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विरोध का कोई स्वर नहीं : भारत की ख़ाली सड़कें किस बात का प्रतीक हैं?

एक राष्ट्रीय आंदोलन निश्चित तौर पर अपनी आहट दे रहा है, सिर्फ़ हाथ में नहीं आ रहा।
विरोध का कोई स्वर नहीं

ऐसा लगता है भारत में एक ऐतिहासिक विडंबना ख़ुद को उजागर कर रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे सारी दुनिया तो बग़ावत के मूड में है, जबकि भारत इस प्रकार के किसी भी अनुभव को हासिल करने के आस-पास भी नहीं है। पिछले कुछ महीनों से, और उससे पूर्व के वर्षों में सड़कों पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों ने लैटिन अमेरिका, अफ़्रीका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के कई देशों को झकझोर कर रख दिया है।

इस तरह के प्रमुख विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत 2010 में मिडिल ईस्ट और मिस्र में हुई थी, जब वहाँ के लोग अपनी निरंकुश सरकारों के ख़िलाफ़, लोकतंत्र की माँग को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, जिसे “अरब का वसंत” के नाम से प्रसिद्धि मिली। यह 2011 में उत्तरी अमेरिका में ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट के ख़ुशनुमा दिनों के दौरान छलक पड़ा, जब न्यूयॉर्क में ज़ुकोटी पार्क को छात्रों, अप्रवासियों, बेरोज़गारों और अन्य लोगों ने कार्पोरेशनों से जवाबदेही की मांग को लेकर अपने क़ब्ज़े में कर लिया था। इसके बाद यह 2013 में ब्राज़ील में फैल गया, जहां इसे ब्राज़ीलियन वसंत या निःशुल्क किराये के लिए आंदोलन का नाम दिया गया। सार्वजनिक परिवहन सेवाओं की क़ीमतों में कमी और सबके लिए बेहतर शिक्षा मुहैया कराने की माँग के रूप में यह एक राष्ट्रव्यापी माँग के रूप में प्रस्तुत हुआ।

एक बार फिर से दुनिया भर के विभिन्न हिस्सों में राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन देखने को मिल रहे हैं, और इनमें से क़रीब-क़रीब सभी माँगें एक जैसी हैं जिन्हें हम नवउदारवादी सुधार के रूप में जानते हैं, के ख़िलाफ़ आयोजित हो रहे हैं। पिछले कुछ महीनों से हमने देखा कि इस जून से चीन के हांगकांग में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं, जिसमें उनका प्रदर्शन नए प्रत्यर्पण क़ानूनों और उनकी स्वायत्तता में की जाने वाली कटौती के विरोध में है। तत्पश्चात मध्य अमेरिका के चिली में सार्वजनिक परिवहन के किराये में बढ़ोतरी के ख़िलाफ़ और लेबनान में लागू किये गए नए टैक्स के ख़िलाफ़ बड़े-बड़े विरोध प्रदर्शन देखने को मिले हैं। इससे काफ़ी पहले, हमने वेनेज़ुएला में मुद्रा के प्रस्तावित विमुद्रीकरण के ख़िलाफ़ हिंसा और सड़कों पर जमकर होते हुए प्रदर्शनों को देखा है।

भारत भी अधिकांशतया इसी तरह के सवालों से जूझ रहा था, लेकिन यहाँ पर इस प्रकार का कोई भी राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा नहीं हो सका। मुद्रा के विमुद्रीकरण (डिमोनेटाइज़ेशन) ने, जिसने छोटे और मझौले उद्यम के क्षेत्र में, जिससे विकास और रोज़गार के अवसरों पर बेहद ख़राब असर डाला है। उल्टा इन उपायों ने वर्तमान सत्ताधारी दल को भरपूर चुनावी फसल उगाहने का काम किया, जबकि एक बार और विचार करें तो भ्रष्टाचार से लड़ने में इसकी सफलता संदेहास्पद रही है। बड़े पैमाने पर लोगों में अभी भी यह भरोसा बना हुआ है कि वर्तमान व्यवस्था और इसके नेतृत्व ने कम से कम ईमानदारी से काले धन और ब्लैक इकॉनमी के ख़िलाफ़ मुहिम तो छेड़ रखी है।

