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जय भीम: माई जजमेंट इन द लाइट ऑफ़ अंबेडकर

2 नवंबर, 2021 को दुनिया भर में विकिपीडिया में जिन शब्दों को सर्च किया गया था, उनमें सबसे लोकप्रिय शब्द जय भीम था।
Jai Bhim
फ़ोटो: साभार-लेफ़्टवर्ड

2 नवंबर, 2021 को दुनिया भर में विकिपीडिया में जिन शब्दों को सर्च किया गया था, उनमें सबसे लोकप्रिय शब्द जय भीम था। उस दिन इसी नाम की तमिल फ़िल्म भी रिलीज़ हुई थी, जो कि 1993 में एक वकील के. चंद्रू की ओर से लड़े गये एक मुकदमे पर आधारित है। माई जजमेंट इन द लाइट ऑफ़ अंबेडकर दरअसल 2006 से 2014 तक मद्रास हाई कोर्ट की खंडपीठ में काम करते हुए जस्टिस चंद्रू के अपने कार्यकाल के दौरान सुने गये मामलों पर आधारित है। अपनी ईमानदारी, दक्षता और नाराज़गी से लेकर ठसक के अलावा जस्टिस चंद्रू की प्रतिष्ठा एक ऐसे न्यायाधीश के रूप में रही है, जो अदालत को फ़ैसले सुनाने वाले से कहीं ज़्यादा कुछ मानते थे। वह अदालत को न्याय की तलाश में एक ऐसा सहभागी मानते थे, जिसका फ़र्ज़ है कि वह बहिष्कृत और उत्पीड़ितों के साथ खड़ा हो, उन्हें उम्मीद बख़्शे।

मौजूदा भारत में जो अत्याचार और भेदभाव की घटनाएं होती हैं, उन्हें बार-बार बी.आर. अंबेडकर के तजुर्बे से जोड़कर न्यायमूर्ति चंद्रू अपने सामने आये मामलों को अंबेडकर के लेखन की रौशनी में देखते हैं और साथ ही एक न्यायपूर्ण दुनिया के लिए चल रहे संघर्ष के वैश्विक आयाम में देखते हैं, जैसा कि उनकी किताब के निम्नलिखित अंश से पता चलता है:

लोकोपयोगी सेवाओं में निष्पक्षता

रोज़ा पार्क्स (1913-2005) अमेरिका के अलबामा राज्य में रहती थीं। साठ साल पहले की बात है, वह अफ़्रीकी अमेरिकी महिला मोंटगोमरी शहर के किसी सिलाई करने वाले कारखाने में सिलाई का काम किया करती थीं। सर्दियों की एक शाम उस सिलाई कारखाने से घर जाने के लिए वह बस पर सवार हुईं। उन्होंने अपना टिकट ख़रीदा और हमेशा की तरह 'काले लोगों के लिए सुनिश्चित हिस्से' की एक सीट पर बैठ गयीं। हालांकि, 'गोरे लोगों के लिए सुनिश्चित हिस्से' की सीट भरी हुई थी। काले लोगों को अपनी सीटों की क़तार इसलिए ख़ाली करने के लिए कहा गया, ताकि गलियारे में खड़े गोरे यात्री बैठ सकें। उस क़तार में रोज़ा पार्क के साथ बैठे तीन यात्रियों ने बिना किसी आपत्ति के अपनी सीटें ख़ाली कर दीं, लेकिन रोज़ा पार्क्स ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। वह 1943 से ही नेशनल एसोसिएशन फ़ॉर द एडवांसमेंट ऑफ़ कलर्ड पीपल की सदस्य रही थीं, और वह उस दिन अपने अधिकारों को लेकर बस चालक दल के साथ बहस करते हुए भिड़ गयीं। उन्होंने सवाल किया कि आख़िर जब उन्होंने भी टिकट ख़रीदा है, तो वह अपनी सीट क्यों छोड़ें और गोरे यात्रियों को प्राथमिकता क्यों दी जाए। रोज़ा पार्क के सवाल एकदम वाजिब थे। लेकिन, न तो बस चालक दल और न ही गोरे यात्री रोज़ा पार्क्स के साथ आगे किसी तरह की नरमी बरतना चाहते थे। परेशानी पैदा करने वाली उस महिला से निपटने के लिए पुलिस बुला ली गयी। पुलिस ने रोज़ा को गिरफ़्तार कर लिया।

