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जयपाल सिंह मुंडा: हॉकी स्टिक और सुनहरे विज़न वाले एक आदिवासी राजनेता

20 मार्च को जयपाल सिंह मुंडा की  50 वीं पुण्यतिथि थी। छोटा नागपुर क्षेत्र, झारखंड के आदिवासियों के लिए एक अलग राज्य का उन्होंने जो सपना देखा था, वह उनके निधन के लगभग 30 साल बाद एक वास्तविकता बन गया। लेकिन, उनके गृह राज्य में "धरती के मूल निवासियों" के अधिकारों और सामाजिक-राजनीतिक रूख़ वाली उनकी दृष्टि का धरातल पर उतरना अब भी वास्तविकता से बहुत दूर है।
जयपाल सिंह मुंडा
जयपाल सिंह मुंडा 1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक गेम में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय हॉकी टीम के कप्तान थे। वे भारतीय खिलाड़ियों साथ किये जाने वाले बर्ताव को लेकर प्रबंधन (जिसमें अधिकांश ब्रिटिश थे) के साथ तक़रार के बाद फ़ाइनल नहीं खेल पाये थे।

जिस दिन भारत ने विश्व हॉकी के शीर्ष पर ख़ुद को स्थापित कर दिया था, अजीब बात है कि उस टीम को अपनी कड़ी मेहनत तक यहां तक पहुंचाने वाला उस टीम का कप्तान, स्टेडियम के आस-पास कहीं नहीं था। उनकी ग़ैरमौजूदगी में भारत ने नीदरलैंड को 3-0 से हरा दिया था।

वह 26 मई 1928 का दिन था और इसी दिन एम्स्टर्डम ओलंपिक में स्वर्ण पदक के लिए मैच खेला गया था। ओलंपिक खेल वेबसाइट इसके लिए उस मैच में किये जाने वाले गोलों में दो गोल करने वाले मेजर ध्यानचंद को श्रेय देती है। इस वेबसाइट में तीसरे गोल के लिए श्रेय किसी को नहीं दिया गया है। यह वेबसाइट उस टीम के कप्तान का कोई उल्लेख नहीं करती है, क्योंकि उस खेल से कुछ दिन पहले जयपाल सिंह मुंडा टीम में शामिल भारतीय खिलाड़ियों के साथ होने वाले बर्ताव को लेकर प्रबंधन (जिसमें से अधिकांश ब्रिटिश थे) के साथ एक तक़रार के बाद इंग्लैंड लौट आये थे। 

भारतीय सिविल सेवा में परिवीक्षाधीन यानी प्रोवेशन के रूप में प्रशिक्षण के दौरान अपनी छुट्टी खारिज किये जाने के बावजूद 25 साल की उम्र में ऑक्सफोर्ड के लिए अपना पसंदीदा खेल हॉकी जीतने वाले पहले भारतीय बनने से पहले,मुंडा ओलंपिक में शामिल हुए। इस गेम्स के बाद, मुंडा हॉकी में लगभग किसी अतिरिक्त गतिविधि के रूप में बाहर से ही दिलचस्पी लेते रहे, ताकि दिल-ओ-दिमाग़ को फिट रखा जा सके और जोश को क़ायम रखा जा सके। उन्होंने मोहन बाग़ान की हॉकी टीम को शुरू  करने में मदद की, बंगाल हॉकी एसोसिएशन के सचिव के रूप में कार्य किया,ज़मीनी स्तर पर खेल से जुड़े रहे और भारतीय खेल परिषद के एक सदस्य के रूप में बहुत कम समय के लिए काम किया। वह भारत के लिए फिर कभी नहीं खेले।

भारत की पूर्व खिलाड़ी सावित्री पुरती कहती हैं,“जब हम युवा थे, उस समय हम सबका एक ही सपना था,और वह था जयपाल सिंह मुंडा बनना”। पुरती ने 1983 से 1990 के बीच भारत का प्रतिनिधित्व किया था, और वह एक ऐसी टीम की अहम सदस्य थीं, जो भारतीय हॉकी के इतिहास के ग़लत साइड में थीं। वह झारखंड हॉकी की सचिव भी रही हैं, और वह पिछले एक दशक से कई खिलाड़ियों को भारतीय टीम में लाने के लिए ज़िम्मेदार रही हैं। वह कहती हैं, “लेकिन,ऐसा नहीं कि हॉकी की पिच पर उनके जैसा बनना था। वह तो इसका एक छोटा सा हिस्सा था। सपना तो उस व्यक्ति की तरह बनना था,जो इसके बाहर के लोगों को प्रेरित कर सके।”

