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जनता संसद का विशेष किसान सत्र

इस सत्र ने कृषि को लेकर एक वैकल्पिक नीति एजेंडा पर बातचीत का दरवाज़ा खोला और यह दिखाया कि महामारी के दौरान भी सरकार किस तरह संसदीय सत्र चला सकती है।
 संसद
फ़ोटो: साभार: द फ़ाइनांशियल एक्सप्रेस

23 मार्च 2020 के बाद जब से बजट कटौती सत्र ख़त्म हो गया, तब से भारत की संसद का सत्र नहीं चल रहा है। संसदीय समितियों ने भी दो महीने से ज़्यादा कार्य नहीं किया है। पिछले साल जून की शुरुआत में ही इसकी कुछ बैठकें निर्धारित थीं। दुनिया भर में संसदों के सदस्यों के साथ-साथ समिति के लिए ऑनलाइन बैठकें आयोजित करने की व्यवस्था की गयी थी। भारत में अब तक इस प्रक्रिया का पता नहीं चला है, हालांकि इस पर काफी समय से चर्चा चल रही है।

संसद का मानसून सत्र जुलाई, 2020 तक शुरू हो जाना चाहिए था। चूंकि संसद का सत्र नहीं चल रहा था, ऐसे में कोविड-19 महामारी के दौरान प्रतिनिधियों के जवाबदेह बनाने का सबसे अहम मंच भी उपलब्ध नहीं था, और इससे एक संकट तो पैदा हो ही गया है।

इस सिलसिले में कोविड-19 से जुड़े नीतिगत मुद्दों पर तत्काल चर्चा करने के लिए एक वर्चुअल पीपल्स पार्लियामेंट के तौर पर पिछले साल जनता संसद की परिकल्पना की गयी थी। इसे 16 से 21 अगस्त 2020 तक जिन मक़सदों के साथ आयोजित किया गया था,वे थे:

  • यह दिखाना कि अगर सरकार विचार करती तो ऑनलाइन संसद सत्र बुलाना मुश्किल नहीं होता,
  • जब कभी फिर से संसद की बैठक आयोजित की जायेगी, तो उसे लेकर चर्चा और बहस का एजेंडा निर्धारित करना
  • राजनीतिक बयानबाज़ी के बजाय मुद्दा आधारित चर्चा कराना।

हर एक विषय पर चर्चा के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से प्रतिभागियों को आमंत्रित किया गया था, ऐसे कम से कम 55 लोग (कोरम को बनाये रखने के लिए) थे, जो सबको दिखाई देते,और जिनमें से कई तो बोलते भी। एक हज़ार लोग ऑनलाइन (ज़ूम पर) में शामिल हो सकते थे और सत्र के दौरान प्रस्तावों पर होने वाले मतदान में भाग ले सकते थे। हालांकि,वे दिखायी नहीं देने वाले थे और बोलने वाले भी नहीं थे। कार्यवाही का प्रसारण ऑनलाइन लाइव किया जाना था। राजनेताओं को भी इसमें भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था।

प्रक्रिया

  • बहुत कम समय की चर्चा वाले इस संसदीय उपाय को विचार-विमर्श के लिए अपनाया गया था, और प्रत्येक बहस कम से कम 2.5 घंटे तक चलनी थी।
  • प्रतिभागी किसी भी विषय पर अपने विचार रख सकते थे और औपचारिक प्रस्तावों (वैकल्पिक) को पटल पर रख सकते थे। चर्चा के आख़िर में प्रस्तावों को लाइव वोट के लिए लाया जाता था।
  • प्रतिभागियों में या तो व्यक्ति शामिल थे या उन्हें संगठनों, संस्थानों या समूहों से जुड़े होने के तौर पर मान्यता दी गयी थी।
  • एक पीठासीन अधिकारी ने इस कार्यवाही का संचालन करता था

कोई बाहरी विशेषज्ञ या विशेषज्ञों का पैनल किसी चर्चा की शुरुआत में सदन के सामने अपनी बात रख सकता था और प्रासंगिक डेटा और आंकड़े पेश कर सकता था।

नतीजा

भाग लेने वाले विभिन्न संगठनों के सुझावों वाला एक नीति प्रस्ताव तैयार किया जाता था। इसे संसद सदस्यों को दिया जाता था, ताकि वे इसे संसद में पेश कर सकें, संसद में होने वाली चर्चा के दौरान इसका ज़िक़्र किया जा सके और इसे सरकार को ज्ञापन के रूप में प्रस्तुत कर सकें।

किसान आंदोलन

लाखों किसान हाल ही में केंद्र सरकार की तरफ़ से पारित कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं, और उनकी एक मांग यह है कि इन क़ानूनों को निरस्त करने के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाया जाये। हालांकि, सरकार ने इस साल संसद के शीतकालीन सत्र को रद्द कर दिया है।