ज़बरदस्त नस्लवाद को मानने से इनकार करते हुए रोज़ा पार्क्स ने हार नहीं मानी। उन्होंने मोंटगोमरी की उन काले लोगों के समर्थन का प्रचार करने लगीं, जो नस्लवादी प्रतिष्ठान का विरोध करने के लिए उठ खड़े हुए थे। उन्होंने बस से सफ़र बंद करने की शपथ ली। इसके बजाय, उन्होंने अपने कार्यस्थलों तक चलकर पहुंचना शुरू कर दिया। इससे नगर निगम की बस कंपनी की कमाई को एक गंभीर झटका लगा, क्योंकि इसमें चढ़ने वाले लोगों में अफ़्रीकी अमेरिकियों सवारियों की संख्या लगभग 70 प्रतिशत थी। मार्टिन लूथर किंग, जूनियर (1929-1968), जो बाद में एक जाने-माने नागरिक अधिकार नेता बने, उस समय एक ईसाई मत के प्रचारक हुआ करते थे। वह भी इस मोंटगोमरी विरोध में शामिल हो गये। जैसे-जैसे प्रदर्शनकारियों की ताक़त रोज़-ब-रोज़ बढ़ती गयी, मोंटगोमरी से शुरू हुई यह आग दूसरे शहरों से होते हुए आख़िरकार पूरे देश में फैल गयी। सार्वजनिक क्षेत्रों और सुविधाओं में नस्लीय अलगाव की व्यवस्था पर नैतिक दबाव बढ़ता गया, चाहे रेस्तरां हों, स्विमिंग पूल हों या सार्वजनिक परिवहन ही क्यों न हो, लगातार चल रहे उस आर्थिक बहिष्कार के बीच इन प्रतिष्ठानों की आय में भारी गिरावट आ गयी। विरोध शुरू होने के तीन सौ इक्यासी दिन बाद, यानी 20 दिसंबर 1956 को एक अदालती आदेश से मोंटगोमरी के अधिकारी बस में अलग-अलग बैठने की व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए मजबूर हो गये।

सवाल किया जा सकता है कि आख़िर यहां रोज़ा पार्क्स की इस कहानी की क्या प्रासंगिकता है। भारत में हमारे यहां जातिवाद है, जिसे तेज़ी से नस्लवाद के बराबर ही माना जाने लगा है। यह 2001 में डरबन में आयोजित नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, ज़ेनोफोबिया यानी बाहरी लोगों को लेकर नफ़रत और इनसे जुड़ी असहिष्णुता के ख़िलाफ़ विश्व सम्मेलन में दलित कार्यकर्ताओं की भी यही दलील थी। उस समय इसे लेकर भारत में उन कार्यकर्ताओं की व्यापक रूप से निंदा की गयी थी, लेकिन दुनिया जाति की समस्या के पैमाने को लेकर तेज़ी से जागरूक हो रही है और इसका अमल में होना नस्लवाद के ही समान है। 2013 में यूरोपीय संसद ने जातिगत भेदभाव को एक वैश्विक बुराई घोषित किया था। कहा गया था कि इससे मुक़ाबला करना यूरोपीय संसद के इन 28 सदस्य देशों की ज़िम्मेदारी है। ब्रिटिश संसद में जातिवाद को नस्लवाद से जोड़ने वाला क़ानून पारित करने पर चर्चा भी हुई। लेकिन, 2018 में थेरेसा मे की सरकार उच्च जाति के लोगों की नुमाइंदगी करने वाले समूहों के दबाव में आ गयी और जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ उस कानून के बनाये जाने से पीछे हट गयी। लेकिन, इस समस्या की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। 2019 और 2021 के बीच मैसाचुसेट्स स्थित ब्रैंडिस यूनिवर्सिटी; मेन स्थित कोल्बी कॉलेज; और डेविस स्थित कैलिफ़ॉर्निया यूनिवर्सिटी ने भेदभाव के आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त रूपों में जातिगत भेदभाव को भी शामिल कर लिया है।

