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जम्मू-कश्मीर में यौन हिंसा के मुजरिम को क़ानून अब भी संरक्षण देता है, क्या कठुआ मामला इसे बदल पाएगा?

अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि ड्यूटी के दौरान यौन हिंसा की कोई घटना कैसे हो सकती है?
यौन हिंसा

साल 2012 के निर्भया गैगरेप मामले ने जितना तूल पकड़ा था उतना ही तूल कठुआ गैगरेप मामले ने भी पकड़ा। इस मामले में भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों का गुस्सा कम नहीं है। कठुआ मामले के बाद महिला को लेकर सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में है। कठुआ मामला इस धारणा को मज़बूत करता है कि देश में महिलाओं को लेकर सुरक्षा की स्थिति चिंताजनक है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ट्रेवल एडवाइज़र ने बार-बार महिलाओं को चेतावनी दी है कि उन्हें इस देश में यात्रा करते समय या इस देश में जाते समय सावधान रहना चाहिए। ये सभी क्रोध घटना के तीन महीने बाद आए हैं। इस घटना ने आख़िरकार प्रधानमंत्री को निंदा करने के लिए मजबूर किया। लेकिन जब हम कठुआ पीड़िता के गृह राज्य जम्मू-कश्मीर की स्थिति को देखते हैं तो उनका बयान या राष्ट्रपति का मत थोड़ा निरर्थक लगता है।

 

जम्मू-कश्मीर में समस्या काफी गंभीर है। विधानसभा में हाल ही में जारी आंकड़ों के अनुसार पिछले साल राज्य में केवल महिलाओं के ख़िलाफ़ 4,714 मामले दर्ज किए गए थे। साल1989 से 2013 तक के आंकड़ों से पता चलता है कि राज्य में रेप के 5,125 मामले दर्ज किए गए जिनमें से 2,601 कश्मीर में जबकि जम्मू में 2,524 मामले थे। इसके अलावा इसी अवधि में छेड़छाड़ के 14,953 मामले दर्ज किए गए। कश्मीर में 12,215 मामले और जम्मू में 2,738 मामले दर्ज किए गए। इनमें से 70 रेप के मामले और 55 छेड़छाड़ के मामले सशस्त्र बलों के ख़िलाफ़ थें। लेकिन जैसा कि रिकॉर्ड से पता चलता है सशस्त्र बलों को इन मामलों में से किसी के लिए दंडित नहीं किया गया।

 

 

निर्भया मामले के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं और लोगों को यह उम्मीद थी कि इस घटना के बाद ऐसे मामलों को लेकर प्रभावी क़दम उठाए जाएंगे जिससे इस तरह की घटनाएं कमी आएगी। यद्यपि 2013 में आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम में कुछ बदलाव किए गए। यौन अपराधों से निपटने वाले कानूनों में सुधार के उद्देश्य से गठित जेएस वर्मा समिति की कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें की गई। इन सभी को नज़रअंदाज़ कर दिया गया।

 

 

इसमें वैवाहिक दुष्कर्म को अपारध मानने, एएफएसपीेए में संशोधन सहित अन्य सिफारिश शामिल थी। हाल में सशस्त्र बलों के ख़िलाफ़ कोई मामला दर्ज नहीं किया गया जिसका अदालत में संज्ञान नहीं लिया जा सकता है। जब तक केंद्र द्वारा पूर्व स्वीकृति नहीं दी जाती है तब तक मामला दर्ज नहीं किया जाता है। यह स्पष्ट है कि ड्यूटी करते समय हुई किसी की मौत या घायल होने जैसे मामले में सेना को किसी भी आपराधिक कार्यवाही का सामना नहीं करना पड़ता है। एएफएसपीए के दुरुपयोग के मामले काफी हैं, लेकिन जो ज़्यादा चौंकाने वाला तथ्य है वह यह कि सेना के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के आरोपों को सरकार की मंज़ूरी के बिना अदालत में नहीं ले जाया जा सकता है। ये सवाल अब तक अनुत्तरित है कि ड्यूटी करते हुए यौन हिंसा की कोई घटना कैसे हो सकती है।