इसी तरह, भारत में बिना किसी विरोध के माल और सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने वाले टैक्स सुधारों को लागू किया जा सका है। यहां तक कि राज्य की अन्य क्षेत्रीय सरकारों तक ने इस मुद्दे पर सड़क पर आकर कोई विरोध दर्ज नहीं कराया। अधिकतर वस्तुओं की क़ीमतों में बेतहाशा वृद्धि और उसके फलस्वरूप कारोबार और मुनाफ़े पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव के बावजूद, संगठित विरोध का कोई स्वर सुनाई नहीं पड़ा और न ही चुनावी नतीजों के रूप में इसके दुष्परिणाम देखने को मिले हैं।

भारत में कृषि संकट की स्थिति अभूतपूर्व बनी हुई है। तेलंगाना, महाराष्ट्र, बुंदेलखंड, बिहार और मध्य भारत के कुछ हिस्सों सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों में किसानों की आत्महत्या का क्रम जारी है। हालाँकि हमने देखा कि 2019 में आम चुनावों के आस-पास किसानों ने फसल ख़रीद क़ीमतों के सवाल पर और अपने लड़खड़ाते भविष्य के मद्देनज़र विरोध प्रदर्शन आयोजित किये, लेकिन यह ग़ुस्सा भी जल्द ही काफ़ूर हो गया और चुनाव परिणामों पर इनका कोई ख़ास असर देखने को नहीं मिला। हालांकि, ऐसा अनुभव होता है कि इन मुद्दों ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में चुनावी नतीजों पर कुछ असर अवश्य डाला।

इस प्रकार के सड़कों पर विरोध प्रदर्शन की एकमात्र घटना हाल के दिनों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों के रूप में प्रकाश में आई है। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा प्रस्तावित शुल्क वृद्धि में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ हाल ही में सड़कों पर छात्रों के विरोध प्रदर्शन को हमने देखा है। हालांकि यह आंदोलन दिल्ली केन्द्रित ही बना रहा। एक ऐसे दौर में जब मुख्यधारा की मीडिया और ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस तरह के मुद्दों को क़रीब-क़रीब ब्लैकआउट करने का रिवाज सा है, उसकी तुलना में इस मुद्दे ने चुनिंदा मीडिया समूह का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफलता प्राप्त की है। यह कोई राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन नहीं था, और समाज के अन्य वर्गों या भारत के दूसरे हिस्सों में छात्रों को सड़कों पर लाने में असफल रहा, जैसा कि हमने अतीत में इसे ब्राज़ील में या वर्तमान में हांगकांग में होते देखा है।

भारत, जिसे एक समय नाना प्रकार के सशक्त सामाजिक आंदोलनों के लिए जाना जाता था, आज सत्ता में बैठे लोगों पर किसी भी प्रकार का प्रभाव डाल पाने के लिए जूझ रहा है। आज हमारे पास एक भी ऐसा स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर का आंदोलन नहीं है जो सड़कों को झकझोर कर रख दे। हालिया घटनाक्रम में, तेलंगाना में सड़क परिवहन निगम के पचास हज़ार के क़रीब कर्मचारियों को निकाल बाहर किया गया है, और यह आंदोलन भी धूल-धूसरित हो चुका है।

ये सूनी सड़कें किस बात की प्रतीक हैं? क्या वजह है कि किसानों, छात्रों, शहरी और ग्रामीण ग़रीबों, अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्रों के कामगारों, व्यापारियों, आदिवासियों, दलितों सहित अन्य लोगों ने सड़कों पर किये जाने वाले विरोध प्रदर्शनों से ख़ुद को पीछे खींच लिया है? क्या यह भारत में चुनावी राजनीति और लोकतंत्र की विफलता या सफलता की विडंबना को दर्शाता है? विश्व स्तर पर, नवउपनिवेशवाद के चलते ही  दुनिया के विभिन्न हिस्सों में सड़कों पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों ने अपनी भूमिका निभाई है, लेकिन वहीँ भारत हम ऐसा होते नहीं देख पा रहे हैं, इस तथ्य के बावजूद कि भारत भी ठीक उन्हीं वैश्विक आर्थिक नीतियों  को भुगतने के दौर से गुज़र रहा है।

