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किसानों को क़र्ज़ ‘न’ देने के लिए आर.बी.आई. के दिशा-निर्देशों की समग्र कुंजी

रिज़र्व बैंक की इस कुंजी से यह समझने में मदद मिल सकती है कि बैंकों द्वारा किसानों को दिए गए कर्ज़ों और वास्तव में किसानों द्वारा प्राप्त की जाने वाली राशि और क़र्ज़ के दायरे के बीच एक बड़ा अंतर क्यों है.
किसान

यदि आप के पास समय है,  और आप यह नहीं जानते कि इस खाली समय के साथ क्या करना है – तो आप ऐसा कुछ कर सकते हैं. कि आप भारतीय रिजर्व बैंक की वेबसाइट पर जाइए, और 'प्राथमिकता के क्षेत्र में क़र्ज़ पर मास्टर सर्कुलर' नामक दस्तावेज़ की खोज करें.

हाँ, शीर्षक कुछ हद तक उबाऊ लगता है. लेकिन, मुझ पर भरोसा करें,  पढने के लिए यह एक रोचक दस्तावेज़ है. बेशक, इसे "किसानों क़र्ज़ देने के लिए कैसे मना करें, और उलट वायदे भी करते रहे” कहना भी गलत नहीं होगा, लेकिन आर.बी.आई. को अच्छे शीर्षकों के लिए थोड़े ही जाना जाता है! लेकिन इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, चलिए प्राथमिकता सेक्टर के क़र्ज़ के बारे में थोड़ी सी बात करते हैं.

प्राथमिकता क्षेत्र का क्रेडिट/क़र्ज़ क्या है?

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए, हमें 1969 से 1980 के बीच, बैंक के हुए राष्ट्रीयकरण की अवधि में झांकते हुए - भारत के आर्थिक इतिहास के कुछ दशकों तक वापस जाने की जरूरत है, यह वह समय है जब सरकार ने कई निजी क्षेत्र के बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, और जिससे बैंकिंग क्षेत्र का 85 प्रतिशत हिस्सा सार्वजनिक क्षेत्र के नियंत्रण में आ गया था.

राष्ट्रीयकरण से पहले, अधिकतर बैंक कुछ शहरी केंद्रों तक ही सीमित थे और वे केवल मुट्ठीभर बड़े व्यपारिक समूहों के क़र्ज़ की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे. कृषि, ग्रामीण उद्योग, लघु उद्योग या फिर अन्य व्यापार करने वाले समूह अर्थव्यवस्था में मौजूद साहूकारों से क़र्ज़ लेने के लिए निर्भर थे. इसका अनुमान इससे से लगाया जा सकता है कि, राष्ट्रीयकरण की पूर्व संध्या पर, कुल बैंक ऋण का केवल 0.2% ही कृषि में जा रहा था. बैंकों के राष्ट्रीयकरण के निर्णय के पीछे यह एक मुख्य कारण था.

राष्ट्रीयकरण के बाद, यह सुनिश्चित करने के लिए कि बैंक कृषि, लघु उद्योग, ग्रामीण गरीब और वंचित और कमजोर तबकों को क़र्ज़ देंगे – इसके लिए बैंकों को इन तबकों को अपने क्रेडिट का कम से कम 40 प्रतिशत देने का आदेश दिया. 40 प्रतिशत के इस लक्ष्य को आज 'प्राथमिकता क्षेत्र क़र्ज़' कहा जाता है.

प्राथमिकता क्षेत्र क़र्ज़ के लक्ष्य के भीतर ही, बैंकों को कुल बैंक क्रेडिट का 18 प्रतिशत कृषि क्षेत्र के लिए क़र्ज़ का न्यूनतम लक्ष्य दिया गया. इस लक्ष्य के कारण कृषि क्षेत्र में क़र्ज़, 1960 में 0.2 प्रतिशत से बढ़कर 1991 में 18 प्रतिशत हो गया.

हालांकि बैंकिंग क़र्ज़ का 18 प्रतिशत भारतीय किसानों की सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं था, यह इस तथ्य से पता चलता है कि किसानों के क़र्ज़ पर किये गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि किसानों को अधिकतर धन साहूकारों या अन्य गैर-संस्थागत स्रोतों द्वारा प्रदान किया जाता रहा है. लेकिन फिर भी यह कहना सही होगा कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले के समय से यह फिर भी काफी बेहतर था.

अब जब हमने प्राथमिकता क्षेत्र के क़र्ज़ और कृषि क़र्ज़ की पृष्ठभूमि पर एक नजर डाल ली है, तो हमें अब वापस अपने ‘सर्कुलर’ की चर्चा पर आ जाना चाहिए.'

ऐसे कौन-से तरीके हैं जिनके ज़रिए बैंक कृषि को क़र्ज़ देने से इनकार कर सकते हैं?