इस सिलसिले में भारत भर के नागरिक समाज संगठनों, सामाजिक आंदोलनों और जन संगठनों के एक विविध समूह, जन सरोकार ने प्रदर्शनकारी किसानों के साथ एकजुटता दिखाते हुए नई दिल्ली में जनता संसद का एक विशेष किसान सत्र आयोजित किया। तीन दिवसीय यह वर्चुअल सत्र 19-21 दिसंबर 2020 को आयोजित किया गया था। इसने किसान आंदोलन के प्रतिनिधियों की बातें सुनीं और नागरिकों पर इन नये क़ानूनों के पड़ने वाले असर पर चर्चा की और एक वैकल्पिक नीति एजेंडा पर बातचीत करने की मांग की।

21 दिसंबर को आयोजित उस किसान सत्र में छह सत्र थे, जिनमें कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस (TMC), सीपीआई-एमएल, सीपीआई, राष्ट्रीय जनता दल (RJD), विदुथलाई चिरुथिकल कांची, यानी वीसीके(तमिलनाडु), अखिल भारतीय फ़ॉरवर्ड ब्लॉक, समाजवादी पार्टी और सीपीआई (M) के वरिष्ठ राजनीतिक प्रतिनिधि शामिल थे ।

एक स्थायी समिति बनायी गयी, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार-पी साईनाथ, कार्यकर्ता-अरुणा रॉय, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी-एमजी देवसहायम, सीपीआई नेता-एनी राजा और ट्रेड यूनियन नेता-थॉमस फ़्रेंको शामिल थे। साईनाथ ने इसका संचालन किया था।

तीनों कृषि क़ानूनों को निरस्त किये जाने को लेकर चल रहे ऐतिहासिक किसान संघर्ष के साथ सर्वसम्मति से एकजुटता दिखायी गयी। सभी दलों ने इस बात को लेकर सहमति जतायी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की क़ानूनी गारंटी और कृषि संकट के अन्य पहलुओं पर चर्चा करने के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाया जाना चाहिए। कुछ लोगों ने कहा कि बजट सत्र का एक हिस्सा इन मुद्दों पर ख़ास तौर पर समर्पित होना चाहिए।

एक समिति बनाने के सवाल पर पार्टियों ने पूछा कि पिछली समितियों के फ़ैसलों के साथ क्यों न आगे बढ़ा जाये ? स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट पहले से ही मौजूद है और सरकार को इसे लागू करना चाहिए।

के.राजू और राजीव गौड़ा ने कहा कि उनकी पार्टी-कांग्रेस ने एमएसपी की गारंटी दिये जाने की मांग का समर्थन किया है। सोनिया गांधी का एक बयान पढ़कर सुनाया गया, जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस की अगुवाई वाली राज्य सरकारों ने इन केंद्रीय कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ क़ानून पारित कर दिया है। वे इस मामले को राष्ट्रपति की क़ानूनी मंज़ूरी के लिए आगे बढ़ायेंगे।

भाकपा-माले के दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा कि उनकी पार्टी किसानों के साथ खड़ी है और इन क़ानूनों को रद्द किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सार्वभौमिक बनाया जाना चाहिए, और सरकार को ख़रीद मूल्य बढ़ाना चाहिए।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के डी.राजा ने कहा कि पार्टी के सभी वर्ग और जन संगठनों ने चल रहे किसान विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया है। उन्होंने कहा कि इन नये क़ानूनों का मक़सद कॉर्पोरेट हितों के लिए काम करना है।

टीएमसी के सुखेंदु शेखर रॉय ने यह बताया कि जिस तरह से इन क़ानूनों को पारित किया गया,उससे संसद को कमज़ोर किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि कृषि राज्य का एक विषय है और इन क़ानूनों को पारित करके राज्य के क्षेत्र में घुसपैठ की गयी है। संसद के विशेष सत्र के अलावा, इन क़ानूनों से प्रभावित होने वाले लोगों के साथ परामर्श के लिए एक प्रवर समिति की तरफ़ से चर्चा की जानी चाहिए थी।

इन कृषि क़ानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट जाने वाले राजद के प्रोफ़ेसर मनोज के.झा ने कहा कि दुनिया भर की सरकारों ने महामारी का फ़ायदा उठाया है। हालांकि वह राज्यसभा के सांसद हैं, फिर भी मानसून सत्र में उन्हें लोकसभा में बैठना पड़ा और राज्य सभा में इन क़ानूनों को पारित किये जाने को लेकर उत्तेजित होने के अलावा वे और कुछ नहीं कर सके। उन्होंने महसूस किया कि विपक्षी दलों ने सरकार की तरफ़ से अपनाये गये निरंकुश तरीक़ों का पर्याप्त रूप से विरोध नहीं किया है। उन्होंने 30 जनवरी,2021 को बिहार में इन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ राजद और सभी विपक्षी दलों की एक मानव श्रृंखला बनाने के फ़ैसले का ज़िक़्र किया।