न्याय के विरुद्ध होने के बावजूद दलितों को सार्वजनिक सेवाओं तक पहुंच पाने से वंचित करने में प्रमुख जाति समूहों और प्रशासनिक तंत्र के बीच अक्सर मिलीभगत होती है। शिवन्थिपट्टी दक्षिणी तमिलनाडु के तिरुनेलवेली से 13 किलोमीटर दूर स्थित एक गांव है। तिरुनेलवेली और इस गांव के बीच रोज़ बसें चलती हैं। किसान खेतीबाड़ी से पैदा होने वाले उत्पादों को शहर तक पहुंचाने के लिए इन बसों का इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा, गांव के छात्र तिरुनेलवेली के पलायमकोट्टई क्षेत्र में स्कूलों और कॉलेजों तक पहुंचने के लिए भी इन्हीं बसों का इस्तेमाल करते हैं। शिवंथिपट्टी में दाखिल होते ये बसें पहले पंचायत बोर्ड पर रुकती थीं, फिर अम्मान मंदिर के स्टॉप पर, और आख़िर में उस राइस मिल स्टॉप पर, जहां एक स्थायी बस शेड खड़ा था। इस राइस मिल स्टॉप पर उतरकर लोग दलित कॉलोनी और उसके पास स्थित कामराज नगर जा सकते थे।

1996 में शिवंतिपट्टी पंचायत अध्यक्ष की हत्या कर दी गयी। आख़िर में जो कहानी सामने आयी, वह यह थी कि वह हत्या उस थेवर समुदाय की अंदरूनी दुश्मनी के कारण हुई थी, जो अन्य पिछड़े वर्गों की श्रेणी में तो आते हैं, लेकिन जिनकी हैसियत बतौर ज़मींदार है। इसके बाद, इस प्रमुख जाति के कुछ तत्वों ने अनुसूचित जाति पल्लार समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा में लिप्त हो गये। कुछ दिनों के लिए उस गांव तक जाने वाली बस सेवा बंद कर दी गयी। बाद में जब उन बसों को फिर से शुरू किया गया, तो बसें राइस मिल टर्मिनस तक पहुंचने के बजाय पुलिस स्टेशन के पास रुकती थीं। अचानक हुए उस बदलाव से दलितों को बहुत परेशानी होने लगी। अब उन्हें अपनी कॉलोनी तक पहुंचने के लिए क़रीब दो किलोमीटर पैदल चलना होता था। इसके साथ ही उन्हें अपने उत्पाद को अपने सिर पर ले जाना होता था और इसके लिए उन सड़कों का इस्तेमाल करना पड़ता था, जो सवर्ण हिंदुओं के आवास से होकर गुज़रती थीं। इससे उनकी समस्याएं और भी जटिल हो जा रही थीं। उन्होंने सरकार के स्वामित्व वाले कट्टाबोम्मन ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन (केटीसी) के अधिकारियों को कई प्रार्थना-पत्र सौंपें, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। टर्मिनस में बदलाव क्यों किया गया, इसे लेकर उन्हें कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया।

वकील और सामाजिक कार्यकर्ता आर. कृष्णन ने इस मामले को लेकर 1999 में एक जनहित याचिका दायर की थी। केटीसी और पुलिस विभाग को नोटिस जारी किये गये। लेकिन, दोनों पक्ष जवाब देने में नाकाम रहे। मामले की गंभीरता को समझते हुए अदालत ने उन फ़ाइलों की जांच की और तिरुनेलवेली ज़िले के पुलिस अधीक्षक के लिखे उस पत्र को देखकर अदालच चौंक गयी,जो सरकार को 9 मार्च 2007 को लिखा गया था। [1]इसमें उनकी निम्नलिखित टिप्पणियां थीं:

