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भारत की सैन्य कूटनीति भ्रमित है

डेढ़ दशक पहले अमेरिका के लगातार दखल के चलते, UPA के शासनकाल में भारत की विदेशी नीति का "सैन्यकरण" हुआ था। लेकिन अब यह आत्म-प्रेरित उद्यम बनता जा रहा है। 
भारत की सैन्य कूटनीति भ्रमित है

आर्मी प्रमुख जनरल एम एम नरवणे की हालिया यूएई और सऊदी अरब की यात्राओं से भारतीय विश्लेषकों में कुछ उत्साह पैदा किया है कि सैन्य कूटनीति वाली एक नई दुनिया का उदय हो रहा है। सैन्य कूटनीति जैसे भारी-भरकम शब्द अमेरिका से आयातित हैं, लेकिन जब हम इन पर विस्तार से चर्चा करते हैं, तो पाते हैं कि यहां सैद्धांतिक समझ की कमी है।

सैन्य कूटनीति को "गनबोट कूटनीति" के साथ मत मिलाइए। पुरानी व्याख्या के मुताबिक़, सैन्य कूटनीति कुछ बुनियादी कार्य करती है, जिसमें यह शामिल हैं:

  • संबंधित देश में फौज से संबंधित जानकारी को इकट्ठा और उनका विश्लेषण करना। साथ ही संबंधित राज्य की सुरक्षा स्थिति का विश्लेषण करना।
  • संबंधित देश की फौज के साथ अपने देश की सेना का सहयोग, संचार और आपसी संबंध बढ़ाना।
  • सैन्य उपकरणों और हथियारों के व्यापारिक समझौतों में मदद करना;
  • संबंधित देश के आधिकारिक कार्यक्रमों और दूसरे कार्यक्रमों में अपना प्रतिनिधित्व भेजना। 

भारत 'सैन्य कूटनीति' का नियमित प्रयोगकर्ता रहा है। भारत के करीब़ 85 देशों में रक्षा से संबंधित अधिकारियों की तैनातियां रही हैं। (रिपोर्ट्स के मुताबिक़, 10 दूसरे रक्षा अधिकारियों को 10 और देशों में भेजने की प्रक्रिया चल रही है)। केवल बड़ी ताकतों को छोड़कर, इस आंकड़े को बहुत सारे देश छू भी नहीं पाते हैं।

इसके अतिरिक्त विदेशों में स्थित दूतावासों में भारत रक्षा क्षेत्रों की सार्वजनिक कंपनियों के प्रतिनिधि भी तैनात करता है। वाशिंगटन में एक वरिष्ठ कूटनीतिक अधिकारी खासतौर पर 'रक्षा तकनीक' पर निगरानी रखता है। रक्षा क्षेत्र में तैनात इन अधिकारियों के लिए सरकार खुले मन से पैसे का आवंटन करती है। स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में भारत को दोबारा से शुरुआत करने की जरूरत नहीं है। अगर इस निवेश के बदले में हमें बहुत ज्यादा वापसी नहीं हो रही है, जैसे हमारा निर्यात बहुत कम है, तो हमें इसके कारणों का विश्लेषण जरूर करना चाहिए। 

इसलिए सेना प्रमुख द्वारा खाड़ी देशों की यात्रा पर इतना ज़्यादा हो-हल्ला क्यों मचा है? इसमें कोई शक नहीं है कि भारत की काउंटर टेरेरिज़्म में विशेष दिलचस्पी है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने यूएई और सऊदी अरब के साथ एक उत्पादक संबंध बनाने में शानदार काम किया है। बल्कि सुरक्षा सूचनाएं साझा करना, आतंकी समूहों की गतिविधियों पर तात्कालिक समन्वय को बनाना, अपराधियों के प्रत्यर्पण आदि जैसी चीजें मुख्य प्राथमिकता रही हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि जब अरब सागर के इस हिस्से में समुद्री लुटेरों से लड़ाई की बात आती है, तो भारतीय नौसेना इसमें सबसे आगे नेतृत्वकारी भूमिका में रहती है। 

लेकिन भारत को सभी खाड़ी देशों को सुरक्षा उपलब्ध कराने की भूमिका में आने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। दोनों ही देश- यूएई और सऊदी अरब, बल्कि बहरीन, कतर और ओमान अपनी सुरक्षा के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भर करते हैं, यह सुरक्षा मुख्यत: इन देशों की तानाशाही को बनाए रखने के बारे में होती है। जब तक पेट्रोडॉलर की गिरोहबंदी जिंदा है, यह दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद समझौता है। यह सवाल ही नहीं उठता कि अमेरिका या ब्रिटेन यहां से हटने वाले हैं।

