वजीफे के बहाने अल्पसंख्यक दर्जे पर राजनीति
नरेंद्र मोदी सरकार ने अगले पांच साल में देश के 5 करोड़ अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं के लिए छात्रवृत्ति की योजना का एलान किया है। मगर, इसके साथ ही इसका विरोध भी शुरू हो गया है। विरोध करने वाले वही लोग हैं जो बीजेपी की कट्टरवादी धार्मिक नीतियों के समर्थक रहे हैं। आश्चर्य इस बात का है कि ऐसे विरोधियों के प्रति बीजेपी की सहानुभूति भी खुलकर दिख रही है। अब अल्पसंख्यक और इस दर्जे की जरूरत पर ही सवाल उठाए जा रहे हैं। सवाल ये भी उठाए जा रहे हैं कि जिन राज्यों में हिन्दू अल्पमत में हैं उन्हें भी अल्पसंख्यक का दर्जा क्यों नहीं दिया जाए।
बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय की जनहित याचिका पर अल्पसंख्यक को परिभाषित करने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को दे रखा है। इसके लिए तय समय-सीमा भी बीत चुकी है। अश्विनी उपाध्याय अल्पसंख्यक को परिभाषित करने की जरूरत के साथ कई सवाल उठाते रहे हैं-
- जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में जहां बहुमत में मुसलमान हैं, वे अल्पसंख्यक कैसे हो सकते हैं?
- जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में जहां हिन्दू अल्पमत में हैं वे अल्पसंख्यक क्यों नहीं माने जाने चाहिए?
- आबादी कितनी प्रतिशत हो कि अल्पसंख्यक का दर्जा बरकरार रहे?
- अगर डेमोग्रेफी में बदलाव आता है तो क्यों नहीं अल्पसंख्यक के दर्जे में भी बदलाव आए?
अश्विनी उपाध्याय की याचिका या फिर उस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश और उसके अनुरूप राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का जो भी फैसला होगा, वह वास्तव में सुधारात्मक उपाय या विचार हैं जो एक सभ्य समाज में चलते रहने चाहिए। तार्किक तौर पर कहीं से भी अश्वनी उपाध्याय की याचिका में कोई विसंगति नहीं लगती। मगर, इस बहाने जो बहस छेड़ी जा रही है, जो वातावरण बनाया जा रहा है वह जहरीला है और यही चिन्ता का विषय है।
खुलेआम कहा जा रहा है कि मुसलमानों से अल्पसंख्यक का दर्जा ‘छीन’ लेना चाहिए। सवाल ये है कि छीनने वाली शक्ति कौन है या हो सकती है? कौन किससे छीन लेने का अधिकार रखता है? अगर एक मानक तय कर दिया जाए तो स्वत: उसी आधार पर अल्पसंख्यक चिह्नित कर लिए जाएंगे और इस दर्जे से जुड़ने या हटने की प्रक्रिया चल पड़ेगी। इसमें ‘छीन लेने’ जैसे भाव के लिए कोई जगह नहीं होती।
सांप्रदायिकता का ज़हर किस तरह बोया जा रहा है उसकी बानगी देखनी हो तो टीवी डिबेट में उन सवालों पर गौर कीजिए, जो कुछ इस तरह से उठाए जा रहे हैं
- मुस्लिम छात्रों के लिए वजीफे का बोझ हिन्दू क्यों सहन करे?
- वे बच्चे पैदा करें और हम उनका बोझ उठाएं, ऐसा क्यों होगा?
- अल्पसंख्यक के नाम पर कब तक मुसलमानों को मलाई खिलाई जाती रहेगी?
- अगर अल्पसंख्यक होने का कोई फायदा नहीं है तो क्यों न इस दर्जे को हटा दिया जाए?
