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कोमकासा: हलुआ मिला न मांड़े, दोऊ दीन से गये पांड़े

कुछ तो अंतर्राष्ट्रीय करार लिखे ही इतने जटिल शब्दों में जाते हैं कि जिनके लिए वे कहर साबित होने वाले हैं उनके पल्ले ही न पड़ें, कुछ उनका एलान काँटे छुपाने के लिए द्विअर्थी तथा सजी-सजाई भाषा में इस तरह किया जाता है कि असलियत दिखे ही नहीं।
COMCASA
Image Courtesy : Money Control

(कुछ तो अंतर्राष्ट्रीय करार लिखे ही इतने जटिल शब्दों में जाते हैं कि जिनके लिए वे कहर साबित होने वाले हैं उनके पल्ले ही न पड़ें, कुछ उनका एलान काँटे छुपाने के लिए द्विअर्थी तथा सजी-सजाई भाषा में इस तरह किया जाता है कि असलियत दिखे ही नहीं। इन पंक्तियों में यह प्रयत्न किया गया है कि हाल में हुए कोमकासा समझौते को आम जनों की समझ में आने लायक बनाकर प्रस्तुत किया जाए; लेखक) 

विदेशनीति के मामलों में आम सर्वानुमति का रहना आज़ादी के बाद के भारत की राजनीति की एक खासियत रहती है। 1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा मे तब के विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण इसका उदाहरण है। इसे आमतौर से हिंदी में दिए जाने वाले भाषण का तमगा  देकर निबटा दिया जाता है जबकि यह असल में सरकार बदलने के बाद भी वैदेशिक मामलों में देश की निरंतरता का संकल्प दोहराता है। 1947 के बाद करीब 45-50 साल तक, नवउदारवाद के शकुनि युग के आरम्भ तक ऐसा ही चला।

इसकी वजह भारतीय विदेशनीति के वे मूल सिध्दांत थे जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आकार ग्रहण किया था। दुनिया के प्रति दृष्टिकोण अंग्रेजी उपनिवेश की गुलाम अवस्था के बुरे अनुभव तथा तात्कालिक अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के उस विश्लेषण पर आधारित था जो सभी देशों की स्वतंत्रता, संप्रभुता और सार्वभौमिकता को उनका जन्मसिध्द अधिकार मानता था। जो विदेश नीति को युध्द की सामरिक रणनीति से अलग करता था। वर्चस्ववाद; खुद पर किसी का वर्चस्व स्वीकार न करने, किसी पर अपना वर्चस्व कायम न करने के मूलमंत्र से संचालित था। गुटनिरपेक्षता की प्रबल पक्षधरता और विश्व शांति की पुरजोर हिमायत इसकी वर्तनी थी और खुद सहित सभी देशों की आर्थिक, सामरिक और रणनीतिक स्वायत्तता इसकी आत्मा थी।

कहते हैं कि किसी भी देश की  विदेश नीति अंततः उसकी आन्तरिक नीति का अक्स होती है। नवउदारवाद का शकुनि आता है तो अपने साथ पांसे भी लाता है, जुए की फड़ भी आती है और फिर आगे की कथा भी आती है। 6 सितम्बर को भारत अमरीका के बीच दोनों देशों के रक्षा तथा विदेश मंत्रियों के बीच चली 2+2 वार्ताओं के बाद हुआ कोमकासा (कम्युनिकेशन कम्पेटिबिलिटी एंड सिक्युरिटी एग्रीमेंट) इसी भटकाव का - एक अत्यंत खतरनाक रास्ते पर चलने का - एक दस्तावेज है । यह भारत की विदेशनीति की समझदारी, दिशा और आयाम का विलोम है, उसका नकार है । एक ऐसा कदम है जिसके फौरी और दूरगामी दोनों तरह के असर सिर्फ चिंता और आशंका ही दिखाते हैं, आश्वस्ति नही देते ।

अमरीका के साथ किये जाने वाले 4 आधारभूत समझौतों में से यह तीसरा है । अगर इस कड़ी में आईएमएफ, विश्वबैंक और  डब्लू टी ओ भी जोड़ लिए जाये तो छह फेरे हो चुके, पूरी तरह गांठ बंधने में बस एक की कसर बाकी है ।

