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अध्ययन-विश्लेषण: उत्तर प्रदेश में गहराता रोज़गार संकट

लंबे समय से हमारा देश विकसित राष्ट्र बनने के लिए जनसांख्यिकीय लाभांश का उपयोग करने की आशा कर रहा था लेकिन सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में रोज़गार के हालिया रुझान एक गंभीर तस्वीर पेश करते हैं।

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साभार: फ्रीप्रेस जर्नल

नरेंद्र मोदी की सरकार के एक ख़राब निर्णय ने देश के नौजवानों को सड़कों पर आंदोलन के लिए मजबूर कर दिया है। केंद्र सरकार के सेना में अग्निपथ योजना के जरिये चार सालों के लिए भर्ती के निर्णय के खिलाफ देश भर में आंदोलन हो रहे हैं। स्वत: स्फूर्त फूट पड़े इन विरोध प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में नौजवान हिस्सा ले रहे हैं तथा कई जगहों पर इस आंदोलनों में हिंसा भी हुई है। हालांकि इस विषय पर बहुत कुछ लिखा-कहा जा चुका है इसलिए हम यहाँ इस स्कीम पर चर्चा नहीं करेंगे परन्तु नौजवानों के गुस्से और आक्रोश के असल कारणों पर चर्चा करेंगे।

अगर किसी को यह लगता है कि नौजवानों के इस गुस्से का कारण केवल अग्निवीर योजना है तो यह उनका भ्रम है। दरअसल नौजवानों के गुस्से का असल कारण देश में व्याप्त भयंकर बेरोजगारी और इसके लिए जिम्मेदार आर्थिक नीतियां हैं। युवाओं के गुस्से के फूटने में अग्निपथ योजना ने केवल एक तत्कालीन कारक की भूमिका अदा की है।

आज से लगभग एक दशक पहले हमारे देश में डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यिकीय लाभांश) के बारे में बहुत चर्चा हो रही थी। भारत में काम करने की उम्र में आबादी का एक विशाल हिस्सा प्रवेश करने जा रहा था। डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यिकीय लाभांश) का मतलब है कि हमारा देश एक ऐसे चरण से गुजर रहा है जिसमें कामकाजी उम्र की आबादी का हिस्सा बढ़ रहा है, और आश्रित आबादी का हिस्सा (15 से कम और 60 वर्ष से अधिक) कम हो रहा है।

2014 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस डेमोग्राफिक डिविडेंड के अग्रणी प्रचारक थे। उनकी सबसे बड़ी अपील युवाओं के लिए थी। इस प्रक्रिया में तथाकथित 'दो करोड़ वार्षिक नौकरियों का 'जुमला' आया। प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद भी उन्होंने अभियान जारी रखा, लेकिन इस बार उनका क्षेत्र बदल दिया गया। अपनी लगभग सभी विदेशी यात्राओं के दौरान (जैसा कि हम जानते हैं कि ऐसी यात्राओं की एक बड़ी संख्या है) वह इस डेमोग्राफिक डिविडेंड के लाभ की शेखी बघारते थे। युवाओं के कंधो पर चढ़ कर ही वह सफलता के इस शिखर पर पहुंचे है।

परन्तु देश इस अवसर का लाभ उठाने में तो असफल रहा ही परन्तु हमने युवाओं को भी हताशा में ही धकेला है। नौजवानों को अच्छी शिक्षा और रोजगार देकर ही इस अपार मानव संसाधन का उपयोग देश की प्रगति के लिए किया जा सकता था। इसके लिए देश की सरकार को केवल बातों से आगे बढ़कर रोजगारोन्मुखी नीतियां बनाने की आवश्यकता है। मोदी सरकार ने बिलकुल इससे विपरीत नीतिया बनाई जिसका परिणाम है कि अप्रैल 2022 में भारत में बेरोजगारी दर 7.80 प्रतिशत हो गई है। हालाँकि असल तस्वीर का पता तो श्रम शक्ति भागीदारी दर (एलएफपीआर) से ही चलता है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के डेटा से पता चलता है कि भारत की श्रम शक्ति भागीदारी दर (एलएफपीआर) सिर्फ 40% रह गई है। जिसका मतलब है कि कामकाजी उम्र के केवल 40% भारतीय ही रोजगार में है या नौकरी की तलाश कर रहे थे। 2016-17 में श्रम शक्ति की भागीदारी दर 46 फीसदी से अधिक थी। इससे भी ज्यादा चिंताजनक है महिलाओं के बीच श्रम शक्ति भागीदारी की दर। महिलाएं पहले से ही श्रम शक्ति का एक छोटा हिस्सा थी लेकिन इसमें और गिरावट आई है। वर्ष 2016-17 में, लगभग 15% महिलाएं रोजगार में थीं या नौकरी की तलाश में थीं, यह संख्या वर्ष 2021-22 में केवल 9.2% रह गई है ।

