रामचंद्र गुहा हमारे दौर के इस संकट को ठीक से क्यों नहीं समझ पा रहे हैं!
रामचंद्र गुहा भारत के सबसे अग्रणी बुद्धिजीवियों में से एक हैं, और उन्होंने मोदी-उन्माद के ख़िलाफ़ अपना ज़बरदस्त रुख़ भी अख़्तियार किया है। लेकिन, उन्होंने मोदी छाप राजनीति को लेकर अपनी नापसंदगी ज़ाहिर करने में एक लफ़्ज़ भी ख़र्च नहीं किया है। यहां तक कि मोदी के ख़िलाफ़ गुहा की आलोचना के साथ समस्या भी यही है कि यह आलोचना उन व्यक्तित्व-केंद्रित मनोवैज्ञानिक कारकों की समझ पर आधारित है, जो इस तरह की तामझाम वाली राजनीतिक अर्थव्यवस्था से पूरी तरह अलग हैं। भले ही हम बढ़ते हुए बहुससंख्यकवाद के सामाजिक मनोविज्ञान की आलोचना करते हों, लेकिन इसे पिछले तीन दशकों में आवश्यक रूप से भारत के समाज और अर्थव्यवस्था में हुए बदलावों की प्रकृति से जोड़कर देखे जाने की ज़रूरत है।
दरअसल, मोदी का मिथक नवउदारवाद के मिथक के साथ गहरे तौर पर जुड़ा हुआ है। मोदी की आक्रामक मुद्रा एक नाराज़ पीढ़ी की बात करती है, इसीलिए उनकी आलोचना वंशवादी राजनीति को लेकर रहती है। सत्ता के केंद्रीकरण का उनका अंदाज़ (जितना कि कोई परिवारिक सत्ता हासिल कर सकती है,उससे कहीं ज़्यादा) जहां एक ओर वैश्विक पूंजी की मांगों के साथ जुड़ा हुआ है,वहीं दूसरी तरफ़ जान-बूझकर भड़काये गये नागरिकों के बीच की बढ़ती चिंता से भी जुड़ा हुआ है। मोदी ने उस रिक्तता को भरा है,जो बदलाव को लेकर बढ़ती आकांक्षाओं और उन्हें धरातल पर नहीं उतार पाने के बीच पैदा हुई थी। मोदी प्रतिशोधात्मक न्याय के साथ इस बदलाव को लाने में कामयाब रहे।
इस संदर्भ में कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व की भूमिका का विश्लेषण करने की ज़रूरत है। गुहा ने नेतृत्व और गांधियों को लेकर जिन बातों को शुद्ध संकट के तौर पर सामने रखा है, वह असल में राजनीति की सामाजिक लोकतांत्रिक दृष्टि का एक ऐसा बड़ा संकट है, जो आज हमें विश्व स्तर पर नज़र आता है। इस संकट की स्रोत के तौर पर स्थिति को गांधी परिवार तक सीमित करके गुहा न सिर्फ़ हालात का सरलीकरण कर रहे हैं, बल्कि मोदी के बिछाये जाल में भी फंस रहे हैं। असली संकट तो वही है, जिसका ज़िक़्र गुहा ने पहले के लिखे अपने ही लेख में किया था, और बाद में द वायर को दिये गये एक साक्षात्कार में कहा था, और वह थी-कांग्रेस की "समझौतापरक" राजनीति की वह प्रकृति, जिसके तहत कांग्रेस आर्थिक सुधारों और लोककल्याण के बीच और धर्मनिरपेक्षता और नरम हिंदुत्व के बीच झूलती रहती है। यह संकट राहुल गांधी या कांग्रेस पार्टी के सुसंगत नहीं होने को लेकर नहीं है, बल्कि यह संकट हमारे समय के उदारवाद का संकट है। राहुल गांधी की जगह किसी और को ले आने की मांग से कुछ नहीं होगा। राहुल इस संकट के स्रोत नहीं हैं, बल्कि इस संकट का हिस्सा भर हैं। यह महज़ ख़्याली पुलाव है कि एक बार जब हम इन गांधियों से निजात पा लेंगे, तो बदलाव लाने वाले नेताओं की एक नयी श्रृंखला अप्रत्याशित तौर पर अचानक सामने नज़र आने लगेगी। यह उसी तरह का एक और मिथक है,जिसके तहत मोदी ने दावा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह चमत्कार कर देंगे।
इन गांधियों के अलावा कांग्रेस में कोई जनाधार वाले नेता ही नहीं है और यही असली संकट है। उनके पास ऐसा कोई नेता नहीं है, क्योंकि कांग्रेस के ज़्यादातर जाने-पहचाने चेहरे, जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा और पार्टी के अन्य दिग्गज नेता शामिल हैं, वे शायद एक स्थानीय चुनाव भी नहीं जितवा पायेंगे, क्योंकि जब वो सत्ता में थे, तब वे नवउदारवाद के प्रति झुकाव रखने वाले नेता बने रहे और जी-जान से वे लोक-कल्याणकारी योजनाओं के विरुद्ध रहे। गांधी, ख़ासकर सोनिया गांधी और अरुणा रॉय और ज्यां द्रेज़ जैसे लोगों से भरी हुई उनकी राष्ट्रीय सलाहकार समिति ही थी, जो नवउदारवादी गुरुओं को रोकते रहे और कल्याणकारी एजेंडे पर आने के लिए मजबूर करते रहे। इसी वजह से कॉरपोरेट गांधियों और कांग्रेस को पसंद नहीं करते हैं, इसलिए नहीं कि वे “वंशवादी” हैं।”
