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वन्य जीवों और इंसानों के बीच पैदा हुए द्वंद्व की कहानी है फिल्म ‘शेरदिल – द पीलीभीत सागा’

वन्य जीव संरक्षण की दिशा में उठाए गए अविवेकी कदमों और समुदायों से छीन कर अपने नियंत्रण में लिए गए जंगलों के बीच इंसान-जानवरों के बीच निर्मित किए गए द्वंद्व का इतना सघन, तीव्र, प्रामाणिक और तथ्यपरक चित्रण कम फिल्मों में होता है। इस काल्पनिक सी लगने वाली सत्य घटना को अपने दौर की एक ‘डार्क कॉमेडी’ के रूप में फिल्म का विषय बनाया है श्रीजित मुखर्जी ने।
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क्या हो जब जंगली जानवरों से मनुष्यों को बचाने के लिए संरक्षित क्षेत्र बनाए जाने लगें या ऐसे क्षेत्रों में रहने वाले गाँव वाले सरकार और न्यायालय से ऐसी मांग करने लगें? यह बात अभी ज़रूर काल्पनिक लग सकती है लेकिन जिस तेज गति से मानव और जंगली जानवरों के बीच द्वंद्व और संघर्ष बढ़ रहा है उन्हें देखते हुए ऐसी स्थिति की कल्पना करना न तो हास्यास्पद ही है और न ही हैरतअंगेज ही। 

एक गाँव है जो जंगल घने, समृद्ध और प्राकृतिक जंगल से इतना करीब है कि गाँव और जंगल के बीच का अंतर मिट जाता है। इस देश में ऐसा गाँव काल्पनिक गाँव नहीं है। ऐसे हजारों गाँव हैं जो जंगल के बीचों-बीच सैकड़ों सालों से बसे हैं। जंगल के बीच गाँव है या गाँव के बीच जंगल यह देखना आज भी कतई मुश्किल काम नहीं है। जब सैकड़ों सालों से जंगल में मौजूद एक गाँव है तो ज़ाहिर है उस गाँव में लोग रहते हैं। इन लोगों में बच्चे, बूढ़े, जवान, औरत मर्द सब हैं। जंगल में पेड़ पौधे हैं, वनस्पति है, नदियां हैं, झीलें हैं, साँप-बिच्छू, भालू हाथी, हिरण, खरगोश सब हैं। इसी जंगल में बाघ भी हैं। इन सभी के बीच सदियों से चली आ रही आपसी समझदारी भी है और एक-दूसरे के लिए जगह भी है। ये सभी एक-दूसरे के पूरक हैं। अकेले अपने आप में कोई भी पूरा नहीं है। गाँव वाले खेती करते हैं, जंगल से मिलने वाले तमाम संसाधन जरूरतों भर के लिए इकट्ठा करते हैं। जंगल इनकी ज़रूरतें पूरा करते हैं तो जानवरों की भी। जानवर जंगल से अपना दाय ले लेते हैं और इंसान अपना। 

न जानवर इंसान की बस्ती में जाते हैं और न इंसान जानवरों की ज़िंदगी में दखल देते हैं। दोनों एक दूसरे के साथ, सम्मान, प्यार और सावधानी के साथ रहते हैं। ज़रूर हमें किताबों में नहीं पढ़ाया गया है कि किसी जंगल में मनुष्य भी रहते हैं। प्राय: जो मनुष्य जंगल में रहते हैं वो आदिवासी होते हैं लेकिन कई गाँव ऐसे भी हैं जहां आदिवासियों के अलावा गैर आदिवासी समुदाय भी जंगल में, जंगल पर निर्भर और जंगल के साझेदार के तौर पर रहते हैं। वे यहाँ सदियों से रहते आए हैं। 

फिर आया व्यापार, उसके पीछे उपनिवेश। हिंदुस्तान में उपनिवेश एक पूंजीवादी उत्पादन और वाणिज्य-व्यापार के तहत आया। उपनिवेश चला गया। पूंजीवाद अपने और विकराल रूप में यहीं रह गया। अब यह विकास के रूप में एक ज़रूरी विचार बन गया। विकास, व्यापार-वाणिज्य, उद्योग और इससे जुड़ी तमाम उत्पादन पद्धतियां अब स्थायी रूप से यहीं रह गयीं जिनके लिए बारी-बारी सभी को अपनी बलि देना अनिवार्य होता गया। 