मोटे तौर पर यह एक सामरिक समझौता है । इसके बाद भारत कम्युनिकेशन के उच्चस्तरीय अमरीकी सैनिक उपकरणों का इस्तेमाल कर सकेगा । भारत के उपकरण अमरीकी सैना के सिस्टम से जुड़ जाएंगे । मैदानी गतिविधियों में अमरीकी इंटेलिजेंस सूचनाऐं साझी हो सकेंगी । नियन्त्रण और नेतृत्व - कंट्रोल एंड कमांड - "साझा" हो सकेगा । भारत के सारे हथियार, उनका संचालन तथा अभियान (खुले और गोपनीय दोनों) उनकी निगाह में रहेंगे । अरे वाह !! फिर तो वे भी हमें अपने केंद्रों, अभियानों और कमाण्ड आदि में इसी तरह की सुविधा देंगे ? जी नहीं । बिल्कुल नहीं । बल्कि वे गोपनीय सूचनायें भी उतनी और तब ही साझी करेंगे, जितनी और जब वे ठीक समझेंगे । और हां, इन्हें वे "साझा" नही करेंगे बेचेंगे । उसकी कीमत वसूलेंगे जो नकदी में भी होगी और दूसरी तरह से भी -जहां वे कहें वहां हाथ उठाना, जहां बोलें वहां पहुंच आना - वसूल होगी । अमरीका मुफ्त में कुछ नही करता ।

दावा किया गया है कि इससे भारत की रक्षात्मक क्षमता फटाक से बढ़ जाएगी । कितनी भोली बात है । किसी संचार प्रणाली से जुड़ने से ताकत बढ़ जाने की बात ठीक वैसी ही है जैसे जीपीएस से जुड़ने भर से मंजिल पर पहुंच जाना या आधार से जुड़ जाने पर दाल-भात-रोटी की पक्की व्यवस्था हो जाना !! बहरहाल जुमलों की छोड़िये, कोमकासा  के असली नतीजों पर नजर डालिए ।

अमरीकी सैन्यप्रणाली से नत्थी होने का मतलब है उसकी विदेश नीति का जूनियर पार्टनर बन जाना । मतलब विदेश नीति की अमरीकी परिभाषा को मान लेना जिसका घोषित मुख्य लक्ष्य है : दुनिया पर, सभी देशों पर अपना आर्थिक और सैनिक वर्चस्व कायम करना । अपने सभी "संभावित" दुश्मनों को पूरी तरह नष्ट करना । किसी भी देश को इस भांति, इस लायक विकसित न होने देना कि वह अगले सौ-पचास सालों में भी कभी अमरीका के लिए चुनौती बन सके ।  उसके पर अभी से कतरना।  जिन्होने 1978 में उजागर हुए पेंटागन के गोपनीय दस्तावेज "प्रोजेक्ट ब्रह्मपुत्र" के बारे में सुना है उन्हें याद होगा कि उसमे अगले 50 वर्षों में भारत और चीन को संभावित चुनौती मानकर उन्हें निबटाने के या उपाय सूत्रबद्द किये गए थे।  

क्या भारत इस बात के लिए तैयार है कि उसकी सेनाएं अमरीकी स्वार्थों के लिये ईराक़, अफगानिस्तान, लैटिन अमरीका, अफ्रीका, सोमालिया में लड़ने-मरने जाये ? जूनियर पार्टनर्स की हैसियत ना कहने की नही होती । कोमकासा ठीक यही प्रावधान करता  है जब वह इंडो-पैसिफिक अभियान और दूसरे प्रावधानों के जरिये भारत को चीन को घेरने के अमरीकी अभियान में बाकायदा शामिल करता है ।

कोमकासा सैना के हथियारों के नियंत्रण व संचालन की साझेदारी की बात करता है । जाहिर और ऐतिहासिक कारण से कोई बीसेक साल पहले तक भारतीय युध्द भंडार में अमरीकी हथियारों की उपस्थिति शून्य - जीरो - प्रतिशत थी । आज भी सैना की आर्मरी-आर्टिलरी में 65% हथियार, उपकरण, युद्दपोत, सुखोई-मिग इत्यादि युध्दक विमान, टैंक,बाकी आयुध रूसी हैं । उसके बाद यूरोपीय हैं । अमरीकी माल बहुत कम है।  क्या अब वे सब भी अमरीकी देखरेख में आ जाएंगे ? क्या भारत इनके संचालन - आपरेशन की जानकारी और खुफिया तकनीक अमरीका से साझा करेगा ? क्या यह रूस से इन्हें खरीदते वक्त हुए करारों का उल्लंघन नही होगा ? जो देश राफेल युध्द विमानों की खरीद के वक़्त हुए करार की माहिती अपने देश की संसद से साझा नही कर सकता वह किसी अन्य देश को रूसी उपकरणों की सूचनाओं को दे पायेगा ? यदि दे दीं तो भविष्य में क्या होगा ? यदि नही दीं तो फिर क्या भारत की सेनाएं कम्युनिकेशन और ऑपरेशन की दो विधियां अपनाएंगी ? एक अमरीका के लिये और दूसरी बाकी सब के लिए ? ये काल्पनिक सवाल नही हैं ।