कुछ हद तक इस अकथनीय मनोदशा के लिए एक संभावित स्पष्टीकरण वैश्वीकरण के बाद भारत में बदलती स्थानिक कल्पना में प्रतीत होता है। क्या वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद भारत का स्वरूप अधिक स्थानीय हो गया है, या इसकी वजह यह है कि क्षेत्रीय ताक़तों ने राष्ट्रीय नीतियों पर आंदोलन करने और उस पर अपना प्रभाव डाल सकने की अपनी क्षमता पर भरोसा करना बंद कर दिया है? क्या भारत, अपने “सहयोगी संघवाद” की निरंतर थोथी बयानबाज़ी के बावजूद एक मज़बूत केंद्र और कमज़ोर राज्यों के साथ  कहीं अधिक एकतरफ़ा हो गया है?

राजनीति के मीडियाकरण ने सामाजिक संगठनों को उनके समाज के विभिन्न वर्गों के एजेंडा और संकल्पनाओं को निर्धारित करने की ताक़त को ख़त्म करने का काम किया है। प्रिंट क्रांति के विपरीत भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पूरी तरह से कॉर्पोरेट समर्थक साबित हुआ है, और किसी भी बड़े नरेटिव और संकल्पना को नियंत्रित करने में इसकी भूमिका बेहद ताक़तवर साबित हुई है। इसी तरह, वर्तमान दक्षिणपंथी लोकप्रिय सरकार, लोगों को यह समझाने के प्रयास में सफल रही है कि किसी बड़े संस्थागत-संरचनात्मक बदलाव की प्रक्रिया में दोनों चीज़ें होनी स्वाभाविक हैं। एक तो इसमें समय लगता है और दूसरा यह कि आरंभिक दिनों में इसे लागू करते समय कुछ मुश्किलों का सामना तो करना ही पड़ता है, लेकिन अंत में इसके परिणाम सुखद होने वाले हैं।

इसे आंशिक रूप से प्रतिबिंबित भी होता है, जबकि इसके विपरीत दुनिया के कई अन्य हिस्सों में, संस्थानों के प्रति पूर्ण मोहभंग हो चुका है। संस्थानों के विरुद्ध बढ़ते इस ग़ुस्से को वर्तमान शासक वर्ग ने हड़प लिया है और ख़ुद को इस रूप में प्रोजेक्ट कर रही है जैसे वह इन संस्थानों को दुरुस्त करने में जी-जान से लगी है।

विरोध प्रदर्शनों को इस प्रकार से चित्रित किया जा रहा है जैसे यह अभिजात्य वर्ग के लिए टाइम पास करने का साधन है, और कुछ नहीं। आम लोगों में यह धारणा बनाई गई है कि सत्तारूढ़ दल के साथ बातचीत और विश्वास के आधार पर तमाम मुद्दों को हल किया जा सकता है। "अर्बन नक्सल" के हालिया झूठे नरेटिव को गढ़कर सुधा भारद्वाज, वरवरा राव, शोमा सेन जैसे कई अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं को इन प्रतिकूल सन्दर्भों के तहत जेल में ठूंसने का खेल खेला जा रहा है।

भारत एक अजीब क्षण से गुज़र रहा है, जिसमें भारी असंतोष व्याप्त है लेकिन कोई ग़ुस्सा नहीं फूटता। देश में ग़ैर-बराबरी और इसके साथ-साथ बहुसंख्यक आबादी पर बढ़ती मुश्किलों के दौर में होने के बावजूद विरोध की राजनीति के लिए स्थान नहीं बन पा रही है। क्या इसका अर्थ यह है कि लोकतंत्र में कामकाज के तौर-तरीक़ों को एक बार फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है या लोकतांत्रिक आशाओं और आकांक्षाओं के कमज़ोर बने रहना आने वाले दिनों में प्रासंगिक बना रहेगा।

लेखक जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं।

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