1918 से 1939 के बीच ब्रिटेन की फौज़ें इराक, सूडान, फिलिस्तीन और अदन में लड़ाई लड़ रही थीं, वहीं दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यह फौज़ें एरिट्रिया, फिलिस्तीन, इजिप्ट और ओमान में जंग पर थीं। ओमान में कथित धोफार युद्ध बेहद निर्मम था। इसमें ब्रिटेन द्वारा समर्थित और निवेशित पिट्ठू तनाशाह की ज़्यादतियों के खिलाफ़ लोकप्रिय प्रतिरोध को बेहद क्रूरता से कुचला गया था। ब्रिटेन के नेतृत्व वाली फौज़ों ने कुओं में ज़हर डाल दिया, गांवों में आग लगा दी, फ़सलें नष्ट कर दीं और जानवरों को गोलियां मारी थीं।

विद्रोहियों से पूछताछ के दौरान, ब्रिटेन के सैनिकों ने अपनी उत्पीड़न की तकनीकें विकसित कीं। ब्रिटेन ने यह युद्ध बेहद रहस्यमय ढंग से लड़ा और वह जंग से जुड़ी पुरानी सामग्री को भी सार्वजनिक करने से इंकार करता रहा है। क्योंकि इससे SAS के युद्ध अपराधों का खुलासा हो जाता।

यह वह युग था, जब विकसित देशों और संयुक्त राष्ट्र उपनिवेशवाद को खारिज कर चुके थे। कई दशकों से अरब राष्ट्रवाद विकसित हो रहा था। रणनीतिक तौर पर, धोफार विवाद 20 वीं सदी के सबसे अहम विवादों में से एक है, क्योंकि इसके विजेता के पास हर्मुज के जलडमरुमध्य पर अधिकार और तेल की आपूर्ति पर नियंत्रण की ताकत होती। हजारों लोग मारे गए और ब्रिटेन की जीत हुई, इस तरह इस इलाके में पश्चिम का रुतबा बरकरार रहा।

पश्चिमी देशों की मध्यपूर्व में हस्तक्षेप वाली जंगों की भूख बाद में भी नहीं मिटी। अफ़गानिस्तान (2001), इराक (2003), लीबिया (2011) और सीरिया के साथ यमन में जारी जंगें इसी बात की गवाह हैं। यह तो निश्चित है कि इस किस्म की सैन्य कूटनीति भारत नहीं कर सकता।

यूएई को ही ले लीजिए। दस साल पहले अबू धाबी के राजकुमार ने कुख्यात अमेरिकी सुरक्षा कंपनी ब्लैकवाटर वर्ल्डवाइड की सेवाएं, एक विदेशी सैनिकों वाली सेना के गठन के लिए ली थीं। 529 मिलियन डॉलर के इस समझौते से बनने वाली सेना में कोलंबिया, दक्षिण अफ्रीका समेत कई देशों के सैनिक शामिल थे। इस सेना का काम यूएई में आंतरिक विद्रोह को रोकना, विशेष ऑपरेशन को अंजाम देना, तेल पाइपलाइन की सुरक्षा और ऊंची बिल्डिंगों को हमले से बचाना था।

यह फैसला अरब की दुनिया में उठ रहे लोकप्रिय प्रतिरोधों की लहर की पृष्ठभूमि में लिया गया था। यह प्रतिरोध यूएई के खाड़ी पड़ोसियों बहरीन, ओमान और सऊदी अरब में भी मौजूद था। ब्लैकवाटर के अलावा यूएई ने दूसरी अमेरिकी कंपनियों से भी लड़ाके और दूसरी मदद के लिए समझौते किए थे।

सीधे तरीके से कहें तो भारत की खाड़ी देशों में सुरक्षा देने में कोई भूमिका नहीं हो सकती। यह जरूर दिखाई देता है कि पाकिस्तान और सऊदी अरब के तनावपूर्ण संबंधों से एक नया मौका उभरा है, लेकिन वहां की राजशाही सिर्फ़ मुस्लिम देशों से ही अपने सुरक्षाबलों को हासिल करने की चाहत रखेगी। आदर्श तौर पर भारत को रूस के उस प्रस्ताव का समर्थन करना चाहिए, जिसमें खाड़ी देशों के लिए क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचा बनाने की बात कही जा रही है।