इस पूंजीवाद ने जंगल और इंसान के बीच के रिश्ते को नयी तरह से परिभाषित करना शुरू कर दिया। सदियों से साथ साथ, एक दूसरे के पूरक बनकर रहते आए इंसान और जानवर के मधुर रिश्तों को भी पुनर्परिभाषित किया गया। यह बतलाया गया कि जानवर, विशेष रूप से बाघ जैसे जानवरों को इंसानों से खतरा है। बाघ इस देश का राष्ट्रीय पशु घोषित कर दिया गया। इसे इंसानों से बचाने के लिए जंगलों को आरक्षित और संरक्षित कर दिया गया। बाघ को किसी सरकारी अधिसूचना से कह दिया गया कि अब से यह निश्चित इलाका तुम्हारा है। तुम्हें यहीं रहना है। तो वहीं इंसानों को भी उसी अधिसूचना से यह कह दिया गया कि अब तुम्हें इस इलाके से दूर रहना है जो बाघ के लिए आरक्षित कर दिया गया है। इसे टाइगर रिज़र्व या संकटग्रस्त वन्य जीवों के लिए आरक्षित क्षेत्र कहा गया। 

अब बाघ अगर इंसानों की बस्ती में जाये तो यह इंसानों की गलती है क्योंकि वो अभी भी वहाँ क्यों बसे हैं और अगर इंसान बाघ के इलाके में जाता है तो भी इंसानों की गलती है कि वो क्यों बाघ की बस्ती में गए जब उन्हें पता है कि यह बाघ के लिए रिज़र्व है। 

सदियों से दो भिन्न प्राणियों के बीच महज़ एक अधिसूचना ने उनकी आपसी समझदारी, पूरक संबंध और एक दूसरे के प्रति सम्मान को दुश्मनी में बदल दिया गया। इस पूरे वाकये को महज़ एक शब्द में ‘बाघ संरक्षण’ कहा जाने लगा। 

अब बाघ के तो इलाके नहीं हो सकते, वो पहले की तरह गाँव में आयेगा। उसके अलावा और भी जानवर आएंगे। उसी जंगल में किसी दूसरी तरफ विस्फोटक डायनामाइट लगाकर खदानें खोदी जाने लगीं। ये आवाज़ें इन जंगली जानवरों के लिए नयी थीं, उनके पुराने रास्ते इन विस्फोटों ने खत्म कर दिये। जानवर रास्ता भूलने लगे, वो झुंझलाने लगे, भूखे रहने लगे, उनका पर्यावास बिगड़ने लाए। ऐसे में वो इंसानी बस्तियों में आने लगे। उनके खेत में खड़ी फसल खाने लगे। घर में रखे अन्न के लिए घर तोड़ने लगे। जब कोई इंसान बीच में आया तो ‘भूख, भय और भ्रम’ पैदा हुई बेचैनी से इन जानवरों ने उन्हें भी अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया। 

अब इंसानों की बस्ती में खेती चौपट, घर मकान चौपट और हर समय जानवरों के बस्ती में आ जाने का खौफ तारी होने लगा। तमाम सरकारी अमला जमला बाघ के लिए हलकान होने लगा लेकिन इंसानों की उपेक्षा करने लगा। यहाँ याद रखना जरूरी है कि जो अधिसूचना इनके बीच आ गयी उसकी मान्यता इन्हीं गाँववालों ने भी दी। इन्होंने अपने लिए सरकार चुनी और फिर सरकार ने बाघ को चुन लिया। 

गाँव में भी ‘भूख भय और भ्रम’ का स्थायी माहौल बन गया। फसलें नष्ट तो कोई मुआवजा नहीं, इंसान मर जाये तो कुछ मुआवजा। गाँव अब मुआवज़े पर जीने लगा। बाघ के हमले बढ़ने लगे। मुआवज़े ने भरपाई करना शुरू कर दिया। भूख, भय और भ्रम का अगला पड़ाव अब हमले, क्षति और मुआवज़े ने ले ली। यही गाँव की कुल जमा नियति बन गयी। 

यह सब सच्चाई में हुआ है। रोज़ हो रहा है सैकड़ों गांवों के साथ। ऐसे ही एक इलाके में, जो उत्तर प्रदेश में है जहां से निरंतर सांसद रहीं एक महिला नेत्री वन्य जीवों बल्कि जानवरों के लिए दुनिया में अपनी संवेदनशीलता के लिए जानी जाती हैं। इस हल्के का नाम है- पीलीभीत। 

पीलीभीत में अचानक बहुत सारे बुजुर्ग बाघ का शिकार होने लगे। यूं कहें बाघ चुन चुनकर गाँव के बुज़ुर्गों पर हमले करने लगा, बाघ आदमखोर हो गया। वन विभाग ने बाघ द्वारा किए जा रहे ऐसे हमलों को संज्ञान में लिया। कुछ पड़ताल भी की और पाया कि इस गाँव में बुज़ुर्गों को जानबूझकर बाघ का चारा बनाया जा रहा है ताकि उनके मरने के बाद सरकार से जो मुआवजा मिले उससे उनके घर चल सकें। जब यह बात प्रकाश में आयी तो गाँव वालों ने कहा कि “बुज़ुर्गों को जबरन शिकार बनने के लिए नहीं भेजा जा रहा है बल्कि बल्कि वो अपनी मर्ज़ी से बाघ के सामने जाते हैं ताकि बाघ उन्हें खा ले और उनके बलिदान के बदले परिवार वालों को मुआवजा मिले”। यह सत्य घटना 2017 में प्रकाश में आयी और खूब चर्चा में रही। लोगों को इस पर भरोसा नहीं हुआ। 