निर्भया मामले के बाद कश्मीर में पचास महिलाओं के समूह ने कश्मीर के कुपवाड़ा ज़िले के कुनान पोशपोरा गांव में 1991 के सामूहिक बलात्कार के मामले में दोबारा जांच के लिए पीआईएल दाखिल किया था। क़रीब चालीस महिलाओं से सेना कर्मियों ने गैंगरेप किया था और उनके परिवारों के पुरूषों को यातनएं दी थी। चार साल पहले कई याचिकाओं के बाद मामले को फिर से खोलने तक पीड़ितों द्वारा न्याय पाने के सभी कोशिश नाकाम रही।

याचिकाकर्ता उम्मीद कर रही थीं कि निर्भया मामले से यौन हिंसा के ख़िलाफ़ फूटे गुस्सा से अशांत जम्मू-कश्मीर में इस मुद्दे के प्रति ध्यान खींचने में मदद मिलेगी और इसके परिणामस्वरूप राज्य मेंउत्पीड़न, रेप और छेड़छाड़ के लंबित मामलों में कुछ कार्रवाई हो सकती है। हालांकि ऐसा नहीं हुआ।

कुनान पोशपोरा मामले की याचिकाकर्ताओं में से एक नाताशा राथर ने न्यूज़़क्लिक को बताया कि "ये मामला पिछले तीन सालों से सुप्रीम कोर्ट में है। मामले का निपटारे या कम से कम इसकी प्रक्रिया शुरू करने की कोई जल्दबाज़ी नहीं है। और यह देरी न्याय के सुनियोजित इनकार और कश्मीर में भारतीय सशस्त्र बलों को दंडमुक्ति का हिस्सा है। दंडमुक्ति के इसी चश्मे से कठुआ मामले को भी समझने की कोशिश करें। दो एसपीओ शामिल हैं और मामला ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने और गुज्जर समुदाय को इलाक़े से बाहर निकालने को लेकर लगता है। अगर आप क़रीब से इस मामले को देखेंगे तो लगेगा कि ये मामला कश्मीर में यौन हिंसा के अन्य मामले की तरह सिस्टेमेटिक सेक्सुअल वायलेंस जैसा है।"

कुनान पोशपोरा राज्य का ऐसा एकमात्र उदाहरण नहीं है। संघर्ष के किसी क्षेत्र में यौन हिंसा अतिरिक्त उद्देश्यों के लिए होता है, और युद्ध के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। पीड़ितों के लिए यह काफ़ी मुश्किल होता है कि वे सामने आएं, बोले और शिकायत दर्ज कराएं क्योंकि वे उन व्यवस्थित तरीकों से अवगत हैं जिनसे न्याय को नकार कर दिया जाएगा। पीड़ितों को महसूस होता है कि मुजरिम - सशस्त्र बल के सदस्य- पर बड़ा हाथ है, क्योंकि उन्हें राज्य में सत्ता के मुक्त शासन के आधार पर लगभग बचा लिया जाएगा। मामले के सबूत हैं लेकिन सशस्त्र बलों से प्रतिशोध से डरते हुए कोई औपचारिक शिकायत दर्ज नहीं की है। परिवारों ने मानवाधिकार समूहों जैसे जम्मू कश्मीर कोलिशन फॉर सिविल सोसायटी को सबूत दिए।

इसके बावजूद आंकड़ों से पता चलता है कि कई मामले हैं ऐसे हैं जहां पीड़ितों ने क़दम बढ़ाया है। इस समस्या की हद को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि ऐसी कई घटनाओं के बाद भी रिपोर्ट नहीं की गई है जबकि रिपोर्ट किए गए यौन अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है।

कुछ मामलों में जहां शिकायतें दर्ज की जाती हैं और आरोपपत्र तैयार करने के लिए जांच होती है लेकिन चीज़ें स्थिर रह जाती है जब सरकार की मंजूरी मिलने की बात आती है। कई मामले हैं जिसमें सरकार ने सीधे तौर पर आपराधिक कार्यवाही की अनुमति देने से इंकार कर देती है; कई मामले हैं जहां सरकार की प्रतिक्रिया को लेकर अभी भी इंतज़ार किया जा रहा है; कई मामले हैं जहां मंज़ूरी के अनुरोध के बाद राज्य सरकार ने रास्ता बदल दिया और कोई जवाब नहीं मिला, और कई मामले हैं जहां मंज़ूरी की मांग भी नहीं की गई।