लेकिन हमने इसके बजाए पश्चिमी रणनीति के मातहत भूमिका निभाने का फ़ैसला किया। इससे हमें उस टेबल पर बैठने से चूक गए, जिस पर भविष्य में हमारे इस "दूर के पड़ोसी" क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिए बातचीत की संभावना थी। ऐसा इसलिए है क्योंकि बाइडेन का प्रशासन इलाके के विवादित क्षेत्रों में स्थिति समान्य करने की गंभीर कोशिश करेगा, साथ ही क्षेत्रीय दुश्मनियों को शांत करने का प्रयास भी होगा, क्योंकि यह ईरान के साथ संबंधों को सामान्य और अनुमानित बनाने में मददगार साबित होगा। इन विवादों को सुलझाने के लिए बाइडेन प्रशासन क्षेत्रीय विमर्श करेगा, जहां अब रणनीति अलग-थलग किए जाने के बजाए सहयोग की रहेगी।

इतना कहना पर्याप्त होगा कि खाड़ी में भारत का मुख्य ध्यान रक्षा निर्यात पर रखने का फ़ैसला बिलकुल सही है। लेकिन फिर हमारे पास उन्हें निर्यात करने के लिए विश्व स्तरीय उत्पाद होने चाहिए। वहां के शेख किसी भी कमतर चीज पर संतुष्ट नहीं होंगे। दूसरी बात, खाड़ी देश एक प्रतिस्पर्धी बाज़ार हैं और अमेरिका वहां अपना प्रभुत्व बनाए रखने की कोशिश करेगा। खाड़ी देश अमेरिका और यूरोपीय बाज़ारों से हथियारों की खरीद को आपसी निर्भरता के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।

तीसरी बात, ऐसा करने की सलाह दी जाती है कि एक ऐसे क्षेत्र में रणनीति बनानी चाहिए, जो बदलाव के क्रम में हो। सऊदी के राजकुमार (जो रक्षामंत्री हैं) या उपरक्षामंत्री (जो सऊदी के राजकुमार के भाई हैं), वे जनरल नरवणे को एयरपोर्ट पर लेने नहीं आए, जबकि यह किसी भी भारतीय सेना प्रमुख की पहली सऊदी अरब की यात्रा है।

खाड़ी क्षेत्र ख़तरनाक भूराजनीतिक अनिश्चित्ताओं से जूझ रहा है। खाड़ी सहयोग संगठन के देशों में आपसी मतभेद के अलावा ईरान का परमाणु मुद्दा एक गंभीर मोड़ पर है; अमेरिका के नए चुने गए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सऊदी अरब की तरफ नीतियों में बड़े बदलाव का वायदा किया है, महामारी के बाद आर्थिक मुश्किलों के हालात होंगे और अब्राहम समझौते के बाद क्षेत्रीय देशों में एक बड़ा समन्वय रूप ले रहा है।

बुनियादी तौर पर, भारत को विदेशों में सैन्य प्रदर्शन के उद्देश्य साफगोई होनी चाहिए। डेढ़ दशक पहले अमेरिका के लगातार दखल के चलते, UPA के शासनकाल में भारत की विदेशी नीति का "सैन्यकरण" हुआ था। लेकिन अब यह आत्म-प्रेरित उद्यम बनता जा रहा है। लेकिन अब युद्ध की प्रवृत्ति में बदलाव आ चुका है।

मध्यपूर्व में अपने तमाम अड्डों के बावजूद, अमेरिका एक के बाद एक युद्ध हारता जा रहा है। अफ़गानिस्तान, इराक, सीरिया और यमन इसके उदाहरण हैं। अमेरिका ईरान पर अपनी सैन्य इच्छा थोपने में नाकामयाब रहा है। दुनिया में मौजूद तमाम सैन्य अड्डे अमेरिकी सरकार की हैकिंग को नहीं बचा पाए, जो मार्च से जारी है, जिसके बारे में सिर्फ़ पिछले हफ़्ते ही पता चला है। यह हैंकिग सरकार के सैन्य और नागरिक दोनों पक्षों के सर्वोच्च स्तर पर हुई है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

India’s Military Diplomacy is Delusional

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