कहीं इसका अर्थ यह तो नही कि अगली कुछ वर्षों में भारत को अपनी सैना के सारे हथियार कबाड़ में बेचकर अपने भण्डार को अमरीका भंगार से भरना होगा ? कुछ अंदाजा है कि इसके लिए जितना पैसा लगेगा वह कितने वर्षों की जीडीपी का योग होगा ?

कुल मिलाकर कोमकासा भारत को अमरीका के ऐसे जूनियर पार्टनर के रूप में नत्थी करता है, जिसे बदले में  सिवाय एक सपने, एक मृगमरीचिका के कुछ नही मिला है ।  इस समझौते की स्याही सूखने से पहले ही 7 सितम्बर को अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प का बयान बची-खुची कलई भी उतार देता है जब वे कहते हैं कि अब वे भारत और चीन को किसी भी तरह की रियायतें - सब्सिडी - नही देंगे ।

इस समझौते में व्यापार और मुक्त व्यापार का जिक्र है, जिस पर कुछ लोग खूब आल्हादित भी हैं । मगर इसमें यह कहीं भी नही कहा गया है कि अमरीका भारत के जीएसपी (प्राथमिकता की आम प्रणाली के हिस्से होने) के दर्जे को बहाल करेगा या हाल में ट्रम्प द्वारा छेड़े गये व्यापार घमासान में भारत की स्टील और एल्युमीनियम पर थोपे गये बढ़े चढ़े टैक्स हटायेगा । बल्कि उल्टे भारत पर शर्त थोपी गई है कि वह अमरीका के साथ अपना व्यापार संतुलन सुधारने के लिए उसे हर साल 10 अरब डॉलर का महसूल चुकायेगा । तथाकथित मुक्त व्यापार को मुंह चिढ़ाते हुए लगाई गई एक और अमरीकी शर्त यह है कि भारत नवम्बर तक ईरान से तेल खरीदना बन्द कर दे और आगे से सारा तेल अमरीका से ही खरीदे । अमरीका ने वह प्रतिबन्ध भी नही हटाया है जो उसने एस-400 मिसाइल सिस्टम सहित रूसी हार्डवेयर खरीदने पर लगाया हुआ है । भारत किससे तोप खरीदे किससे तमंचा ले, इसमें अमरीका कौन ? लगता है यह सवाल पूछने की ताकत भारत के मौजूदा राजनेता गंवा चुके हैं ।

आर्थिक नीतियों के मामले में अपनी स्वायत्तता खोने के बाद इस समझौते से भारत ने अपनी सामरिक-रणनीतिक संप्रभुता को भी अमरीकी हितों से बांध दिया है । उसकी अधीनता को स्वीकार लिया है । बदले में बाकी सब तो दूर रहा, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जैसे सवालों पर भी वह अमरीका को उसकी धारणा से टस से मस नही कर पाया है ।

अमरीका के साथ होने वाले चार आधारभूत समझौतों में कोमकोसा तीसरा तथा भाजपा सरकार का दूसरा समझौता है । इससे पहले 2016 में लेमोआ (लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेन्ट) हुआ था । जिसमे एक दूसरे की सैन्य सुविधाओं का उपयोग करने पर सहमति बनी थी । दूसरे में उसने उसे अपने कंट्रोल रूम और कमांड स्टेशन पर लाकर बिठा दिया है । ऐसा करने की हिम्मत तो शुरुआती पहला करार करने वाली यूपीए सरकार भी नही कर पाई थी ।

अमरीका दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जिसके साथ जो भी गया है वह कहीं का नहीं रहा है ।

ऐसे समय मे जब चीन और पाकिस्तान के साथ सनातन तनाव कायम है, मालदीव से लेकर नेपाल तक, श्रीलंका से म्यांमार तक, यहाँ तक कि बंग्लादेश सहित सभी पड़ोसियों से रिश्ते ऐतिहासिक नीचाईयों तक पहुँचे हुए हैं । तब अमरीका के साथ इस तरह से नत्थी होना वैचारिक दिवालियेपन की हद तक पहुंचे अदूरदर्शी राजनीतिक नेतृत्व को ही समझदारी का काम लग सकता हैI

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