रक्षा मंत्रालय द्वारा अक्सर मंज़ूरी को नकारने का कारण विधि के किसी भी तर्क या आधार को अस्वीकार करता है। ऐसी कई घटनाएं हैं जहां पीड़ित के उग्रवादियों से शादी के कारण मामलों को ख़ारिज कर दिया गया है, इसलिए "राष्ट्र विरोधी तत्वों द्वारा उक्त महिला को झूठा आरोप लगाने के लिए मजबूर होना पड़ता था।" कुनान पोशपोरा मामले को शुरू में इसी तरह के आधार पर ख़ारिज कर दिया गया था। दूसरे समय एमओडी ने कहा है कि आरोप निराधार हैं और सेना को रक्षात्मक रखने के लिए ग़लत इरादे से तैयार किया गया है। अक्सर मंत्रालय मंज़ूरी को नकारने का आधार प्रथम दृष्टया साक्ष्य की ग़ौर मौजूदगी बताता है।

दुर्लभ मामलों में मुकदमा चलता है, यह कोर्ट मार्शल द्वारा किया जाता है जिसका सशस्त्र बलों के पक्ष में भारी पक्षपातपूर्ण होता है। किसी भी राज्य में किसी भी नागरिक से सशस्त्र बलों द्वारा किए गए रेप जैसे अपराध के ख़िलाफ़ स्वतः आपराधिक न्यायालय में मुकदमा चलाया जाएगा। लेकिन एक आपराधिक अदालत का अधिकार क्षेत्र संघर्ष क्षेत्रों में लागू नहीं होता है,इस तरह अनिवार्य रूप से इन क्षेत्रों के निवासियों के न्याय के संसाधन को नकार देता है। यह तथ्य से स्पष्ट है कि कश्मीर में सशस्त्र बलों के हाथों यौन हिंसा की शिकार किसी भी पीड़ित की उचित सुनवाई नहीं हुई है।

जेएस वर्मा समिति ने इस बात को स्वीकार किया था कि यौन अपराधों के मामलों में किसी भी मंज़ूरी की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन अब तक इस सुझाव को नज़रअंदाज़ किया गया है। फिर से कोशिश करने और घाटी में गंभीर स्थिति पर ध्यान आकर्षित करने के लिए पोर्टल वन बिलियन राइजिंग पर एक अभियान शुरू किया गया जिसमें नारीवादी और मानवाधिकार समूहों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप करने की बात कह रहे हैं। साथ ही वे संयुक्त राष्ट्र को कश्मीर में वैध दंडमुक्ति और यौन हिंसा की समस्या का समाधान करने को कह रहे हैं।

ये अभियान याचिका इस बात को उजागर करता है कि नरेंद्र मोदी का बयान अस्पष्ट था, और "भारत की बेटियां" कहकर यह प्रतीत होता है कि "भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा किए गए हत्याएं और रेप को लेकर कश्मीरी पुरुष और महिलाएं न्याय की लायक नहीं हैं। ये महिलाएं और पुरुष ख़ुद को भारत के बेटे और बेटियां नहीं मानती हैं।"

यद्यपि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती ने नए कानूनों को लाने की घोषणा की है जिसमें नाबालिगों से रेप करने वाले दोषियों को मौत की सजा देने का प्रावधान है (जो कि एक अन्य स्तर पर जटिल है), तथ्य यह है कि कश्मीर में मामले शायद ही कभी परिणाम तक पहुंचते हैं। जब तक यह तय नहीं हो जाता है, दंड को कठोर बनाने का मतलब कुछ भी नहीं है। जब निर्भया मामले में शोर मचाने से कश्मीर में कोई बदलाव नहीं आ सका जहां शस्त्र बलों को दंडमुक्ति मिल रही है, वहां कम उम्मीद है कि कठुआ मामले का परिणाम कुछ अलग होगा।

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