जयपाल सिंह मुंडा की कहानी बताने की समस्या का एक अजीब हिस्सा यह भी है कि यह कहानी भारतीय खेल के कुछ अन्य लोगों के बिल्कुल उलट है। उनके व्यक्तित्व का रेखाचित्र बना पाना किसी सपने को रचने की तरह होगा और ठीक उसी अनुपात में एक एक डरावने ख़्वाब तरह भी  होगा। यह खेल प्रोफाइल की एक पुरानी कहावत है कि  समय के किसी ख़ास बिन्दु पर लेखक को उन सब बातों को स्पष्ट कर देना चाहिए,जो कुछ सवाल के ज़रिये विषय को दर्शाता है। यह क्या है,जो वे बाकी समाज के लिए साबित करते हैं ?

इस खेल प्रणाली में उनका बहुत अहम होने का मक़सद क्या है ? आधुनिक खिलाड़ी बाहरी हितों के छोटे-छोटे प्रदर्शनों से हमें संतुष्ट कर देते हैं। कुछ खिलाड़ी किताब में दर्ज हो जाते हैं। अन्य कमेंट्री करते हुए नज़र आते हैं। कई कोच बन जाते हैं और कुछ सांसद बन जाते हैं। उनमें से बहुत कम ऐसे लोग होते है,जो कभी-कभी ऐसे रुख़ अख़्तियार कर लेते हैं, जो खेल के अंदर और बाहर अपने करियर को ही जोखिम में डाल लेते हैं।

जयपाल सिंह मुंडा बिल्कुल ही अलग थे। एक खिलाड़ी के रूप में उनके योगदान के अलावे, कुछ लोग अब भी उनकी उस भूमिका से कहीं ज़्यादा के रूप में उन्हें याद करते हैं। उन्होंने राजनीतिक फ़ायदा उठाने की इच्छा के बिना आदिवासी अधिकारों का समर्थन किया और उनकी शोषण करने वाली नीतियों की आलोचना की। इस खेल प्रणाली में उनका उद्देश्य इस प्रणाली के बाहर से सहयोग करना था,और यही उन्हें चैंपियन बना देता है। उन्होंने जो कुछ दिया,वह किसी दिन के उजाले के रूप में साफ़ है।

मुंडा के लिए ओलंपिक वैसा ही कुछ था,जो गांधी के लिए पीटरमैरिट्जबर्ग था। उन्होंने एम्स्टर्डम गेम्स के बाद भारत के लिए कभी नहीं खेला, और बाद के वर्षों में आदिवासी महासभा का गठन किया, जो एक ऐसा संगठन था,जो छोटा नागपुर के पठार और आदिवासी आबादी के लिए एक अलग राज्य की मांग के लिए खड़ा रहा। उन्होंने 1946 में संविधान सभा में आदिवासियों के लिए भूमि को एक मौलिक अधिकार बनाने की तर्कसंगत मांग रखी, और भारत के नेतृत्व को उन लोगों के लिए आरक्षण और सम्मान सुनिश्चित करने का अनुरोध किया, जिन्हें उन्होंने भूमि का मूल निवासी कहा था।

भारत के मिडफील्डर निक्की प्रधान कहती हैं, “बड़े होकर हमने जयपाल सिंह मुंडा के बारे में जाना, उनके बेहतरीन खेल के कारण हर साल हम 3 जनवरी को उनकी जयंती मनाया करते थे।”  प्रधान उस खूंटी से ही हैं, जिसे झारखंड हॉकी की उर्वर भूमि कहा जाता है, और यह मुंडा के गांव, तकरा से बहुत ज़्यादा दूरी भी नहीं हैं। वे कहती हैं, “जैसे-जैसे साल बीतते गये, हमें धीरे-धीरे इस बात का पता चलता गया कि वह कितने बड़े नेता थे और उन्होंने हमारे लिए कितना कुछ किया है। जैसे-जैसे आप अधिक जानते जाते हैं, आप और अधिक जानना चाहते हैं।”

20 मार्च को जयपाल सिंह मुंडा के निधन के 50 साल पूरे हो गये हैं। छोटा नागपुर क्षेत्र, झारखंड के आदिवासी लोगों के लिए एक अलग राज्य का उनका सपना भले ही साकार हो गया हो,लेकिन उसमें अब भी कई गड़बड़ियां हैं। 