यही कारण है कि देश के नौजवान गुस्से में। ग्रामीण क्षेत्रो में बहुत से नौजवानों को आशा होती है कि वह सेना में चले जायेंगे। सरकार के इस निर्णय से उनकी जब यह आशा भी टूटती नज़र आई तो सड़क ही एकमात्र जगह बची जहाँ वह अपना विरोध दर्ज करवा सकते थे। अगर हम देखें तो यह विरोध उन राज्यों में ज्यादा मजबूती से हो रहें है जहाँ बेरोजगारी की दर विशेषतौर पर नौजवानो में बेरोजगारी की दर ऊँची है। हम उत्तर प्रदेश के उदहारण से इस बात को समझ सकते है। उत्तर प्रदेश तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट की बुलडोज़र राजनीति और आंदोलनकारियों के खिलाफ गैरकानूनी अत्याचारों के लिए ख्याति पा रहा है। उनकी पूरी कोशिश रही है लोगो में डर पैदा करने की, ताकि किसी मुद्दे पर भी विरोध की गुंजाईश ही ख़त्म कर दी जाए। लेकिन इस सबके बावजूद उत्तर प्रदेश में नौजवानों ने विशाल विरोध प्रदर्शन किये। इसका कारण है प्रदेश में लगातार घटते रोजगार के अवसर। योगी जी हिंदू हृदय सम्राट बनने की होड़ में यह भूल गए कि नौजवानों से केवल नारे लगवाने से प्रदेश आगे नहीं बढ़ेगा, उनको रोजगार भी देना होगा।

हालाँकि प्रदेश में लगे बड़े बड़े होर्डिंग और अखबारों के विज्ञापनों से भ्रम पैदा करने की कोशिश पूरी है परन्तु धरातल पर सच्चाई को तो छुपाया नहीं जा सकता। हाल ही में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित "अनफोल्डिंग द एम्प्लॉयमेंट स्टोरी इन उत्तर प्रदेश" नामक एक शोध पत्र में, इंद्रवीर सिंह, कमल सिंह और आशापूर्णा बरूच ने उत्तर प्रदेश में रोजगार के अवसरों में कमी का विश्लेषण किया है। इस लेख में उत्तर प्रदेश में रोजगार में बदलाव की चर्चा की गई है जिससे राज्य में गहरे रोजगार संकट का पता लगाता है।

अध्ययन का विश्लेषण यह दर्शाता है कि 2011-12 के बाद श्रम शक्ति भागीदारी दर में तेज गिरावट हुई है और बेरोजगारी की दर में वृद्धि हुई है। युवाओं और सबसे खास तौर पर अधिक शिक्षित लोगों में रोजगार में गिरावट अधिक है। पेपर से यह भी पता चलता है कि महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर 2018-19 में ऐतिहासिक निचले स्तर पर पहुंच गई। अगर समस्या के बारे में और गहराई से समझना है तो महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर और आयु समूह के अनुसार श्रम शक्ति भागीदारी दर के बारे में तुलनात्मक चर्चा महत्वपूर्ण है। आगे हम इसी पर थोड़ा विस्तार से चर्चा करेंगे।

शोध पत्र के लेखकों ने वर्ष 1993-94, 1990-2000, 2004-05, 2011-12 के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा किए गए रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति (ईयूएस) सर्वेक्षण के चार दौर से इकाई स्तर के आंकड़ों का उपयोग किया है। इनकी तुलना की गई है ताजा श्रम सर्वेक्षण से जो वर्ष 2018-19 में किया गया था।

पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर: 2004-05 के बाद श्रम शक्ति भागीदारी दर (WFPR) में समग्र गिरावट आई है। हालाँकि गिरावट अखिल भारतीय स्तर पर भी दर्ज की परन्तु, उत्तर प्रदेश में रोजगार में गिरावट ज्यादा बदतर है। 1993-94 में भारत के सभी कामकाजी आयु समूहों के लिए पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर ग्रामीण क्षेत्रों में 88.4% और शहरी क्षेत्रों में 79.8% थी। वर्ष 2017-18 में ग्रामीण और शहरी भारत में पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर घटकर क्रमशः 75.8% और 73.7 रह गई। इसके बनिस्पत उत्तर प्रदेश में वर्ष 1993-94 पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर ग्रामीण क्षेत्रों में 88.2 और शहरी क्षेत्रों के लिए 78.6 थी जो वर्ष 2018-19 में ग्रामीण क्षेत्रों में 72.2% और शहरी क्षेत्र में 65.4% रह गई।

हालांकि अखिल भारतीय आंकड़े भी श्रम शक्ति भागीदारी दर में गिरावट दिखाते हैं परन्तु उत्तर प्रदेश यह गिरावट में काफी बड़ी थी। 1993-94 और 2018-19 के बीच, उत्तर प्रदेश में कामकाजी उम्र के पुरुषों में ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम शक्ति भागीदारी दर में 17 प्रतिशत अंक और शहरी क्षेत्रों में 13.2 प्रतिशत अंक की गिरावट आई है। इसकी तुलना में अखिल भारतीय स्तर पर यह आंकड़े क्रमशः 12.6 प्रतिशत अंक और 6.1 प्रतिशत अंक है। श्रम शक्ति भागीदारी दर में सबसे तेज गिरावट 2011-12 के बाद के वर्षों में देखी गई है। 2011-12 और 2018-19 के बीच, कामकाजी उम्र के पुरुषों में पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर ग्रामीण क्षेत्रों में 81.6% से घटकर 72.2% और शहरी क्षेत्रों में 77.1% से 65.4% हो गई ।

महिला श्रम शक्ति भागीदारी दरपूरे भारत में महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर काफी खराब है, लेकिन यूपी में यह ज्यादा निराशाजनक है। उत्तर प्रदेश में महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर पहले से ही गिरती चली आ रही है लेकिन वर्ष 2018-19 में यह अपने निचले स्तर पर पहुँच गई। 2004-05 में शहरी और ग्रामीण उत्तर प्रदेश में महिलाओं में श्रम शक्ति भागीदारी दर क्रमशः 40.5 और 17.3 प्रतिशत थी। 2018-19 में यह आंकड़ा ग्रामीण महिलाओं के लिए घटकर 15.0 और शहरी महिलाओं के लिए 9.3 रह गया। इसका मतलब है कि ग्रामीण महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर में 2004-05 और 2018-2019 के बीच 25.5 प्रतिशत अंक की गिरावट आई है वही शहरी महिलाओं के लिए श्रम शक्ति भागीदारी दर 2018-19 में घटकर 9.3 प्रतिशत हो गई । गौरतलब है कि यह वर्ष 1993-1994 के बाद का सबसे निचला स्तर है।

यह इंगित करता है कि उत्तर प्रदेश में, कामकाजी उम्र की हर 100 में से 91 महिलाएं बेरोजगार है। इसलिए इस बात के बहुत कम संकेत हैं कि उत्तर प्रदेश और शेष भारत के बीच यह जो खाई है यह कम होगी। 2018-19 में उत्तर प्रदेश में महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर, राष्ट्रीय दर से लगभग आधी थी। इसका मतलब है कि उत्तर प्रदेश में महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे पर कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है उल्टा महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं। यह चलन लैंगिक समानता और उच्च आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने की दृष्टि से बहुत घातक है ।

उम्र के अनुसार श्रम शक्ति भागीदारी दर: इस अध्ययन से पता चला है कि सभी आयु समूहों में श्रम शक्ति भागीदारी दर घट रही है, जो बहुत खतरनाक पहलू है। 15 से 25 वर्ष के आयु वर्ग में पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर (MWFPR) में सबसे बड़ी गिरावट आई है। ग्रामीण क्षेत्रों में, 15 से 25 वर्ष की आयु के लोगों के लिए पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर में 18.1 प्रतिशत अंक की कमी आई, जबकि शहरी क्षेत्रों में 13.6 प्रतिशत अंक की कमी आई है। उच्च शिक्षा के प्रवेश में वृद्धि इस गिरावट का एक कारण हो सकता है परन्तु यह एकमात्र कारक नहीं है क्योंकि यह गिरावट बहुत अधिक है।