विशेष रूप से उन्हें तो इस सत्य घटना पर कतई भरोसा नहीं हुआ जिन्होंने कभी साथ रहे जानवरों और मनुष्यों को महज़ एक अधिसूचना से अलग होते और एक-दूसरे का दुश्मन बनते नहीं देखा। ऐसे लोगों ने अपने जीवन काल में यह भी नहीं देखा था कि जब एक गाँव को बाघ संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया जाता है तो कैसे उसके आस-पास के गाँव की हर नागरिक सुविधा से वंचित कर दिया जाता है। फिर ऐसे में उस गाँव का क्या होता है? इन्होंने यह भी नहीं देखा कि ऐसे कितने ही घने, समृद्ध जंगलों को  बाघ संरक्षण की आड़ में सरकार अपने संपूर्ण नियंत्रण में ले लेती है और पर्यावरण के लिए संवेनदशील बताए जाने वाले जंगल को खनन कंपनियों को दे देती है जहां से ज़मीन के नीचे सदियों से जमा हुए खनिज, कोयला आदि को जंगल नष्ट करके, धरती का सीना चीर कर निकाला जाता है तब जानवरों पर क्या बीतती है? इन्होंने शायद हताशा की वो इंतिहां भी कभी करीब से नहीं देखी जो पीलीभीत और ऐसे तमाम इलाकों में पैदा होती है जहां वन्य जीव संरक्षण के नाम पर इंसानों से न्यूनतम मानवीय गरिमा छीन ली जाती है। बहरहाल, इस काल्पनिक सी लगने वाली सत्य घटना को अपने दौर की एक ‘डार्क कॉमेडी’ के रूप में फिल्म का विषय बनाया है श्रीजित मुखर्जी ने। फिल्म का नाम है- शेरदिल, द पीलीभीत सागा। 

‘शेरदिल’ फिल्म उस घटना और वाकये को बखूबी पर्दे पर उतारती है। जहां एक ऐसे गाँव का सरपंच, जो बाघ संरक्षण की चपेट में आ चुका है, अपने गाँव की खुशहाली के लिए स्वेच्छा से जंगल में बाघ का शिकार बनने जाता है। बाघ उसके लिए अब भी बहुत पूज्य जानवर है। वह बाघ से मिलकर खुद को खत्म करने की इल्तिजा करता है। लेकिन बाघ का पेट भरा है। वह जंगली है इसलिए उसे ‘इफ़रात’ की ज़रूरत नहीं है। वह तभी शिकार करेगा जब उसे भूख होगी। यहाँ एक जानवर इंसान से बड़ा हो जाता है। शेरदिल, सरपंच बने गंगाराम यानी पंकज त्रिपाठी कहते भी हैं कि एक शहर के लोग हैं जिनकी भूख कभी मिटती ही नहीं। यह उनका तजुर्बा है जो उन्हें भिन्न- भिन्न दफ्तरों में होता है। वो बतौर सरपंच, अपने गाँव की समस्याओं को हर संबन्धित दफ़्तरों के चक्कर काटते रहता है लेकिन उसे कोई ठीक से कुछ बताता तक नहीं है।  

गंगाराम जब जंगल में बाघ से मुलाक़ात के लिए परेशान हैं तभी उन्हें एक शिकारी मिलता है। अब एक शिकारी है जो बाघ को मारना चाहता है। एक गंगाराम हैं जो खुद को बाघ का शिकार बनाना चाहते हैं। इन दोनों के बीच में एक बाघ है जिसकी इच्छा का किसी को पता नहीं। बाघ आदम खोर नहीं है और जिस समय उसका सामना गंगाराम से होता है उस समय उसका पेट भरा हुआ है। वह गंगाराम को सामने देखकर भी जम्हाई लेता रहता है। उसके शिकार न करने से परेशान गंगाराम उसे उलाहना/ताना मारता है लेकिन वह इसे बेखबर अपनी धुन में खड़ा है। लेकिन जो शिकारी है जिम साहब (जिम कार्बेट से प्रेरित) नीरज कबी वो हर हाल में इस बाघ को मार देना चाहता है। अपनी रोजी रोटी के लिए। यहाँ बाघ और शिकारी एक हो जाते हैं जो अपनी भूख के लिए किसी को मारते हैं। बाघ इंसान को मारकर अपनी भूख शांत करता है और शिकारी के रूप में इंसान बाघ को मारकर। शिकारी बाघ के अंग बेचकर अपनी भूख को शांत करना चाहता है। इनके बीच गंगाराम है जो खुद को बाघ का शिकार बनाकर अपने परिवार और गाँव की भूख शांत करता है। बाघ, शायद गंगाराम की योजना समझ रहा है इसलिए उस पर आक्रमण नहीं करता। शायद सदियों का रिश्ता इनके बीच आ जाता है। बहरहाल। 