जयंत सिंह कहते हैं, “आज हमारे पास जो झारखंड है, वह मेरे पिता की परिकल्पना वाला झारखंड बिल्कुल नहीं है। आदिवासी शोषण और भूमि हस्तांतरण का यहां एक लम्बा इतिहास रहा है। इसकी शुरुआत ब्रिटिश काल में ही हो चुकी थी, और आज तक जारी है। अगर आपको लगता है कि झारखंड का निर्माण आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए किया गया था,तो आप ग़लत हैं। सचाई तो यही है कि झारखंड का निर्माण राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया गया था।”

जयंत ग़लत नहीं है। अपने निर्माण के बाद से झारखंड की धरती धीरे-धीरे उद्योग के लिए नीलाम होती गयी। शुरुआत से ही, आने वाली भाजपा सरकार ने राज्य के खनिज समृद्ध पठार से पैसे बनाने के लिए आदिवासी अधिकारों का शोषण किया है।

खूंटी ज़िला, झारखंड हॉकी की वह आधारशिला है, जहां जयपाल ने जन्म लिया था, पिछले कुछ वर्षों से आदिवासी असंतोष का यह केंद्र भी रहा है। महानगरों के दिन-ब-दिन के भाषण में संविधान की भाषा में जो आह्वान किया जाता रहा है,उससे बहुत पहले से वह आवाज़ खूंटी से उठती रही थी। झारखंड में आदिवासी समुदाय के विभिन्न सदस्यों द्वारा अपने भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए पत्थलगड़ी आंदोलन शुरू किया गया था, जिसके कारण भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत 10,000 से अधिक सदस्यों पर राजद्रोह के आरोप लगा दिये गये थे।

पिछले साल दिसंबर में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के सत्ता में आते ही ये आरोप वापस ले लिये गये। अपनी निरंतरता के कारण फलने फूलने वाले सदियों के आदिवासी इतिहास को एक ही झटके में छोड़ते हुए जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री, अर्जुन मुंडा ने जयपाल सिंह मुंडा की जयंती पर  कहा कि उनके जन्म के गांव, तकरा को एक 'मॉडल गांव' के रूप में विकसित किया जायेगा। वास्तवकिता तो यही है कि एक सुंदर परंपरा का अंत तभी से हो गया है,जबसे आधुनिक अर्थशास्त्र का प्रवेश इन आदिवासी क्षेत्रों में हो चला है।

झारखंड एक खनिज समृद्ध राज्य है। राज्य में भूमि स्वामित्व पैटर्न को बदल देने से उद्योगों को पनपने में मदद मिली है। यह सब उन लोगों की क़ीमत पर हुआ है,जिन्हें इसका बहुत कम फ़ायदा मिला है। इसी पैटर्न को खेल में भी आज़माया गया है। झारखंड महिला हॉकी टीम के लिए बड़ी संख्या में खिलाड़ियों को मुहैया कराने वाले राज्य के रूप में जाना जाता रहा है, और जिनमें से अधिकांश महिला खिलाड़ी खुंटी से ही हैं। खिलाड़ी तो आते-जाते रहते हैं। हालांकि,इस क्षेत्र को मिलने वाली सुविधायें आज भी न्यूनतम ही हैं।

पुरती कहती हैं,“ खूंटी का लगभग हर गांव उच्च गुणवत्ता वाले हॉकी खिलाड़ी पैदा कर सकता है।  लेकिन राज्य में इस तरह की सुविधायें बहुत कम हैं, जिन्हें विशेष कहा जा सके और इन सुविधाओं के अलावा जो सुविधायें हैं, हम उन्हीं का उपयोग करने के लिए मजबूर हैं।” 

उनका मानना है कि राज्य में तीन एस्ट्रो टर्फ़ ही काम के हैं। ये हैं- दो रांची के जयपाल सिंह स्टेडियम के एस्ट्रो टर्फ़ और एक जमशेदपुर स्थित टाटा अकादमी का एस्ट्रो टर्फ़ । प्रधान,ख़ुद पुरती की तरह अपने गांव से रांची के बैरातु हॉकी सेंटर गयी थीं और यह एक ऐसा पैटर्न है, जो आज तक चल रहा है। वे कहती हैं, “वर्षों से हमने इसके लिए अभियान चलाया है, और जब मैं सचिव थी,तब भी यह अभियान चल रहा था कि राज्य सरकार या मंत्रालय खूंटी में एक एस्ट्रो टर्फ़ के लिए पैसे मुहैया करा दे। …”