26 से 39 वर्ष और 41 से 59 वर्ष की आयु वर्ग की प्रमुख कामकाजी उम्र में श्रम शक्ति भागीदारी दर में गिरावट के लिए केवल रोजगार में कमी जिम्मेवार है। उत्तर प्रदेश में इन आयु समूहों के लिए पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर में 1993-1994 से 2011-2012 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में 96 से 99 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 93 से 97 प्रतिशत के बीच रही। वर्ष 2018-19 में पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर इन स्तरों से भी नीचे चली गई है, और यह गिरावट शहरी क्षेत्रों में काफी अधिक स्पष्ट थी। 2011-12 और 2018-19 के बीच, शहरी उत्तर प्रदेश में पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर 26-40 वर्ष आयु वर्ग के लिए 95.4% से 82.2% और 41-59 वर्ष के लिए 95.7% से 87.7% तक तेजी से गिर गया। आयु वर्ग 26 से 40 और 41 से 59 आयु वर्ग के लिए, इस दौरान उत्तर प्रदेश के ग्रामीण हिस्सों में पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर में क्रमशः 3.9 प्रतिशत अंक और 3.1 प्रतिशत अंक की कमी आई।

अध्ययन से पता चलता है कि 15-25 वर्ष आयु वर्ग की महिलाओं के लिए श्रम शक्ति भागीदारी दर सबसे कम है। इसके बाद 26-40 वर्ष आयु वर्ग का स्थान है। यह चिंताजनक पहलू है। वर्ष 2018-19 में उत्तर प्रदेश में 15-26 वर्ष के आयु वर्ग के लिए, ग्रामीण क्षेत्रों में महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर 6.1% और शहरी क्षेत्रों में 5.7% थी । इसी अवधि के लिए 26-40 वर्ष आयु वर्ग के लिए, संबंधित आंकड़े ग्रामीण क्षेत्रों में 17.2 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 10.2 प्रतिशत थे। इसकी तुलना में इसी वर्ष पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर के छह गुना से अधिक था।

रोजगार और शिक्षा: एक आम धारणा है कि अशिक्षितों में बेरोजगारी अधिक है और शिक्षित व्यक्तियों को अच्छा रोजगार मिल रहा है। ईपीडब्ल्यू में प्रकाशित वर्तमान अध्ययन के निष्कर्ष इस धारणा के विपरीत हैं। अध्ययन से सामने आया है कि वर्ष 2004-05 के बाद से अखिल भारतीय स्तर पर और उत्तर प्रदेश में सभी पड़े लिखे लोगों के श्रम शक्ति भागीदारी दर में गिरावट आई है। यह गिरावट, शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों दर्ज की गई है। एक उदाहरण लें, ग्रामीण उत्तर प्रदेश में स्नातक और उससे ऊपर की श्रेणी में पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर 2018-19 में केवल 72.3% थी, जबकि 2004-05 में यह 88.9% थी, यानी 16.6 प्रतिशत अंकों की गिरावट। माध्यमिक और उच्च शिक्षा वाले लोगों के रोजगार में भी कमी के ऐसे ही रुझान सामने आये है। ग्रामीण उत्तर प्रदेश में इस इस समूह में पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर में 2004-05 और 2011-12 के बीच 7.7 प्रतिशत अंक और 2011-12 और 2018-19 के बीच अतिरिक्त 10.8 प्रतिशत अंक की गिरावट आई। 2011-12 के बाद, यूपी की कम शिक्षित ग्रामीण आबादी में भी पुरुष श्रम शक्ति भागीदारी दर आधे से कम हो गया है।

इसके दो मुख्य कारण हैं। यह कमी या तो इस कारण से हो सकती है कि नौकरी न मिलने वाले शिक्षित लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है या शिक्षित लोग नौकरी छोड़ रहे है। इसका मतलब है कि रोजगार सृजन के अवसरों में कमी हो रही है और रोजगार में लगे लोगो की नौकरी छूट रही है। हमारे अनुभव भी इसी बात को पुख्ता करते है जहाँ न तो शिक्षित लोगो को पर्याप्त नौकरियां मिल रही है, यहां तक कि जो लोग नौकरियों में है, उनका काम भी छूट गया है। इसके लिए कोरोना महामारी को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि यह आंकड़े कोरोना से पहले के हैं।

