झारखंड: ‘पेसा कानून’ के सवाल पर मुखर हो रहा है आदिवासी एक्टिविस्ट-बौद्धिक समाज

सर्द मौसम में भी झारखंड प्रदेश का सियासी तापमान मानो काफी सरगर्म हो चला है। जिसकी तपिश का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि आये दिन जगह-जगह विमर्श-सभाओं के आयोजनों के माध्यम से सरकार व उसके तंत्र पर सवालों की बौछार की जा रही है।
हाल के समय में ऐसा पहली बार हुआ है कि “बौद्धिक घमासान” का रूप ले रही इस “राजनितिक सरगर्मी” का कारण कोई “बाहरी अथवा विपक्ष जनित” नहीं है। बल्कि ‘अबुवा सरकार’ की समर्थक जमात से ही सरकार के विरोध में बातें उठ रही हैं।
यानी, विगत विधान सभा चुनाव में जबरदस्त बहुमत दिलाने में एक मजबूत कारक रहे आदिवासी समुदाय और उनके सामाजिक प्रतिनिधियों द्वारा राज्य की ‘अबुवा सरकार’ को सवालों के कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। हालांकि मामले ने फिलहाल किसी तीखे टकराहट के रूप तो नहीं लिया है लेकिन दिनों-दिन काफी विवादास्पद ज़रूर बनता जा रहा है।
मसला है राज्य में अभी तक ‘पेसा कानून” को विधिवत नहीं लागू किया जाना है। जिसे लेकर राज्य के हाई कोर्ट ने पिछले ही साल के जुलाई महीने में हेमंत सोरेन सरकार को दो माह की अवधि के अन्दर पूरा करने का निर्देश दिया था। यह निर्देश राज्य में ‘पेसा कानून’ नहीं लागू किये जाने को लेकर दायर जनहित-याचिका की सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधिश की विशेष खंडपीठ ने दिया है।
हाई कोर्ट ने झारखंड में ‘पेसा कानून’ लागू करने के प्रति हेमंत सोरेन सरकार के उदासीन रवैये को लेकर नराजगी जताते हुए फटकार भी लगाई। कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में यह भी कहा कि- पेसा एक्ट को बने 28 साल हो गये। आदिवासियों के हितों के लिए बने झारखंड प्रदेश के भी बने 24 साल हो गए, पर नियमावली लागू नहीं हुई, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।
वैसे, मामला तब सरगर्म हो उठा जब विगत 24 दिसंबर को ‘पैसा कानून दिवस’ मनाया गया। जिसके तहत राजधानी रांची से लेकर सुदूरवर्ती आदिवासी बाहुल्य इलाकों में इस दिवस पर कई कार्यक्रम आयोजित हुए। जिसमें जुटे समुदाय के लोगों के साथ साथ एक्टिविस्ट-बुद्धिजीवियों ने पूरी मुखरता के साथ इस कनून को पुरे राज्य में अविलम्ब लागू करने मांग उठायी। उधर, सरकार की ओर से भी इस दिवस पर कई कार्यक्रम आयोजित किये गए।
हाई कोर्ट के दबावपूर्ण निर्देश के बाद हेमंत सोरेन सरकार ने वर्ष 2001 में तत्कालीन बाबूलाल मरांडी सरकार द्वारा बनाए गए ‘झारखंड राज्य पंचायती एक्ट-1’ को ही कुछेक नए संसोधनों के साथ ड्राफ्ट जारी करते हुए इस पर राज्य के लोगों से सुझाव मांगे। बस विवादों-बहसों का सिलसिला शुरू हो गया। जो उस समय और भी अधिक तीखा हो गया जब पंचायती राज सचिव ने अपने सोशल मिडिया पोस्ट में कुछ ऐसी बातें लिखकर वायरल कर दिया कि उस पर व्यापक प्रतिक्रया होने लगी।
झारखंड प्रदेश में लम्बे समय ‘पेसा कानून’ को लागू करने की मांग उठा रहे आदिवासी संगठनों-एक्टिविस्ट और आदिवासी बुद्धिजीवियों ने इसपर ‘अबुवा सरकार’ को आड़े हाथों लेते हुए ज़ोरदार विरोध किया।
आदिवासी बौद्धिक व एक्टिविस्ट समाज का बहुसंख्यक हिस्सा एक स्वर से मांग कर रहे हैं कि तत्कालीन ‘भूरिया कमिटी’ की अनुशंसा-सिफारिशों के आधार पर 24 दिसंबर 1996 को देश की संसद ने सर्वसम्मति से जिस ‘पेसा कानून’ को पास किया है उसे ही अक्षरशः झारखंड में लागू किया जाय। पहले ही काफी देर हो चुकी है इसलिए राज्य की ‘अबुवा सरकार’ ज़ल्द से ज़ल्द इसे लागू करने के प्रभावी नियमावली बनाए।