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्राथमिकता के क्षेत्र में क़र्ज़ देने पर बना मास्टर सर्कुलर, पिछले ढाई दशकों से बैंकों को दिए गए सभी दिशा-निर्देशों का संग्रह है. इनमें से ज्यादातर निर्देशों का मुख्य उद्देश्य प्राथमिकता वाले क्षेत्र में, और विशेष रूप से किसानों (कृषि क़र्ज़) में कटौती करना था - क्योंकि यह 1991 के बाद से ही लगातार सभी सरकारों के नव-उदारवादी सुधारों में से एक मुख्य एजेंडा था.

आइये देखते हैं कि कृषि के लिए क़र्ज़ को कम करने में आर.बी.आई. के निर्देश कैसे मदद करते हैं?

शुरू इससे करते हैं कि हम इसे खुले तौर पर क्रूरता ही कहेंगे, क्योंकि पहले से ही अपर्याप्त कृषि क़र्ज़ को 18 प्रतिशत से घटाकर मात्र 13.5 प्रतिशत कर दिया गया – और आर.बी.आई. ने चतुराई से कृषि क़र्ज़ के अर्थ को ही फिर से परिभाषित कर दिया. इसने फिर इसे 'अप्रत्यक्ष कृषि क़र्ज़'  का नाम दे दिया.

इससे से पहले, कृषि क़र्ज़ सीधे किसानों को दिया जाता था. लेकिन नई नीति की शुरूआत के बाद, आर.बी.आई. ने बैंकों को किसानों को सीधे क़र्ज़ में कटौती करने के लिए कहा और उसे 18 प्रतिशत से घटा कर 13.5 प्रतिशत कर दिया गया और 4.5 प्रतिशत बचे शेष को अब कृषि में अप्रत्यक्ष क़र्ज़ के रूप में पुनर्निर्धारित किया गया ताकि कॉर्पोरेट खेती के नाम पर बैंक कॉरपोरेट घरानों की बड़ी कंपनियों को कोल्ड स्टोरेज़, गोदामों और कृषि से सम्बंधित इकाइयों की स्थापना और यहां तक कि जैव-प्रौद्योगिकी कंपनियों की स्थापना के लिए भारी क़र्ज़ दे सके. ऐसी संस्थाओं को दिए गए 100 करोड़ रुपये तक के क़र्ज़ को कृषि क़र्ज़ माना जाएगा. इस नई परिभाषा के तहत अब सभी कंपनियां महानगरीय शहरों में अपने व्यापार को बढाने के लिए सुपरमार्केटों के लिए कोल्ड स्टोरेज और गोदामों की स्थापना के लिए क़र्ज़ ले सकती हैं, और बैंक इसे कृषि क़र्ज़ के रूप में दावा कर सकते हैं.

जल्द ही आर.बी.आई. ने यह महसूस किया कि किसान इससे भी कम क़र्ज़ से काम चला सकते हैं और इसलिए महसूस किया कि 13.5 प्रतिशत किसानों के लिए थोड़ा ज्यादा है. इसलिए, पिछले साल, रिजर्व बैंक ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क़र्ज़ के बीच मौजूद भेद को ही दूर करने का निर्णय लिया. आज, 18 प्रतिशित के लक्षित कृषि क़र्ज़ में से बैंक छोटे और सीमांत किसानों को मात्र 8 प्रतिशत ही क़र्ज़ देने का लक्ष्य है - और अब यह उनके ऊपर निर्भर है कि वे शेष 10 प्रतिशत का भुगतान/इस्तेमाल कैसे करते हैं. इसका मतलब है कि अब, बैंक उपरोक्त उल्लेखित गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कुल कृषि क़र्ज़ के आधे से अधिक का आदान-प्रदान अपनी मर्ज़ी से कर सकते हैं.

यहां तक कि छोटे और सीमांत किसानों के लिए 8 प्रतिशत क़र्ज़ के प्रावधान को आर.बी.आई. ने काफी बेअसर कर दिया है. अब माइक्रोफाइनेंस फर्मों को बैंक क़र्ज़ देता है इसके एवाज़ में वे किसानों को उधार देते हैं, और इस तरह के क्रेडिट को आर.बी.आई. ने कृषि क़र्ज़ के श्रेणी में डाल दिया है. इसलिए, अब बैंक माइक्रोफाइनेंस फर्मों को उधार दे सकते हैं, और अपने कृषि क़र्ज़ के लक्ष्य को पूरा करते हैं.

इस तथ्य से सब वाकिफ हैं है कि तथाकथित सूक्ष्म-वित्त संस्थान पुराने जमाने के गांव के साहूकारों जैसे ही शोषक हैं – जो केवल अपने हितों को साधते हैं और किसानों से बड़ी ब्याज दर वसूल करते हैं. वास्तव में, आर.बी.आई. ने ही यह निर्दिष्ट किया है कि बैंक माइक्रोफाइनांस कम्पनियों को कृषि क़र्ज़ इस शर्त पर दे सकते हैं, कि वे कंपनियां अपने ग्राहकों (किसानों) को क़र्ज़ देते वक्त बैंक आधार दर 12 प्रतिशत से अधिक नहीं रखेंगे और जिसके चलते ब्याज दर लगभग 21 प्रतिशत प्रतिवर्ष बैठेगी.