बेरोजगारी: यूपी में बेरोजगारी में वृद्धि, श्रम शक्ति भागीदारी दर में आई गिरावट के अनुसार ही दर्ज की गई है। वर्ष 2011-12 और 2018-19 के बीच, बेरोजगारी दर तेजी से बढ़ी है। ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी दर, जो 1993-94 के बाद से कभी भी 1% का आंकड़ा पार नहीं कर पाई थी, 2018-19 में बढ़कर 4.1% हो गई। उत्तर प्रदेश के शहरी क्षेत्र में बेरोजगारी की दर 2011-12 में 3.5 प्रतिशत से बढ़कर 2018-19 में 8.5 प्रतिशत हो गई। ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों की बेरोजगारी दर शहरी इलाकों की तुलना में कुछ कम है। इसका मुख्य कारण मनरेगा में मिलने वाला काम है, हालाँकि उत्तर प्रदेश सरकार की प्राथमिकता कभी भी इसको सही से लागू करना नहीं रही है। और एक बात ध्यान देने वाली है कि महिला आबादी में बेरोजगारी दर में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं दिखाई। इसका मुख्य कारण यह है कि रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण में बेरोजगार महिलाओं को अक्सर घरेलू कामों या घरेलू गतिविधियों में संलग्न होने के रूप में पंजीकृत किया जाता है, भले ही उनमें से कई रोजगार की तलाश में हों। इसलिए बेरोजगार और काम की तलाश में होने के बावजूद महिलाएं आधिकारिक बेरोजगारों की गिनती से बाहर कर दी जाती है। बेरोजगारी केवल युवाओं में ही नहीं बड़ी है बल्कि, उम्रदराज लोगों के रोजगार में भी गिरावट देखी गई है। जैसा कि पहले कहा गया है बेरोजगारी सभी शिक्षित लोगों में बढ़ी थी। कम पड़े लिखे लोगों में भी बेरोजगारी की यह वृद्धि विशेष रूप से 2011-12 और 2018-19 के बीच अधिक है।

निष्कर्ष यह निकलता है कि लंबे समय से हमारा देश विकसित राष्ट्र बनने के लिए जनसांख्यिकीय लाभांश का उपयोग करने की आशा कर रहा था लेकिन सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में रोजगार के हालिया रुझान एक गंभीर तस्वीर पेश करते हैं, जहां 2011-12 और 2018-19 के बीच रोजगार में तेज गिरावट देखी गई। अखिल भारतीय स्तर पर भी यही हालत है। उपरोक्त अध्ययन से यह भी पता चलता है कि सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे लोग रोजगार में इस गिरावट के प्राथमिक पीड़ित है । इसके अतिरिक्त, महिला रोजगार तो बहुत नीचे चला गया है। यह प्रवृत्ति रोजगार की संभावनाओं की सामान्य कमी को इंगित करती है ।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार केवल "डिसेंट" नौकरी करने वालों को ही रोजगारों की सूची में चिह्नित किया जाना चाहिए। डिसेंट नौकरी में अन्य बातों के अलावा, ऐसे काम के अवसर शामिल होते हैं जिनसे उचित आय मिले, जो कार्यस्थल में सुरक्षा और परिवारों के लिए सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करे, और जो व्यक्तिगत विकास के लिए बेहतर संभावनाएं प्रदान करते हैं। अगर ILO के रोजगार के इन मानदंडों के आधार पर आकलन करें तो भारत में बेरोजगारी दर बहुत अधिक होगी। इसका मतलब है कि भारत जनसांख्यिकीय लाभांश द्वारा प्रस्तुत अवसर का उपयोग करने में विफल रहा है। यह हिंदुत्व और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की दोहरी नीतियों का परिणाम है, जहां सांप्रदायिक एजेंडे के इर्द-गिर्द लोकप्रिय विमर्श बनाया जाता है और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को युद्धस्तर पर लागू किया जाता है। इसी का उदाहरण उत्तर प्रदेश है; जहां सरकार युवाओं के रोजगार की कब्र पर मंदिर बनवाने में लगी है। लोगों को धर्म और जाति की आग में धकेल कर, बिना पता लगे उनके रोजगार ख़त्म किये जा रहें है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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