साथ ही पिछली भाजपा गठबंधन सरकार द्वारा 2001 द्वारा बनाये गए ‘झारखंड पंचायती राज कानून 01’ को जो राज्य के ‘पांचवीं अनुसूची अरक्षित क्षेत्रों’ में जबरन थोपकर संविधान का सरासर उल्लंघन किया जा रहा है, उसपर अविलम्ब रोक लगे। क्योंकि राज्य के गैर आरक्षित क्षेत्रों के लिए बनाए गए “जेआरपीए 01” कानून को ही जबरन थोपने के जरिये पूरे प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य इलाकों में ‘पारम्परिक ग्राम सभा’ को निष्प्रभावी बनाकर पंचायत-चुनाव कराने का सिलसिला धड़ल्ले से जारी है। जिससे आदिवासियों की वर्षों से चली आ रही ‘स्वशासन परम्परा’ को बिलकुल अप्रासंगिक सा बना दिया गया है। इस कारण पहले से ही चौतरफा संकटों-चुनौतियों का सामना कर रहे आदिवासी समाज की मुश्किलें और अधिक जटिल हो गयीं हैं।
आदिवासी बुद्धिजीवी यह भी आरोप लगा रहें हैं कि एक ओर, ‘अबुवा सरकार’ ही इसे लागू करने में आनाकानी कर रही है तो दूसरी ओर, ‘पेसा कानून’ के लागू होने से ‘जल-जंगल –ज़मीन-प्राकृतिक संसाधन व खनिजों की हो रही बेतहाशा “संगठित लूट” करने वाली शक्तियों में भारी बेचैनी है। साथ ही प्रदेश के प्रशासनिक तंत्र का नौकरशाही अमला भी काफी बौखलाया हुआ सा है। जो इन दिनों आदिवासी बाहुल्य इलाकों के में आदिवासियों के “भाग्य निर्माता” बने हुए हैं।
क्योंकि ‘पेसा कानून’ के लागू होते ही स्थानीय ग्राम सभा को अपार संविधानिक अधिकार हासिल हो जायेंगे। जिससे आदिवासी इलाकों में मची “खुली लूट की छूट’ पर पूरी तरह से लगाम लगा दी जायेगी। राजनीति व तन्त्र संरक्षित जंगल-माफिया, बालू-माफिया, लकड़ी-माफिया के साथ साथ तमाम तरह की खनिजों के अवैध खनन के संस्थाबद्ध कॉर्पोरेट-गिरोहों की मनमानी नहीं चल सकेगी।
‘पेसा कानून’ की मांग कर रहे विभिन्न सामाजिक जन संगठनों के साथ साथ राज्य के वाम दल भी पूरी मुखरता के साथ आवाज़ उठा रहें हैं।
21 जनवरी को रांची में आयोजित भाकपा माले के ‘दक्षिण छोटानागपुर कार्यकर्त्ता कन्वेंशन’ द्वारा हेमन्त सोरेन सरकार से स्पष्ट शब्दों में मांग की गयी है कि- झारखंड प्रदेश को तत्कालीन केंद्र सरकार संचालित कॉर्पोरेटी लूट-दमन को रोकने के लिए ज़ल्द से ज़ल्द राज्य में ‘पेसा कानून’ अक्षरशः लागू किया जाए।
चर्चाओं में यह भी बातें सामने आ रही हैं कि जैसे- बीते विधान सभा चुनाव में प्रदेश की जनता के सारे ज़रूरी सवालों से ध्यान भटकाने के लिए राज्य में “बंगलादेशी पैठ” का छद्म मुद्दा उछालकर “हिन्दू-मुसलमान” की सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण राजनीति की गयी थी, ‘पेसा कानून’ प्रकरण में भी अडंगा डालने के लिए “सरना-ईसाई” का विवाद पैदा कर आदिवासी समाज को भ्रमित करने की क़वायद की जा रही है। यही कारण है इस पूरे प्रकरण में राज्य का विपक्षी दल भाजपा और उसके नेता-प्रवक्ता कुछ भी बोलने से साफ़ परहेज कर रहें हैं।
बहरहाल, झारखंड ‘पेसा कानून’ लागू करने का मामला, अब पूरी तरह से ‘अबुवा सरकार’ के पाले में है। देखना है कि वो कितनी ज़ल्द संविधान सम्मत काम करती है। क्योंकि यह साफ़ नज़र आ रहा है कि ‘बात निकली है तो दूर तलक जायेगी ही!’
(लेखक संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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