मोदी वह सब करने के वादे के साथ सत्ता में आये, जो कांग्रेस नहीं कर सकी और शायद करना नहीं चाहती थी। गुहा ने जो आलोचना की है, उसे उन्होंने ग़लत तरीक़े से पेश कर दिया है, भले ही उसके पीछे का उनका इरादा ठीक क्यों न रहा हो। राहुल गांधी की जो भी व्यक्तिगत सीमाएं हों, मगर वे इस समय मुश्किल में इसलिए हैं, क्योंकि उनके लोककल्याणकारी होने की छाप को कुछ ज़्यादा पाने के लिहाज़ से ख़ारिज किया जा रहा है, और मोदी उस स्थान पर छल-कपट से काबिज हो गये हैं। कांग्रेस का पतन होते जाने के बावजूद, भाजपा और मोदी कांग्रेस को बदनाम करने और उस पर हमला करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते हैं, यहां तक कि वे क्षेत्रीय दलों पर किये जाने वाले अपने हमलों से कहीं ज़्यादा कांग्रेस पर करते हैं। अगर वंशवादी शासन ही कारण था, तो शायद ही कोई पार्टी है, जिसने इस वंशवादी प्रवृत्ति को आगे नहीं बढ़ा रही हो, ऐसी पार्टियों में दक्षिण भारत के द्रमुक, तेदेपा और टीआरएस और उत्तर भारत में समाजवादी पार्टी और राजद शामिल हैं। कांग्रेस एक सामाजिक लोकतांत्रिक नज़रिये के पक्ष में खड़ी रही है और आज यही ऐसी इकलौती राष्ट्रीय पार्टी है, जो भाजपा,और इससे कहीं ज़्यादा आरएसएस से मुक़ाबला कर सकती है और यही वह बात है,जिस वजह से इस पर हमले होते हैं। राहुल गांधी संभवत: राष्ट्रीय स्तर के एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो आरएसएस से सीधे टकराते रहे हैं, लेकिन शायद मतदाताओं से जुड़ पाने में नाकाम रहे हैं। कोई शक नहीं कि गुहा और दूसरे टिप्पणीकार इस बात को सामने रखते हुए सही हैं कि उनकी जिस ख़ास माहौल में परवरिश हुई है,वह एक कारक ज़रूर है, जिसकी वजह से उनके पास "जनसमूह को सम्बोधित करने वाली भाषा" नहीं है और इसमें भी कोई शक नहीं कि इस सिलसिले में मोदी फ़ायदा उठा ले जाते हैं।
इसके बावजूद, इन गांधियों की जगह किसी और को ले आना ही मुख़्य मुद्दा नहीं हो सकता है,बल्कि समझौतापरक राजनीति ही एक गहरा संकट है। इससे पहले, योगेंद्र यादव ने कहा था कि "कांग्रेस को ख़त्म हो जाना चाहिए", हालांकि तात्कालिकता और चिंता की भावना तक तो यह बात ठीक है, लेकिन किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस के अलावा ऐसी कोई राष्ट्रीय पार्टी नहीं है, जो संभवतः भाजपा और आरएसएस को चुनौती दे सके। यही असली वजह है कि भाजपा और आरएसएस कांग्रेस-मुक्त भारत की बात बार-बार करते हैं। गुहा ने (अनजाने में) सही, मगर उस प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया है और अर्नब गोस्वामी ने गुहा के इस विचार को अपने प्राइम टाइम पर लपकने का मौक़ा बिल्कुल नहीं छोड़ा है।
आलोचना करने वालों को इस पूरे संदर्भ को गंभीरता से लेना चाहिए। गुहा कांग्रेस के सामाजिक लोकतंत्र के संस्करण को लेकर ज़्यादा परिवर्तनकारी विकल्प नहीं सुझा पा रहे हैं, और वास्तव में गुहा खुद आर्थिक सुधारों के पक्ष में खड़ा हो जाते हैं और बात जब धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ सुधार की होगी, तो उनका कांग्रेस से कोई अलग नज़रिया भी नहीं होगा। हम नवउदारवाद और इसके मौजूदा संरचनात्मक संकट से पैदा होने वाले एक गहन वैचारिक और नैतिक संकट के बीच फंसे हुए हैं।
ऐसे में प्रभात पटनायक को ठीक ही लगता है कि इस समय हम जो कुछ भी देख रहे हैं,वह उसी का नतीजा,यानी "स्थायी फ़ासीवाद" का एक रूप है। असल में, हमें वास्तव में इस समय जिस चीज़ की ज़रूरत है, वह उस वैकल्पिक आर्थिक मॉडल का एक नज़रिया है और राजनीतिक मोर्चे पर जो हमारी ज़रूरत है, वह है- ग़ैर-भाजपा ताक़तों को एक साथ इकट्ठा करना, और इस प्रक्रिया में कांग्रेस और इन गांधियों की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका होगी। मुद्दा तो यह है कि आज के वैकल्पिक शक्तियों में विश्वसनीयता की कमी इसलिए नहीं है कि वे किसी परिवार से ताल्लुक़ रखती हैं। ऐसा सोचना एक छलावा ही है, बल्कि सच्चाई तो यह है कि उन शक्तियों के पास विकास के नवउदार मॉडल से परे जाकर कोई वैकल्पिक नीति नहीं है। मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा से लेकर काम के अधिकार और स्वास्थ्य और बुनियादी आय जैसे बदलाव लाने वाले लोककल्याणकारी कार्यों पर ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। अगर विपक्षी दल वैश्विक कॉरपोरेट वित्त द्वारा पैदा की गयी गड़बड़ियों के ख़िलाफ़ ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं, तो जो नेता आज "बेकार" दिखते हैं, वही कहीं ज़्यादा सच्चे और विश्वसनीय दिखायी देंगे।
(लेखक जेएनयू स्थित सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। विचार निजी हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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