क्या केंद्र सरकार छत्तीसगढ़ में कोयला समृद्ध भूमि के अधिग्रहण में लोगों के अधिकारों का उल्लंघन कर रही है?
नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने 24 दिसंबर 2020 को छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल कोरबा जिले में ‘कोयला धारक क्षेत्र (अधिग्रहण और विकास) अधिनियम 1957’ को 700 हेक्टेयर कोयला जमीन के अधिग्रहण के लिए लागू कर दिया है। यह स्पष्ट नहीं है कि इस अधिग्रहण के मामले में ग्राम सभाओं के जरिये लोगों से उनकी रजामंदी ली जाएगी कि नहीं।
केंद्रीय कोयला मंत्रालय द्वारा जिस भूमि का अधिग्रहण किया जाना है, उसे मदनपुर दक्षिण कोल ब्लॉक्स में हरित क्षेत्र (ग्रीन फील्ड) के रूप में विकसित किया जा रहा है, इस भूमि को केंद्र सरकार ने 2016 के सितंबर में आंध्र प्रदेश मिनिरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एपीएमडीसी) को आवंटित कर दिया था। मदनपुर दक्षिणी कोल ब्लॉक्स के लिए आदित्य बिरला ग्रुप की खदान शाखा, एसेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड, एक निजी खदान डेवलपर हैंड ऑपरेटर (एमडीओ) है।
यह कोल ब्लॉक्स हसदेव अरंड इलाके में आता है, जो काफी घना और अखंडित प्राकृतिक वनों से आच्छादित है। यह क्षेत्र वन्य-जीवों और कोयला के भंडारों से भरा-पूरा है। छत्तीसगढ़ सरकार ने इस व्यापक फैले क्षेत्र में हाथियों के लिए संरक्षित क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव किया है, जिसे औपचारिक रूप से सूचित किया जाना बाकी है। यह कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार इस भूमि का अधिग्रहण राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र और आदिवासियों के अधिकारों को संरक्षित-सुरक्षित किए जाने वाले प्रावधानों को दरकिनार करती हुई कर रही है।
‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ से जुड़े आलोक शुक्ला बताते हैं कि “मदनपुर दक्षिण कोल ब्लॉक्स कोरबा जिले में पड़ता है। यहां आदिवासियों आबादी की बहुलता को देखते हुए इसे संविधान की 5वीं अनुसूची में अंतर्गत रखा गया है। केंद्र सरकार कोयला-धारक अधिनियम को लागू कर उन प्रावधानों का उल्लंघन कर रही है, जिन्हें संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आने वाले क्षेत्र में किसी भी भूमि अधिग्रहण के पहले ग्राम सभाओं के जरिए स्थानीय लोगों से उनकी राय जानना अपरिहार्य बताया गया है।” शुक्ला व्यक्तियों और संगठनों के एक नेटवर्क ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ से जुड़े हैं, जो मध्य भारत के इस राज्य में लोगों के अधिकारों के लिए संघर्षरत है।
2011 की जनगणना के मुताबिक, कोरबा जिले में, अनुसूचित जनजातियों की आबादी 40.90 फीसद है। पंचायत (अनुसूचित क्षेत्र तक विस्तारित) अधिनियम या पीईएसए (PESA) अधिनियम-1996 के अनुसार 5वीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में भूमि अधिग्रहण के पहले वहां की ग्राम सभाओं के माध्यम से स्थानीय लोगों में रायशुमारी बिल्कुल अपरिहार्य है। हालांकि पीईएसए से 40 वर्ष पहले से लागू कोयला धारक या जनित क्षेत्र (अर्जन और विकास) अधिनियम-1957, में ग्राम सभाओं के माध्यम से किसी भी जनसंपर्क या रायशुमारी के प्रावधान को नहीं रखा गया है।