प्रति वर्ष 21% की ब्याज दर, किसान-विरोधी नहीं है, तो और क्या है? कितने किसान इतनी ऊँची ब्याज दर के साथ क़र्ज़ ले सकते हैं? ऐसे क़र्ज़ से क्या किसान जीवन भर उभर सकता है?

जैसे कि यह मार काफी नहीं थी, आरबीआई ने कृषि क्षेत्र में बैंक क़र्ज़ को काटने के लिए कुछ और नए तरीके निकाल लिए. आर.बी.आई. ने उन बैंकों जिन्होंने लक्ष्य पूरा नहीं किया, उन बैंकों को अन्य बैंकों, वित्तीय संस्थानों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से कृषि क़र्ज़ प्रतिभूतियों को खरीदने के लिए इजाजत दे दी और इससे 18 प्रतिशत कृषि क़र्ज़ लक्ष्य को पूरा करने की छूट भी दे दी गयी. उदाहरण के लिए, निजी क्षेत्र के बैंक, जो ग्रामीण इलाकों में बहुत कम उपस्थिति में हैं, एक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक से एक प्रतिभूतिकृत कृषि क़र्ज़ खरीद सकते हैं और इसे अपने कृषि क़र्ज़ के रूप में पेश कर सकते हैं. एक भी किसान ग्राहक न होने और ग्रामीण क्षेत्रों में एक भी शाखा न होने के बावजूद – ये निजी बैंक कुछ परिसंपत्ति-समर्थित प्रतिभूतियां खरीदकर, अपने कृषि क़र्ज़ के लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं.

इसी प्रकार, बैंक अपने कृषि क़र्ज़ का लक्ष्य पूरा करने के लिए इंटर-बैंक पार्टिसिपेटरी सर्टिफिकेट (आई.बी.एफ.सी.) भी खरीद सकते हैं. यह जानकारी मौजूद है कि 31 मार्च े पहले, जब आर.बी.आई. कृषि क्षेत्र के लक्ष्यों का आकलन करता है, तो कई निजी बैंक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कृषि आई.बी.एफ.सी. खरीदने के लिए उतावले होते हैं, जो आखिरे महीने तक इसका इंतजार करते हैं. आई.बी.एफ.सी. को वास्तव में बैंकों की पुस्तकों में किसानों को दिए गए क़र्ज़ के रूप में दिखाया जाता है.

हाल ही में, आर.बी.आई. ने 'प्राथमिक क्षेत्र क़र्ज़ प्रमाणपत्र (पी.एस.एल.सी.)' नामक नए शागुफे की शुरुवात की है, ताकि बैंकों को कृषि क्षेत्र के लिए उपलब्ध धन से और दूर किया जा सके. आर.बी.आई. ने वास्तव में एक पोर्टल शुरू किया है जहां बैंक पी.एस.एल.सी. में आपसी व्यापार कर सकते हैं. बैंक जो पी.एस.एल.सी. खरीदते हैं,  उन्हें केवल छोटा सा शुल्क बेचने वाले बैंक को देना पड़ता है ताकि वे 'अपनी कृषि ऋण उपलब्धि’ या लक्ष्य को साबित कर सके. लेकिन वास्तविक ऋण और ऋण से जुड़े जोखिम खरीदार बैंक को स्थानांतरित नहीं होते हैं. खरीदार बैंक ऋण वास्तविक  मूल्य का भुगतान भी नहीं करता है; वह केवल एक छोटा शुल्क का भुगतान करता है. जो भी बैंक अपने कृषि क़र्ज़ के कोटे को पूरा नहीं करते हैं वे पोर्टल पर जा सकते हैं और कुछ कृषि पी.एस.एल.सी. खरीद सकते हैं - वास्तव में हमारे बैंकों के लिए यह गांव में जाकर और किसान को क़र्ज़ देने से कहीं अधिक सुविधाजनक है.

ये आर.बी,आई. की वे सभी चालाक योजनाओं की विस्तृत सूची नहीं है जिसके तहत वह कृषि क़र्ज़ को बेअसर करना चाहती है बल्कि ये यह समझने के लिए पर्याप्त है कि बैंक किसानों को क़र्ज़ देने का दावा करने वाले दावे खोखले हैं. इसका परिणाम स्पष्ट है कि किसान ऊँची ब्याज दरों पर क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर हैं. इसकी झलक सी बात से पता चलती है कि विभिन्न राज्यों में दुखी किसानों को विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों की राह पकडनी पड़ रही है.

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