ये सवाल खास किस्म के कट्टरपंथी लोग ही उठा रहे होते तो बात अलग थी, अब तो खुद मीडिया का एक धडा भी इन सवालों के साथ खड़ा दिख रहा है। इसलिए विषय गम्भीर हो जाता है। प्रकारांतर से यही कहने की कोशिश दिखती है कि मुसलमानों को अल्पसंख्यक होने की वजह से जो सुविधाएं मिल रही हैं, उसका खात्मा होना चाहिए। या तो वे इसके लिए खुद राजी हो जाएं और नहीं तो जबरन उनसे ऐसी सुविधाएं वापस ले ली जाएं। इसी अर्थ में ‘छीन लेने’ जैसे भाव पैदा हो रहे हैं।
मुसलमान जब अपने पिछड़े होने की दुहाई देते हैं, तर्क देते हैं कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पढ़िए कि किस तरह देश के मुसलमानों की हालत दलितों से भी गयी गुजरी हो चुकी है, तो समाज का यही वाचाल तबका खुद मुसलमानो को ही इसका जिम्मेदार ठहराने से पीछे नहीं हटता। वोट बैंक की राजनीति, धर्मनिरपेक्षता और कांग्रेस को मुसलमानों की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार ठहराने का भी चलन चल पड़ा है।
सच्चाई ये है कि वोट बैंक की राजनीति आज अधिक हो रही है। ‘सबका साथ सबका विकास’ के दावे के साथ धर्मनिरपेक्षता की बातें आज अधिक की जा रही हैं। इन सबके बीच मोदी राज में अल्पसंख्यकों के साथ ज्यादती की घटनाएं बढ़ रही हैं, उस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। अब मुसलमान अतीत में अपने साथ दुर्दशा की बात पर हामी भरें या वर्तमान में अपने साथ हो रहे व्यवहार पर नज़र रखें, उन्हें समझ में नहीं आ रहा। बीता हुआ कल उनके लिए ख़तरनाक था या आने वाला कल ख़तरनाक होने वाला है यह बात उन्हें समझ में नहीं आ रही है।
मुसलमानों को अधिक जनसंख्या के लिए जिम्मेदार तो ठहराया जाता है लेकिन वास्तव में अगर 2011 की जनगणना पर नज़र डालें तो मुसलमानों की आबादी में अगर 3.42 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है तो हिन्दुओं की आबादी में 13.88 करोड़ की वृद्धि दर्ज की गयी है। इसका मतलब ये है कि हिन्दुओं की आबादी वास्तव में मुसलमानों के मुकाबले 4 गुना अधिक बढ़ी है।
मुसलमानों से 4 गुना ज्यादा बढ़ी है हिन्दुओं की आबादी
आबादी (करोड़ में) 2011 2001 वृद्धि
भारत 121 102 19
हिन्दू 96.63 82.75 13.88
मुसलमान 17.22 13.8 3.42
अगर प्रतिशत रूप में आंकड़ों पर गौर करें तो हिन्दुओँ की आबादी 0.65 फीसदी घटी है और मुसलमानों की आबादी में 0.8 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। हिन्दुओं के लिए यह कहीं से भी चिन्ताजनक नहीं है। मुसलमानों की आबादी की रफ्तार तुलनात्मक रूप में अधिक जरूर है लेकिन पहले से कम हुई है। यह तथ्य बताता है कि जनसंख्या नियंत्रण को लेकर समूचा देश गम्भीर हुआ है। सिख, बौद्ध, जैन बाकी आबादी में बढ़ोतरी की रफ्तार में भी कमी देखी गयी है।
धार्मिक आबादी प्रतिशत में
आबादी (प्रतिशत में) 2011 2001 वृद्धि
हिन्दू 79.8 80.45 -0.65
मुसलमान 14.2 13.4 0.80
ईसाई 2.3 लगभग वही 0.00
सिख 1.7 1.5 -0.2
बौद्ध 0.7 0.6 -0.1
जैन 0.45 लगभग वही 0.00
निश्चित रूप से देश के लिए सोचने वाला वर्ग सीमित वर्ग नहीं है। देश का हर तबका चाहे वह राजनीतिक हो, धार्मिक अथवा सामाजिक या फिर कुछ और, देश हित की चिन्ता कर रहा है। मगर, समाज में नफ़रत का बीज बो रहे लोग ऐसा आभास करा रहे हैं मानो देशहित उनके अलावा कोई सोच ही नहीं सकता। समाज में बोए जा रहे इस ज़हर को रोकने की पहल करने की जिम्मेदारी शासक वर्ग को आगे बढ़कर लेनी चाहिए। अगर वो ऐसा नहीं करता है तो विपक्ष की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।
(लेखक लंबे समय तक प्रिंट और टेलीविज़न पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं और अब एक पत्रकारिता संस्थान में पढ़ा रहे हैं।)
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