इसलिए,केंद्र सरकार ने कोयला धारक क्षेत्र के अधिग्रहण के अधिनियम की धारा-7 के मुताबिक पिछले महीने अपनी अधिसूचना जारी कर दी है और इसमें कहा गया है कि इसके तहत कोरबा में अधिग्रहित होने वाले किसी भी भूखंड के अधिकारों को लेकर, किसी भी व्यक्ति की कोई आपत्तियां या शिकायतें हैं, तो वे मात्र 30 दिनों के भीतर उन्हें दर्ज करा सकते हैं।
हालांकि कानून के जानकारों के मुताबिक, स्थानीय आबादी, जो शताब्दियों से इस भूमि पर निवास कर रही है, उसे अब कोयला धारक अधिनियम-1957 के अंतर्गत कोयला खदान के लिए आवंटित करने की नोटिस जारी हो जाने के बाद उन लोगों का इसमें कोई दखल नहीं रह जाता है। न्यूज़क्लिक से बातचीत में कानून के कुछ जानकारों ने कहा कि कोयला धारक अधिनियम की धारा-4 (कोयला खदान होने की संभावना) के अंतर्गत जैसे ही नोटिस जारी की जाती है, उस भूमि पर व्यावहारिक रूप से लोगों का अधिकार समाप्त हो जाता है। इसके अलावा, धारा-7 ( भूमि अधिग्रहण का इरादा) के तहत जारी नोटिस के साथ, उस परियोजना से पीड़ित-प्रभावित होने वाले लोगों को 30 दिनों के भीतर अपनी आपत्तियां दर्ज कराने और अपने नुकसान की रकम के दावे करने मात्र का अधिकार होता है।
हालांकि, भूमि अधिग्रहण का न्यायसंगत मुआवजा और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम-2013 में अनुसूचित जनजातियों की भूमि के अधिग्रहण को लेकर कोई विशेष प्रावधान नहीं है। इसीलिए, यह सवाल है कि क्या केंद्र सरकार ने 2013 के अधिनियम, जिसे कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूनाइटेड प्रोगेसिव एलाइंस (यूपीए) तत्कालीन सरकार ने बनाया था, इसी कानून के तहत अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों को दरकिनार कर दिया है?
रांची में रहने वाली कानून की जानकार रश्मि कात्यायन ने न्यूज़क्लिक से कहा, “कोयला धारक अधिनियम, बिल्कुल परमाणु ऊर्जा अधिनियम (एटॉमिक एनर्जी एक्ट), 1962 के समान है, जो सर्वोपरि अधिग्रहण अधिकार (एमिनेंट डोमेन) के सिद्धांत पर आधारित है। इसके अंतर्गत, सरकार को किसी भी निजी भूमि का अधिग्रहण करने और उसे सार्वजनिक उपयोग में बदलने का अधिकार है। ये अधिकार कोयला और यूरेनियम की संभावना वाले क्षेत्रों में लागू होते हैं, जिनकी देश की ऊर्जा सुरक्षा के लिए आवश्यकता है। अतः, कोयला और यूरेनियम की सभी खदानें कानूनी रूप से केंद्र सरकार के नियंत्रण में आती हैं।
कोरबा के मदनपुर दक्षिण कोल ब्लॉक में जिस 712.02 हेक्टेयर भूमि मांगी गई है, उसमें लगभग 650 हेक्टेयर भूमि वन-भूमि के अंतर्गत आती है। इनमें लगभग 503 हेक्टेयर जमीन ‘संरक्षित वन’ क्षेत्र के तहत आती है। फिर भी, केंद्र सरकार ने 24 दिसंबर को कोयला धारक अधिनियम-1957 के तहत जारी अपनी नोटिस में इन 650 हेक्टेयर वन क्षेत्र को भी कोयले की संभावना वाले क्षेत्र के दायरे में रखा है।
हालांकि एक्टिविस्टों का आरोप है कि कोयला धारक अधिनियम के तहत भूमि अर्जन-अधिग्रहण की इस प्रक्रिया में केंद्र सरकार ने वन अधिकार अधिनियम (एफआरए)-2006 के तहत लोगों से पहले संपर्क किए जाने के प्रावधानों को दरकिनार कर दिया है। इस एफआरए की धारा-5 में ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन संसाधनों के नियमन का अधिकार दिया गया है। उन्हें पशुओं, वनों और जैव विविधताओं को बुरी तरह प्रभावित करने वाली किसी भी गतिविधि को रोकने का अधिकार है।
