपये) तक बढाए जाने की आवश्यकता है।

दूसरा, संपत्ति कर की वसूली को लेकर जिस प्रकार का पागलपन दिखाया जा रहा है और उस के साथ अनुदान हासिल करने के लिए इसकी अनिवार्यता को खत्म करने की जरूरत है। निस्संदेह नगरपालिकाओं में संसाधनों को जुटाने के लिए संपत्ति कर एक महत्वपूर्ण स्रोत के तौर पर है, लेकिन इस पर हद से ज्यादा निर्भरता उचित नहीं है। राज्य सरकारों को संपत्ति कर के लिए फ्लोर एरिया की दर को तय करने का प्रावधान पूरी तरह से दोषयुक्त है। प्रत्येक कस्बे और शहर की क्षमता भिन्न-भिन्न होती है और यहाँ तक कि इंट्रा-शहर में भी संपत्ति की मूल्य वृद्धि में विभिन्नताएं पाई जाती हैं। इस कार्यभार को नगरपालिकाओं के हाथ में छोड़ देना चाहिए, न कि राज्य सरकारों के। वास्तव में, संपत्ति कर की वसूली को सुनिश्चित करने के लिए सर्वोत्तम नियमों का पालन किये जाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, पिछला वर्ष लोगों के लिए और भारी संख्या में व्यवसायों के लिए आपदा वाला वर्ष रहा है। संपत्ति करों में पूर्ण माफ़ी को, विशेषकर हॉस्पिटैलिटी उद्योग के लिए इसे लागू किये जाने की जरूरत है। इसके बदले में अनुदान एक बेहतर विकल्प हो सकता था।

तीसरा, अतीत की तरह ही 15वें वित्त आयोग में शहरों को विकास का इंजन बताकर एक बार फिर से वही गलतियाँ दुहराई जा रही हैं। यूएन-हैबिटैट तृतीय के बाद से, शहरों के साथ बाजार उद्यमियों के तौर पर बर्ताव करने के बजाय स्थिरता लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करने पर ठोस प्रयास किये जा रहे हैं। हमने देखा है कि हमारे शहर असमानता के वातावरण में कितने अरक्षणीय हो चुके हैं। हमारी कोशिश इसे रोकने की होनी चाहिए। दुर्भाग्यवश संस्तुतियां अभी भी उसी लफ्फाजी और इरादे के साथ जारी हैं। उदाहरण के लिए दस्तावेज की भाषा को ही ले लें – मॉडल पीपीपी अनुबंधों का निर्माण, नगरपालिका के बजट का आधुनिकीकरण, शहरी स्थानीय निकायों के लिए राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम के समतुल्य प्रावधानों सहित राष्ट्रीय नगरपालिका द्वारा ऋण लेने की रूपरेखा को तैयार करना इत्यादि हैं। ये सभी बिंदु उसी मानसिकता को दर्शाते हैं जिसमें शहरों को आकर्षक निवेश जोन में परिवर्तित किया जा रहा है।

ये सुझाव पूरी तरह से सनक से भरे हुए हैं। बिना इस तथ्य को महसूस किये कि लगभग 90% शहरी स्थानीय निकायों के पास अपने वेतन खर्चों को पूरा कर पाने तक की क्षमता नहीं है, ऐसी सिफारिशें निरा पागलपन हैं। इसके अलावा 15वें वित्त आयोग ने शहरों में बढ़ती असमानता पर कोई तवज्जो देने की जरूरत नहीं समझी है। जबकि ऑक्सफेम की रिपोर्ट के मुताबिक गरीबों के हाशिये पर जाने की रफ्तार में बेहद तेजी आई है।

चौथा, ऐसी परिस्थिति में 15वें वित्त आयोग से उम्मीद की जा रही थी कि उसके द्वारा जिस प्रकार से प्रदूषण और वायु गुणवत्ता पर सिफारिश की गई है, उसी प्रकार वह शहरी रोजगार गारण्टी या इस तरह की अन्य योजना को शहरों में मौजूदा गहन बेरोजागारी के संकट से निपटने के लिए अलग से कोष निर्मित किये जाने की सिफारिश करेगा। 

स्वास्थ्य के मोर्चे पर पहलकदमी 

15वें वित्त आयोग ने स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर जो सिफारिशें की हैं और 70,051 हजार करोड़ रूपये का परिव्यय आवण्टित किया है, यह एक स्वागत योग्य कदम है। केरल के अनुभव से संकेत लेते हुए, जिसका इस रिपोर्ट में सकारात्मक रूप से उल्लेख किया गया है, आयोग ने केरल सरकार द्वारा 1996 में शुरू की गई के जन योजना की प्रशंसा की है, जहाँ राज्य सरकार के विकासात्मक बजट का 35-40% हिस्सा स्थानीय सरकारों को आवंटित किया गया था।

इसमें शहरी स्वास्थ्य एवं कल्याण केन्द्रों और पॉलीक्लिनिकों के माध्यम से सार्वभौमिक व्यापक स्वास्थ्य सेवा को मुहैया कराए जाने की योजना है। इसे शहरी स्थानीय निकायों से जोड़ना एक स्वागत योग्य कदम है। राज्य सरकारों को इस विचार को विकसित करने के लिए स्थान और क्षमता को निश्चित तौर पर मुहैया कराना चाहिए। जैसा कि महामारी ने इस तथ्य को साबित किया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान ही हमारे रक्षकों के तौर पर खड़ी रहीं। इच्छाशक्ति और संसाधनों के अभाव के साथ कैसे इसे प्रभावशाली ढंग से लागू किया जा सकेगा, आने वाले वर्षों में इसे बेहद उत्सुकता के साथ देखना होगा।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Finance-Commission-Recommendations-for-Cities-Extremely-Paltry

 

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