अगर बसों को कामराज नगर तक जाने दी जाती है, तो कामराज नगर के आदि द्रविड़ लोग उन सीटों पर काबिज हो जायेंगे और शिवन्थिपट्टी के थेवरों को सीट नहीं मिल पायेगी। इससे एक बार फिर इन दोनों समुदायों के बीच झगड़े की आशंका बढ़ जायेगी, जिसके नतीजा शांति के भंग होने के रूप में सामने आयेगा।

यह पाया गया कि ज़िला स्तर पर एक आईपीएस (भारतीय पुलिस सेवा) अधिकारी ने इस मामले में जातिगत पक्षपात दिखाया था। अदालत ने अस्पृश्यता के इस आधुनिक रूप की इजाज़त देने से इनकार कर दिया। मैंने बसों को पहले के रूट के मुताबिक़ ही राइस मिल टर्मिनस पर रुकने का आदेश दे दिया। यहां 2007 के दिये मेरे उस आदेश का एक अंश पेश है:

ऐसी स्थिति में पुलिस का यह फ़र्ज़ बन जाता है कि वह किसी भी तरह का आंदोलन का सहारा नहीं लेने को लेकर जनता के बीच व्यापक प्रचार-प्रसार करते हुए स्थानीय लोगों को शिक्षित करे और इस आदेश की प्रति प्राप्त होने की तारीख़ से दो हफ़्ते के भीतर निगम को पुराने रूट पर बसें चलाने के लिए सुरक्षा प्रदान करे।

इस हलफ़नामे के पैरा 10 में बताये गये कारण [2],यानी कि इन समुदायों को उनके गंतव्य तक पहुंचने की अनुमति नहीं देना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21, यानी स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। [3]

नोट:

1.आम तौर पर हाई कोर्ट को मामलों की अंतिम सुनवाई करते हुए 5 से 10 साल लग जाते हैं। हम उन मामलों से तभी निपट सकते हैं, जब ऐसे मामले सूचीबद्ध हों। सुनवाई के दौरान ही सरकारी फ़ाइल से मिली पुलिस अधीक्षक की लिखी गयी उस चिट्ठी का पता चल पाया था।

2.दायर किये गये उस हलफ़नामे में जनहित याचिकाकर्ता ने कहा था कि बस स्टॉप बदलने से दलितों को अपनी सारे कृषि उत्पाद के साथ बाज़ार जाने के लिए अपनी बसें पकड़ने में दो किलोमीटर तक पैदल चलना होगा।

3. कृष्णन बनाम तमिलनाडु सरकार और अन्य, 1999 का डब्ल्यू.पी. नं. 20298, दिनांक13.3.2007।

यह ‘जय भीम: माई जजमेंट इन द लाइट ऑफ़ अंबेडकर’ नामक उस किताब का एक अंश है, जिसे जस्टिस के.चंद्रू ने लिखा है और लेफ़्टवर्ड बुक्स ने प्रकाशित किया है। प्रकाशक की अनुमति से ही इस अंश को यहां फिर से प्रकाशित किया गया है।

जस्टिस के चंद्रू एक अधिवक्ता और मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश हैं। उन्होंने बतौर न्यायाधीश अपने कार्यकाल के दौरान 96,000 मामलों का निपटारा किया था। 1993 का वह मामला, जिसमें चंद्रू ने बतौर वकील दलीलें दी थीं, वे ही दलीलें हिट तमिल फिल्म जय भीम (2021 में आयी और टी.जे.ग्नानवेल निर्देशित) का विषय है, जिसमें उनका किरदार अभिनेता सूर्या ने निभाया है। वह तमिल और अंग्रेज़ी में लिखते हैं, और उनकी पिछली किताब, ‘माई केस ! : व्हेन वीमेन अप्रोच द कोर्ट्स ऑफ तमिलनाडु (लेफ़्टवर्ड, 2021) बेस्टसेलिंग किताब रही है।

साभार: इंडियन कल्चरल फ़ोरम

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Jai Bhim: My Judgements in the Light of Ambedkar

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