इनके अलावा, 1997 में समता मामले में सर्वोच्च न्यायालय के दिए गए ऐतिहासिक फैसले में, ग्राम सभाओं को, आदिवासियों और परंपरागत रूप से वन क्षेत्र में रहने वाले वनवासियों के व्यक्तिगत, सामुदायिक और सांस्कृतिक अधिकारों के मसले पर निर्णय लेने वाले एक लोकतांत्रिक फोरम के रूप में अधिकृत किया गया है।
न्यूज़क्लिक के यह पूछे जाने पर कि क्या भूमि अधिग्रहण के पहले ग्राम सभाओं की राय ली जाएगी, कोरबा की कलेक्टर किरण कौशल ने इस मसले पर कोई प्रतिक्रिया देने से बचने की कोशिश की। हालांकि एपीएमडीसी के एक अधिकारी ने कहा कि ग्राम सभाओं के लिए एक प्रतिनिधिमंडल कोरबा जिला प्रशासन को भेजा गया था। लेकिन एक या अन्य मसलों को लेकर इनके बीच बैठकों की तारीखें टलती रही हैं।
एपीएमडीसी के एक अधिकारी ने अपना नाम न छापे जाने की शर्त पर कहा, “जब तक ग्राम सभाओं की बैठक नहीं हो जाती, हम खनन के लिए नहीं जाएंगे। (परियोजना को लेकर) एक सामाजिक-आर्थिक आकलन अध्ययन किया गया है। खदान परियोजना से दो गांव-खेतमा और मोरगा-प्रभावित हो रहे हैं। खेतमा में, परियोजना के कारण 6 परिवार विस्थापित हो रहे हैं, जबकि मोरगा गांव में 82 परिवार विस्थापित होंगे। इन गांवों में 90 फीसद आबादी अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जातियों की है। हम इन विस्थापित होने वाले परिवारों को आराम से दूसरी जगह पुनर्वासित करने के सभी उपाय करेंगे। वनों पर अधिकार से बेदखल होने के मामले में उपयुक्त क्षतिपूर्ति राशि भी तय कर ली जाएगी। मोरगा गांव के 19 लोगों ने इस परियोजना को लेकर पहले ही अपनी सहमतियां दे दी हैं और इस बारे में सूचनाएं केंद्रीय कोयला मंत्रालय, कोरबा के जिला प्रशासन और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के कार्यालय में भेजी जा चुकी हैं।
एसेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड को एक ईमेल के जरिए पूछा गया था कि स्थानीय लोगों के अधिकारों का उल्लंघन न होने देने के लिए क्या उपाय किए जाएंगे, इस पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है। कोयला मंत्रालय को भेजे गए ईमेल का जवाब भी आना बाकी है, जिसमें उससे मदनपुर दक्षिणी कोल ब्लॉक्स में कोयला धारक अधिनियम-1957 के तहत भूमि अधिग्रहण किए जाने के सरकार के तर्क की बाबत सवाल पूछे गए हैं। यह भी पूछा गया है कि क्या भूमि अधिग्रहण के पहले ग्राम सभाओं से रायशुमारी की जाएगी? इन सवालों के जवाब मिलने पर न्यूज़क्लिक इस आर्टिकल में उसका समावेश कर देगा।
2019 के अक्टूबर से लेकर दिसंबर तक हसदेव अरंड क्षेत्र के कम से कम 20 गांवों के स्थानीय लोग छत्तीसगढ़ के पारसा कोल ब्लॉक के लिए कोयला धारक अधिनियम-1957 के तहत भूमि अधिग्रहण के फैसले के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं। उनकी मांगों में, ग्राम सभाओं से बिना राय लिए ही पारसा कोल ब्लॉक में खनन की अनुमति देने के फैसले को वापस लेने की मांग भी शामिल है।