पुरती कहती हैं “अगर हमारे पास हरियाणा के एस्ट्रो टर्फ वाली सुविधायें उपलब्ध करा दी जाये,तो यहां से ज़्यादा से ज़्यादा खिलाड़ी उभरकर सामने आयेंगे। हमारे बुनियादी ढांचे की कमी से हमें बहुत नुकसान पहुंच रहा है। बेशक,हॉकी इंडिया ने हमारी बहुत मदद की है। ठीक है कि हम पिछले कुछ वर्षों में व्यापक रूप से आगे भी बढ़े हैं, लेकिन अब भी बहुत कुछ किये जाने की ज़रूरत है।”

पिछले कुछ वर्षों में एक हल्का बदलाव यह हुआ है कि आने वाले खिलाड़ियों की मदद करने और  इस खेल को खेलने के लिए उनकी आवश्यकता को उचित ठहराते को लेकर कुछ बातें आगे ज़रूर बढ़ी है। पुरती कहती हैं, “जब मैं सचिव थी, तब पहली चीज़ों में से एक चीज़,जो हम सुनिश्चित करना चाहते थे,वह यह थी कि झारखंड में ही लड़कियों को नौकरी मिले, ताकि वे दूसरी कंपनियों या राज्य इकाइयों के लिए काम न करें और बाहर का रूख़ न करें।” हालांकि उसी के साथ पुरती यह भी स्वीकार करती हैं कि इसे पर्याप्त नहीं माना सकता है,इसके पीछे का कारण कुछ और बताते हुए वह कहती हैं कि पुरुष खिलाड़ी कभी भी राष्ट्रीय टीम के लिए अपनी किसी तरह की कटौती  नहीं चाहते हैं। 

वह हंसते हुए कहती हैं,“ लड़कियों के लिए, नौकरी मूल आय का साधन है, बाहर निकलने का एक ज़रिया भी है और कभी-कभी दुनिया को देखने-समझने के मौके के रूप में पर्याप्त प्रेरणा भी बनती है।”  पुरुष खिलाड़ी की चाहत ज़्यादा की होती है। शुरुआत से ही उन्हें कोचिंग, और प्रशिक्षण की चाहत रहती है। वह हंसते हुए कहती हैं,“पुरुष अविश्वसनीय रूप से सुस्त,मगर हकदार भी होते हैं।”  

भारतीय इतिहास और एक हद तक भारतीय हॉकी इतिहास, ऐसे महान हस्तियों, बुद्धिजीवियों, शहीदों, दूरदर्शियों और प्रदर्शन करने वालों से अटा पड़ा है, जिन्होंने देश की अंतरात्मा को बहुत गहरे तक प्रभावित किया है। लेकिन,इनमें बहुत कम आदिवासी नाम सामने आते हैं।

जयंत कहते हैं,“ इस बात को सुन पाना आपको पसंद हो या नहीं, लेकिन यह एक कठोर वास्तविकता है कि भारत का विविधता वाला यह समाज बहुत ही तंग विचारों वाला समाज है। यहां हर समुदाय सिर्फ़ अपने ही बारे में सोचता है। और लाभ उठाने वालों के क्रम में आदिवासियों का नम्बर आख़िर में आता है। कल्पना कीजिए कि आदिवासी अपनी आवाज़ को उठाये,इस आवाज़ को हवा देने के लिए एक मंच बनाये। वे इस धरती के मूल निवासी हैं ! यदि वे इस बात को उठाना शुरू कर देते हैं, तो यक़ीन मानिए कि मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व में विस्फोट हो जायेगा!”

और जैसे-तैसे सब चल रहा है। इस बात को याद रखने और माफ़ी मांगने की तुलना में इसे भुला देना और दरकिनार कर देना हमेशा से आसान रहा है। हर किसी को यही याद रहता है कि भारत ने हॉकी में अपना एकमात्र विश्व कप ख़िताब 15 मार्च,1975 जीता था। लेकिन, मुंडा की जयंती, उनकी पुण्यतिथि या वास्तव में भारतीय हॉकी के पहले ओलंपिक पदक की तारीख़ को आसानी से भुला दिया जाता है। 

भारतीय हॉकी टीम में एकमात्र झारखंडी, प्रधान इस बात को खुलकर स्वीकार करती हैं। वह कहती हैं, “ईमानदारी से कहूं,तो मैं नहीं कह सकती कि टीम के कितने लोग जयपाल सिंह मुंडा के बारे में जानते हैं। मैंने उनसे कभी नहीं पूछा। शायद आज,मैं उन्हें बताऊंगी।”

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Jaipal Singh Munda: Tribal Statesman with a Hockey Stick and a Vision of Gold

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