तमिलनाडु से विदुथलाई चिरुथिगाल काची (वीसीके) के सांसद, डॉ डी.रविकुमार ने कहा कि जिस तरह से महामारी के दौरान संसद का आयोजन किया गया, उसमें इन कृषि क़ानूनों पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त समय नहीं था। उनकी पार्टी के कुछ सदस्यों को आधी रात को संसद को संबोधित करने के लिए समय आवंटित किया जा रहा था।

ऑल इंडिया फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के जी.देवराजन ने कहा कि वह आंदोलनकारी किसानों के समर्थन में दिल्ली-हरियाणा सीमा पर स्थित सिंघू बॉर्डर इलाक़े का दौरा करते रहे हैं।

समाजवादी पार्टी के घनश्याम तिवारी ने कहा कि अमेज़ॉन और अन्य ऑनलाइन बाज़ार जल्द ही किसानों की उपज को बेचेंगे, जिसमें अडानी जैसी कंपनियां आख़िरकार आपूर्ति श्रृंखला को संभालेंगी।

माकपा के सीताराम येचुरी ने कहा कि उनकी पार्टी किसानों के साथ खड़ी है और किसी भी समिति के साथ चर्चा नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि संसद के एक बहुत ही छोटे सत्र में इन क़ानूनों को पारित करने की ज़रूरत नहीं थी। उन्होंने कहा कि सरकार को किसी समिति नहीं, बल्कि किसानों और इस क़ानून से प्रभावित होने वाले अन्य सभी लोगों से बात करनी चाहिए और उसके बाद ही कोई क़ानून पेश करना चाहिए।

आख़िर में प्रेसिडियम के सदस्यों ने अपने विचार रखे। अरुणा रॉय ने राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से अपने ज़िला स्तरीय समितियों के ज़रिये इन नये क़ानूनों को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि राजनीतिक दलों को 26 जनवरी को ग्राम सभाओं से इन क़ानूनों को रद्द करने के लिए प्रस्ताव पारित करने के लिए कहना चाहिए। पी.साईनाथ ने “किसान बचाओ,राष्ट्र बचाओ” समितियों के गठन का आह्वान किया और कॉरपोरेट्स द्वारा तैयार उन उत्पादों का जमीनी स्तर पर बहिष्कार कार्यक्रम का आयोजन करने के लिए कहा, जो किसानों के लिए सीधे-सीधे नुकसानदेह हैं।

18 जनवरी को PARI या पीपुल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के स्थापक और मैगसेसे पुरस्कार विजेता, पी.साईनाथ ने इन नये कृषि क़ानूनों को ग़ैर-क़ानूनी और असंवैधानिक बताया। द नेशन फ़ॉर फ़ार्मर, बिहार महिला समाज और तातार फ़ाउंडेशन की तरफ़ से पटना में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा, “ये तीनों क़ानून मौजूदा कृषि संकट को बढ़ाने वाले हैं। उन्हें निरस्त किया जाना चाहिए। सरकार आग से खेल रही है।”

उन्होंने यह भी कहा कि एपीएमसी कृषि के लिए उतना ही अहम है,जितना कि शिक्षा के क्षेत्र के लिए सरकारी स्कूल और स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए सरकारी अस्पताल अहम हैं। उनका कहना था, "सुधार किसानों के अनुकूल होने चाहिए, न कि कॉरपोरेट के अनुकूल।"

साईनाथ ने किसानों की बात सुनने और उनकी मांगों के हल किये जाने को लेकर फिर से संसद के विशेष सत्र के बुलाए जाने की मांग रखी। साईनाथ ने कहा कि किसान अपने विरोध के साथ सीधे-सीधे कॉर्पोरेट शक्ति का सामना कर रहे हैं, और कहा कि यह आंदोलन "लोकतंत्र की रक्षा" और "गणतंत्र को फिर से पाने" का आंदोलन है।

उन्होंने कहा कि किसानों की यह लामबंदी कोई मामूली घटना नहीं है। अपनी बात को ख़त्म करते हुए उन्होंने कहा "इसकी कमीवेशी पर समाज के सभी वर्गों की ख़ास नज़र इसलिए है, क्योंकि इन क़ानूनों का सभी नागरिकों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।"

टिप्पणीकार लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व सिविल सर्वेंट हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

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