इसके अलावा, एक्टिविस्टों द्वारा आरोप लगाया गया है कि मदनपुर दक्षिणी कोल ब्लॉक्स में भूमि अधिग्रहण के लिए कोयला धारक अधिनियम को लागू करना कानूनन सवालों के घेरे में है क्योंकि यह ब्लॉक अन्य राज्य, आंध्र प्रदेश सरकार के मातहत आने वाले सार्वजनिक क्षेत्र को दिया जा रहा है, जबकि कोयला खदान का विकास निजी कंपनी करेगी।
रायपुर में रहने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता और अधिवक्ता सुधीर श्रीवास्तव ने कहा, “यह सीधे-सीधे देश के संघीय ढांचे का उल्लंघन है। केंद्र सरकार अपने हाथ में शक्तियों को केंद्रित कर कोयला धारक अधिनियम के तहत किसी दूसरे राज्य के सार्वजनिक क्षेत्र के लिए भूमि का अधिग्रहण कर रही है और वह सार्वजनिक उपक्रम, उस भूमि को दीर्घकालीन एमडीओ समझौते के तहत निजी कंपनियों को सुपुर्द कर दे रहा है। केंद्र सरकार को पहले से ही कोल ब्लॉक के आवंटन करने और परियोजनाओं के लिए पर्यावरण एवं वन विभाग से मंजूरी मुहैया कराने की सार्वभौम शक्तियां मिली हुई हैं।”
2018 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव शुरू होने के पहले, कांग्रेस नेता राहुल गांधी और इस चुनाव बाद हुए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मतदाताओं को आश्वस्त किया था कि स्थानीय लोगों के अधिकारों का उल्लंघन कर के राज्य में किसी भी खनन गतिविधियों की इजाजत नहीं दी जाएगी।
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार के बीच कोयला खदानों को व्यावसायिक खनन के लिए निजी हाथों में सौंपे जाने के मुद्दे पर विगत में मुठभेड़ें होती रही हैं। जून 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 41 कोयला खदानों में व्यावसायिक खनन के लिए निजी कंपनियों के हाथों नीलामी किए जाने की घोषणा की थी। हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार के पुरजोर विरोध किए जाने के बाद कुल 38 कोयला खदानें ही निजी कंपनियों को सौंपी जा सकीं। बघेल सरकार ने हसदेव अरंड क्षेत्र के सघन वन क्षेत्र में आने वाले 3 कोल ब्लॉक की नीलामी का प्रबल विरोध किया था। छत्तीसगढ़ सरकार ने संविधान के तहत इस मामले में दिए गए अपने अधिकार का उपयोग करते हुए समूचे हसदेव अरंड को हाथियों के लिए ‘संरक्षित क्षेत्र’ बनाने का प्रस्ताव किया है, जो कई कोल ब्लॉक को घेरता है, यह खनन की संभावनाओं को कठिनाई में डाल सकता है। हालांकि यह प्रस्ताव अभी औपचारिक अधिसूचना के इंतजार में है।
श्रीवास्तव कहते हैं,“जहां तक कोयला खदान की बात है केंद्र सरकार एकाधिकार करने की कोशिश करती लग रही है क्योंकि छत्तीसगढ़ सहित कोयला धारक राज्य में फिलहाल ऐसी पार्टियों के शासनाधीन है, जो भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सहयोगी नहीं हैं। हालांकि यह देखना बाकी है कि छत्तीसगढ़ सरकार परियोजना के लिए वन विभाग की मंजूरी के स्टेज-1 के लिए प्रस्ताव देने पर राजी होती है या नहीं, क्योंकि राज्य सरकार इस मंजूरी को रोक सकती है।”
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें-
Is Centre Violating Peoples’ Rights for Acquiring Coal-Bearing Land in Chhattisgarh?
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