ये फिल्म कुछ कहने के लिए बनाई गयी है। यह फिल्म रोमांचित करती ही। हैरान करती है और सबसे बड़ी बात कई मामलों में बहुत आश्वस्त करती है। यह फिल्म एक ‘स्याह हास्य’ बोध रचती है और इस हास्य के पीछे छिपी संरक्षण के नाम पर दबी छिपी तमाम बिडम्बनाओं को बेपरदा करती है। यह फिल्म इस देश में वन्य जीव संरक्षण और इंसानी ज़िंदगियों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को उजागर करती ही और उन बुनियादी गलतियों पर गंभीर चोट करती है जो इस देश में संरक्षण के नाम पर बार- बार दोहराई जाती हैं।

फिल्म के लगभग अंतिम दृश्य में गंगाराम अदालत में खड़ा होकर जो तकरीर करते हैं वो इस देश के संरक्षण वादियों को ज़रूर सुनना चाहिए और संरक्षण के लिए जिम्मेदार वन विभाग और वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के हुक्मरानों को भी ज़रूर सुनना चाहिए ताकि बार-बार और हर बार दोहराई जा रही गलतियों पर गंभीरता से पुनर्विचार किया जा सके और उन्हें सुधारा जा सके।
 

यह छोटी फिल्म उन्हें ज़रूर देखना चाहिए जिन्हें 1972 तक यानी वन्य जीव संरक्षण कानून के अस्तित्व में आने से पहले तक यह लगता था कि वन्य जीवों की वजह से देश के जंगलों को खतरा है, जिन्हें ये लगता रहा कि जंगल में बसे आदिवासियों और अन्य समुदायों की वजह से जंगल को खतरा है और जिन्हें ये लगता है कि उनके नियंत्रण में आ जाने से से देश का जंगल, जानवर सुरक्षित हो गए हैं। 

बहरहाल, फिल्म संवेदनाओं का एक व्यापक फलक रचती है जिसमें न तो बाघ इंसान का दुश्मन है और न ही इंसान बाघ का। दुश्मन इन दोनों के बीच में कहीं है। ये बाहरी ताक़तें हैं जिन्हें भी हालांकि इंसानों के जरिये ही अपनी भूमिका निभाना है। इन ताकतों में बाज़ार है, उत्पादन है, व्यापार है, वाणिज्य है और संयोग देखिये जो असल में श्रीजित मुखर्जी हमें दिखलाना चाहते हैं कि इन बाहरी ताकतों के प्रतिनिधियों के हाथों में बंदूक है। शिकारी के हाथ में भी बंदूक है और वन विभाग के अमले में शामिल अधिकारियों के हाथों में भी बंदूक है। गंगाराम और उनके गाँव वालों के हाथों में बंदूक नहीं है। जिन दो लोगों के हाथों में बंदूकें हैं वो इन दोनों के असल दुश्मन हैं। 

बेहद कम कलाकर लेकिन सभी का शानदार अभिनय, कसी हुई पटकथा, प्रवाहमय सहज संवाद आदायगी और मौके के अनुकूल पार्श्व से चलते गीत, जंगल का प्रामाणिक चित्रण और बेबसी का सघन फिल्मांकन इस फिल्म को इतना प्रामाणिक बनते हैं कि लगता ही नहीं कि आप कोई फिल्म देख रहे हैं या इस ‘डार्क कॉमेडी’ का खुद एक अभिन्न हिस्सा हैं। 

वन्य जीव संरक्षण की दिशा में उठाए गए अविवेकी कदमों और समुदायों से छीन कर अपने नियंत्रण में लिए गए जंगलों के बीच इंसान-जानवरों के बीच निर्मित किए गए द्वंद्व का इतना सघन, तीव्र, प्रामाणिक और तथ्यपरक चित्रण कम फिल्मों में होता है। इसे ज़रूर देखा जाना चाहिए। यह फिल्म नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है।  

(लेखक कई सालों से जन आंदोलनों से जुड़े हैं। जल, जंगल ज़मीन और आदिवासी समुदायों से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय हैं। यहाँ व्यक्त हुए विचार व्यक्तिगत हैं।)

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